उपनिवेशवाद और देहात
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Class 12 History Chapter 10 Subjective Questions in Hindi
1. रैयतवाड़ी भू-राजस्व व्यवस्था की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – यह व्यवस्था 1792 में मद्रास प्रेसीडेन्सी के बारामहल जिले में सर्वप्रथम लागू की गई। रैयतवाड़ी व्यवस्था के प्रारम्भिक प्रयोग के बाद कैप्टन मुनरो ने इसे 1820 ई. में सम्पूर्ण मद्रास में लागू कर दिया। इसके तहत कम्पनी तथा रैयतों (किसानों) के बीच सीधा समझौता या सम्बन्ध था । राजस्व के निर्धारण तथा लगान वसूली में किसी जमींदार या बिचौलिये की भूमिका नहीं होती थी। कैप्टन रीड तथा टॉमस मुनरो द्वारा प्रत्येक पंजीकृत किसान को भूमि का स्वामी माना गया। वह राजस्व सीधे कम्पनी को देगा और उसे अपनी भूमि के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था लेकिन कर न देने की स्थिति में उसे भूमि देनी पड़ती थी । इस व्यवस्था के सैद्धान्तिक पक्ष के तहत खेत की उपज का अनुमान कर उसका आधा राजस्व के रूप में जमा करना पड़ता था।
2. स्थायी बन्दोबस्त से कम्पनी को क्या लाभ हुए ?
उत्तर- स्थायी बन्दोबस्त के लाभ-ये निम्न हैं- 1. स्थायी बन्दोबस्त होने से सरकार की आय निश्चित हो गई। 2. बार- बार बन्दोबस्त करने की परेशानी से सरकार को छुटकारा मिल गया था। 3. स्थायी बन्दोबस्त के होने से जमींदारों को लाभ हुआ। अतः वे सरकार के स्वामिभक्त बन गये। उन्होंने 1857 के विद्रोह में सरकार का पूरी तरह साथ दिया। 4. स्थायी बन्दोबस्त हो जाने से सरकारी कर्मचारी तथा अधिकारी अधिक समय मिलने के कारण लोक-कल्याण के कार्य कर सकते थे। 5. चूँकि सरकार को निश्चित राशि देनी होती थी । अतः कृषि सुधार एवं भूमि सुधार से जमींदारों को अधिक लाभ हुआ।
3. पाँचवीं रिपोर्ट पर टिप्पणी लिखिए
उत्तर- पाँचवीं रिपोर्ट भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन तथा क्रिया-कलापों के सम्बन्ध में तैयार की गई थी। यह रिपोर्ट 1,002 पृष्ठों में उल्लिखित थी। इस रिपोर्ट में जमींदारों और रैयतों की अर्जियाँ, विभिन्न जिलों के कलेक्टरों की रिपोर्ट, राजस्व, न्यायिक, सांख्यिकीय तालिकाएँ आदि पर टिप्पणियाँ शामिल की गईं। ब्रिटेन के कुछ ऐसे समूह भी थे जो भारत और चीन के साथ व्यापार पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एकाधिकार का विरोध करते थे। कम्पनी के कुशासन और अव्यवस्थित प्रशासन के विषय में प्राप्त सूचना पर ब्रिटेन में बहस छिड़ना स्वाभाविक था । ब्रिटेन के समाचार-पत्र कम्पनी की भ्रष्ट नीतियों का खुलासा कर रहे थे। इस प्रकार कम्पनी को बाध्य किया गया कि वह भारत के प्रशासन से सम्बन्धित रिपोर्ट नियमित रूप से भेजे। यही पाँचवीं रिपोर्ट एक ऐसी रिपोर्ट है जो प्रवर समिति द्वारा तैयार रिपोर्ट है। पाँचवीं रिपोर्ट तैयार करने वाले कम्पनी के प्रशासन की आलोचना करने में तुले हुये थे। पाँचवीं रिपोर्ट में दिये गये साक्ष्यों एवं तर्कों को बिना किसी आलोचना के स्वीकार नहीं किया जा सकता। पाँचवीं रिपोर्ट एक सरकारी रिपोर्ट है अत: मात्र इस रिपोर्ट के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालने से पूर्व अन्य उपलब्ध तत्युगीन स्रोतों का अवलोकन आवश्यक प्रतीत होता है।
4. भारत में यूरोपीय उपनिवेशों की स्थापना के क्या कारण थे?
उत्तर- भारत में उपनिवेशों की स्थापना के कारण – 1. कच्चे माल की प्राप्ति-यूरोपीय देशों में व्यापारिक समृद्धि के फलस्वरूप उद्योगों के कच्चे माल की कमी को पूर्ण करने के लिये यूरोपीय देशों ने प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण भारत में उपनिवेश की स्थापना की। 2. निर्मित माल की खपत- उद्योगों की स्थापना एवं कच्चे माल की उपलब्धता से औद्योगिक उत्पादन तीव्र गति से बढ़ा। अतः निर्मित माल को खपाने के लिये भी उपनिवेशों की स्थापना की गयी। 3. ईसाई धर्म का प्रचार-प्रचारक मनुष्यों को संदेश देते थे कि मुक्ति एवं पुण्य प्राप्त करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को प्रभु ईसा मसीह की शरण में जाना चाहिये। अतः ईसाई धर्म प्रचारकों ने उपनिवेशों की स्थापना का समर्थन किया ताकि नये-नये देशों में वे धर्म-प्रचार कर सकें। 4. प्रतिकूल जलवायु – जलवायु भिन्नता के कारण यूरोपवासी नवीन वस्तुओं से अनभिज्ञ थे। पूर्वी देशों के सम्पर्क से उन्हें आलू, तम्बाकू, भुट्टा, गरम मसाले, चीनी, कॉफी, चावल आदि की जानकारी मिली। अत: अंग्रेज चाहते थे कि उन्हें ऐसे प्रदेश प्राप्त हो जायें जहाँ इनकी खेती की जा सके। 5. समृद्धि की लालसा – विभिन्न देशों से आये यात्रियों के भारत सम्बन्धी वृत्तान्तों से प्रेरित होकर यूरोपीय यहाँ धन एवं वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये आये
5. संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया ?
उत्तर- संथाल इस समय तक औपनिवेशिक शासन तथा राजस्व के बढ़ने से तंग आ चुके थे। वे अपने लिए अलग दुनिया का निर्माण करना चाहते थे जहाँ वे स्वतन्त्र तरीके से रह सकें। इसके अतिरिक्त जब इस क्षेत्र (दामिन-इ-कोह) में संथालों ने जमीन साफ कर खेती प्रारम्भ की तो महेरा तथा पाकुर के राजाओं ने संथालों के गाँवों को जमींदारों तथा महाजनों के हवाले कर दिया। इस इलाके में बाहरी लोगों के आगमन ने उनके (संथालों) जीवन को अधिक शोषित बना दिया था। संथालों ने जिस भूमि को साफ कर खेती प्रारम्भ की थी उस पर सरकार अत्यधिक राजस्व कर लगाने लगी थी और जमींदार लोग दामिन-इ-कोह पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने लगे । अतः सरकारी अधिकारियों, जमींदारों, व्यापारियों तथा महाजनों द्वारा शोषित होकर संथालों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह 1855-56 में प्रारम्भ हो गया। इस विद्रोह का नेतृत्व सिद्धू तथा कान्हू ने किया था। विद्रोही गतिविधियों के तहत संथालों ने जमींदारों तथा महाजनों के घरों को लूटा, खाद्यान्न को छीना, सरकारी अधिकारियों ने विद्रोह को दबाने के लिये मार-पीट करके उनका दमन प्रारम्भ किया जिससे ये विद्रोही और अधिक उग्र हो गये। सिद्धू तथा कान्हू को संथालों ने ईश्वर के भेजे हुए दूत माना और इन्हें विश्वास था कि ये इन शोषणों से मुक्ति दिलायेंगे।
6. महालवाड़ी बन्दोबस्त से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर- महालवाड़ी बन्दोबस्त – उत्तर प्रदेश और मध्य प्रान्त के कुछ भागों में लार्ड वेलेजली द्वारा लागू व्यवस्था को महालवाड़ी व्यवस्था कहा जाता है। महाल का शाब्दिक अर्थ है गाँव के प्रतिनिधि अर्थात् जमींदार या जिनके पास अधिक भूमि होती थी अर्थात् जमींदारों के साथ सामूहिक रूप से लागू की गई व्यवस्था। गाँवों को एक महाल माना जाता था। इसमें राजस्व जमा करने का काम मुकद्दम प्रधान, किसी बड़े रैयत को दिया जा सकता था। ये सरकार को राजस्व एकत्रित कर सम्पूर्ण भूमि (गाँव) का कर देते थे।समय के साथ-साथ इसका राजस्व कर बढ़ा दिया जाता था। जैसे कि 1803-04 में इन प्रान्तों से 188 लाख रु. एकत्रित किये गये। आगे चलकर यही राजस्व कर 1817-18 में बढ़ाकर 297 लाख कर दिया गया।
7. भारत में कृषि का वाणिज्यीकरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- ब्रिटेन की कपास की जरूरत ने भारत की कृषि को एक नया मोड़ दिया। तात्पर्य यह था कि भारत में ज्यादा-से-ज्यादा कच्चे माल की पैदावार हो अर्थात् भारत इंग्लैण्ड के उद्योगों के लिए कच्चे माल का प्रदाता बने क्योंकि ब्रिटेन के उभरते हुए कपड़ा उद्योग के लिए कच्चे माल तथा निर्मित माल के लिए मण्डियों की आवश्यकता थी। इस जरूरत ने वणिक पूँजीवाद को व्यापार पूँजीवाद में परिवर्तित करने पर बल दिया और औपनिवेशिक शोषण की पद्धति में परिवर्तन हुआ। 1813 का चार्टर एक्ट तथा 1833 के चार्टर एक्ट को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। ब्रिटेन द्वारा अपनी योजना को सकारात्मक रूप देने के लिए कृषि साधनों के विकास के लिए भारत में ब्रिटेन से पूँजी का निवेश किया जाने लगा ताकि कच्चा माल उच्च कोटि का पैदा हो सके। यह पूँजी भारत की चाय, कॉफी, नील और पटसन की कृषि में लगाई जाने लगी।
8. धन निष्कासन के सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- भारत से धन निर्गमन का सिद्धान्त- प्राचीन काल से अंग्रेजों के आगमन से पूर्व तक जितने भी विदेशी आक्रमणकारी भारत आये, वे भारत में ही बस गये। उन्होंने यहाँ कृषि एवं हस्तशिल्प को प्रोत्साहित किया। मुगल शासक कशीदाकारी एवं हस्तशिल्प के शौकीन थे। अतः ऊँची कीमत पर हस्तशिल्प को दरबारी सज्जा हेतु खरीदते थे। अधिक कीमत व तारीफ पाने की प्रतिस्पर्द्धा में हस्तशिल्पियों में सुन्दर से सुन्दर वस्तुएँ निर्मित करने की प्रतिस्पर्द्धा रहती थी। इससे हस्तशिल्प उद्योग अत्यधिक उन्नति करने लगा । यहाँ की निर्मित वस्तुएँ समस्त विश्व के देशों में निर्यात की जाने लगीं। समस्त विश्व का सोना-चाँदी भारत में आकर एकत्रित होने लगा । अंग्रेज भारत में ऐसे पहले विदेशी आक्रांता थे जिन्होंने भारत को कभी अपना नहीं माना। इन्होंने भारत से कमाकर खर्च इंग्लैण्ड में किया। इससे भारत की धन-सम्पदा का निर्गमन ब्रिटेन की ओर होने लगा। जान सुलीवन ने ठीक ही कहा है- “भारतीय अर्थव्यवस्था अंग्रेजों के अधीन एक स्पंज की तरह कार्य कर रही है जो भारत की गंगा नदी से सारा धन रूपी पानी सोख कर इंग्लैण्ड की टेम्स नदी में निचोड़ देती है।”इस प्रकार अंग्रेजों ने भारतीय धन का दोहन किया। कुशासन के आरोप में अवध को हड़प लिया। ऐसे ही कई राज्य हड़पे गये। इससे दरबारी नवाबों का पतन हुआ। पहले हस्तशिल्पियों को कृषक बनने हेतु बाध्य किया। कृषकों से नकदी फसलें पैदा करायीं। इससे वे कर्ज के मायाजाल में उलझ गये और अपनी कृषि छोड़कर मजदूर बनने के लिये बाध्य हुये। इस प्रकार भारत में व्यापार एवं हस्तशिल्प का पतन हुआ। भारतीय धन-सम्पदा का बहाव इंग्लैण्ड की ओर हो गया।
9. स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? इसके लाभ और हानियों का वर्णन करें। ‘अथवा’ स्थायी बन्दोबस्त से आप क्या समझते हैं? ‘अथवा’ स्थायी व्यवस्था के गुण-दोष की विवेचना कीजिए।
उत्तर- स्थायी बन्दोबस्त – बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त 1793 में लागू किया गया था। इस व्यवस्था में भूमि जमींदारों को स्थायी रूप से दी जाती थी और उन्हें एक निश्चित धनराशि सरकारी कोष में जमा करनी पड़ती थी । इससे जमींदारों को लगान वसूली के साथ-साथ भूमि स्वामी के अधिकार भी प्राप्त हुए। इस व्यवस्था से सरकार को लगान के रूप में एक निश्चित रकम मिल जाती थी एवं जमींदारों और सरकार को किसानों के दुःख-सुख से कोई मतलब न था । स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था के लाभ – 1. स्थायी बन्दोबस्त होने से सरकार की आय निश्चित हो गई। 2. बार-बार बन्दोबस्त करने की परेशानी से सरकार को छुटकारा मिल गया था। 3. स्थायी बन्दोबस्त के होने से जमींदारों को लाभ हुआ। अतः वे सरकार के स्वामिभक्त बन गये। उन्होंने 1857 के विद्रोह में सरकार का पूरी तरह साथ दिया। 4. स्थायी बन्दोबस्त हो जाने से सरकारी कर्मचारी तथा अधिकारी अधिक समय मिलने के कारण लोक-कल्याण के कार्य कर सकते थे। 5. चूँकि सरकार को निश्चित राशि देनी होती थी। अतः कृषि सुधार एवं भूमि सुधार से जमींदारों को अधिक लाभ हुआ । स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था के दोष -1. भूमिकर की राशि बहुत अधिक निश्चित की गई थी, जिसे न चुका सकने पर जमींदारों की भूमि बेचकर यह राशि वसूल की गई। 2. स्थायी बन्दोबस्त किसानों के हित को ध्यान में रखकर नहीं किया गया था। अधिक से अधिक राशि वसूल करने हेतु किसानों के साथ जर्मीदारों द्वारा कठोर व्यवहार किया गया। 3. सरकार ने कृषि सुधार हेतु कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि इससे होने वाले फायदे से उसे कोई लाभ नहीं था। लगान की राशि तो पहले ही निश्चित कर चुकी थी । 4. स्थायी बन्दोबस्त ने जमींदारों को आलसी और विलासी बना दिया। 5. बंगाल में जमींदारों और किसानों में आपसी विरोध बढ़ने लगा था । 6. जमींदारों ने भी कृषि की उपज बढ़ाने हेतु कोई ध्यान नहीं दिया। वे शहरों में जा बसे और उनके प्रतिनिधियों द्वारा किसानों पर अत्याचार किया गया।
10. भारतीय ग्रामीण समाज पर उपनिवेशवाद के प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर- भारतीय ग्रामीण समाज पर उपनिवेशवाद का प्रभाव – 1. औद्योगिक मजदूरों और कारीगरों की दशा खराब होना – उपनिवेशवाद का सबसे बुरा प्रभाव हस्तकला कारीगरों एवं कपड़ा उद्योग पर हुआ। औद्योगिक क्रान्ति के आने से अंग्रेज सरकार ने भारत के कपड़ा उद्योगको नष्ट करने हेतु इसे निर्मित माल की खपत एवं कच्चे माल की मण्डी में परिवर्तित कर दिया। देशी रियासतों के अधीन अनेक हस्त कारीगरों का पतन भी राजाओं की भाँति होने लगा। परिणामतः राजाओं के राज्य समाप्त होने से ये उद्योग भी समाप्त होने लगे। 2. कृषि की हानि और किसानों की निर्धनता – अंग्रेजों ने प्रारम्भ से ही किसान विरोधी नीतियाँ अपनाईं जिनसे वे अधिक से अधिक धन एकत्र करने लगे। निर्धन किसान बड़े-बड़े जमींदारों की दया पर निर्भर थे जो उनसे कई तरह के अवैध कर भी वसूलते थे। 3. अंग्रेजों द्वारा स्थापित भूमि प्रबन्ध की त्रुटियाँ – अंग्रेजों ने पूरे भारत में एक ही प्रकार का भूमि प्रबन्ध स्थापित नहीं किया बल्कि देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रणालियाँ स्थापित कीं। 4. लगान एकत्रित करने के कठोर तरीके-कृषि की उपज व अकाल पड़ने से कृषक को भूमि कर देना मुश्किल होता था, परिणामस्वरूप या तो किसान खेत बेचता था या साहूकार के पास गिरवीं रखता था। दोनों ही स्थितियों में किसान को अपनी भूमि से हाथ धोना पड़ता था । 5. साहूकारों द्वारा किसानों का शोषण – अंग्रेजों से पूर्व साहूकार ब्याज की दर आम जनता द्वारा ही तय करता था, वे अधिक से अधिक किसान द्वारा रखा गया गहना या उपज का कुछ भाग ही ले सकता था। परन्तु अंग्रेज सरकार द्वारा पारित नये भू-राजस्व कानून के अनुसार कर न देने की स्थिति में भूमि हथिया सकता था। परिणामस्वरूप वे किसानों पर मनमानी करने लगे तथा उनका शोषण करने लगे ।
11. अठारहवीं शताब्दी के अन्त में ‘जोतदारों’ की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर- अठारहवीं शताब्दी में जिस समय कम्पनी द्वारा राजस्व एकत्रित करने के लिए जमींदारों पर दबाव डाला जा रहा था तथा जिस समय जमींदार संकट की स्थिति से गुजर रहे थे उस समय एक नये वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग 18वीं सदी के अन्त में तीव्र गति से उदित हुआ। सामान्यतः उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले में धनी किसानों के वर्ग को ही ‘जोतदार’ कहा जाता था जिसका विवरण फ्रांसिस बुकानन के सर्वेक्षणों द्वारा प्राप्त होता है। ग्रामीण बंगाल में जोतदारों का प्रभाव – 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इन जोतदारों का प्रभाव पूर्ण रूप से इस क्षेत्र ( दिनाजपुर जिला) पर फैल गया था।उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले में अत्यधिक विस्तृत जमीनें होती थीं। जमीनों के बड़े-बड़े रकबे जो कई हजार एकड़ में फैले थे इनकी जमीनों पर उपज बटाईदार (अधियार) के माध्यम से की जाती थी। ये बटाईदार या ‘बरगादार’ खेती करके उपज का आधा भाग जोतदार को देते थे। जोतदार गाँव में ही निवास करते थे तथा जमींदारों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होते थे क्योंकि गाँव के व्यक्तियों पर इनका सीधा नियन्त्रण स्थापित था। इसके अतिरिक्त स्थानीय व्यापार तथा साहूकारी भी इनके द्वारा नियन्त्रित थी । यह जोतदार न सिर्फ व्यापारियों एवं साहूकारों पर अपना नियन्त्रण रखते थे अपितु गाँव अथवा जिलों के जमींदार भी इनके नियन्त्रण से अप्रभावित नहीं थे। यह जमींदारों द्वारा गाँव की लागत को बढ़ाने पर इनका घोर विरोध करते थे । जोतदार जमींदारों पर निर्भर किसानों को अपनी ओर कर उनको (जमींदारों को) उनके कर्तव्यों का पालन करने से रोकते थे। जमींदारों द्वारा राजस्व का भुगतान न करने पर होने वाली नीलामी में भी जोतदार ही नीलाम होने वाली जमीन को खरीदते थे। कुछ जगहों पर इन्हें ‘हवलदार’ तथा ‘गाँटीदार’ या ‘मण्डल’ कहा जाता था।