भक्ति सूफी परम्पराएँ

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Class 12 History Chapter 6 Subjective Questions in Hindi

1. चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का संक्षिप्त परिचय दें।

उत्तर – मुइनुद्दीन चिश्ती – भारतवर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रवर्तक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को माना जाता है। ये 1192 ई. में भारत में आये। अजमेर में इनकी प्रसिद्ध दरगाह है। इन्हें मुहम्मद गौरी ने ‘सुल्तान-उल-हिन्द’ अर्थात् हिन्द का आध्यात्मिक गुरु की उपाधि से विभूषित किया था।शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी – यह मुइनुद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य थे। ये इल्तुतमिश के समय भारत आये। इनका जन्म 1235 ई. में फरगना के गौस नामक स्थान पर हुआ था। बख्तियार (भाग्य-बन्धु) नाम मुइनुद्दीन का दिया हुआ था। फरीदउद्दीन गंज-ए-शकर इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल शहर में 1175 ई. में हुआ था। ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। तीन पत्नियों में से एक, प्रथम पत्नी बलवन की पुत्री थी जिसका नाम हुजैरा था।
 2. मीराबाई पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।

उत्तर- मीराबाई (1498-1573 A. D. ) – दक्षिण भारत में अलवार महिला संत अंडाल की तरह उत्तर भारत में मीराबाई भी कृष्ण को अपना पति मानती थीं व राजस्थान के मेड़ता के शासक रत्नसिंह राठौर की पुत्री थीं। मीराबाई का जन्म 1498 ई. में मेड़ता के एक गाँव कुस्ली में हुआ। मीराबाई को बालपन से ही कृष्ण से प्रतीकात्मक प्रेम था। 1516 ई. में मीराबाई का विवाह राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ। उनके पति भोजराज की असमय मृत्यु हो गई और मीराबाई विधवा हो गईं। मीरा अब कृष्ण भक्ति में लीन रहने लगीं। 1531 ई. में राणा सांगा का छोटा बेटा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। उसने मीरा को विष देकर मारने का प्रयास किया। मगर ‘जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय’ । वे अब चित्तौड़ छोड़कर मेड़ता के शासक अपने चाचा ब्रह्मदेव के पास चली गयीं। जोधपुर राजा मालदेव ने जब मेड़ता पर अधिकार किया तब वे मेड़ता छोड़कर द्वारका चली गयीं। द्वारका में वे पूर्णतः कृष्ण भक्ति में लीन रहीं। उन्होंने कृष्ण भक्ति के कई पदों का सृजन किया। उनका यह भजन तो आज भी प्रत्येक भारतवासी की जबान पर है-
“मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जा के सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।। 

3. भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रभावों का वर्णन करें। 

त्तर- भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने स्थानीय भाषा में भजन गाये एवं पदों का सृजन किया, इससे प्रान्तीय भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। जनता में भाईचारे एवं सहिष्णुता की भावना का विकास हुआ। हिन्दू-मुस्लिमों के बीच वैमनस्य में कमी आयी। सामाजिक कुरीतियों एवं अन्धविश्वासों पर प्रहार किया गया। हिन्दुओं के आत्मबल में वृद्धि हुई। निम्न वर्ग को भी सम्बल मिला। आम जनता की संकीर्ण मानसिकता का अन्त हुआ एवं उसका दृष्टिकोण व्यापक हुआ। हिन्दू-मुस्लिमों की एक संयुक्त संस्कृति का विकास हुआ। मुगल सम्राट अकबर ने तो सभी धर्मों के धर्माचार्यों से उनके धर्म की विशेषताओं को सुना। हिन्दू धर्म से प्रभावित होकर उसने तिलक लगाना प्रारम्भ किया। पारसी धर्म से प्रभावित होकर सूर्य पूजा प्रारम्भ की एवं महल में सदैव अग्नि प्रज्ज्वलित करने की प्रथा आरम्भ की। यही नहीं उसने स्वयं ही अपना धर्म दीन-ए-इलाही आरम्भ किया।

4. सूफीवाद से आप क्या समझते हैं?

 उत्तर- सूफी शब्द अरबी के सूफ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है- ऊन । पाश्चात्य विद्वान ब्राउन के अनुसार ईरान में इन रहस्यवादी सूफी साधकों को पश्मिनापूश (ऊन पहनने वाला) कहा जाता था। ईरान के सन्त ऊनी वस्त्र को जीवन की तथा विलासिता से दूर रहने का प्रतीक मानकर एकांत जीवन पर जोर देते थे । सूफीवाद में गुरु परम्परा का काफी महत्व है। सूफी विचारधारा में पीर (गुरु) और मुरीद (शिष्य) के बीच के सम्बन्ध पर काफी बल दिया गया है। गुरु पथ-प्रदर्शक होता है और अपने ज्ञान रूपी दीपक से वह शिष्यों का मार्ग-दर्शन करता है। प्रत्येक पीर (गुरु) अपना वली(उत्तराधिकारी) नियुक्त करता था 

5. संत रामानन्द की प्रमुख शिक्षाओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर- संत रामानन्द की प्रमुख शिक्षाएँ – ( 1 ) इन्होंने विष्णु के स्थान पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की साधना पर बल दिया जो तत्युगीन सभी जातियों में प्रिय थे। (2) रामानन्द ने ब्राह्मण से लेकर शूद्रों तक को अपना शिष्य बनाकर जाँति-पाँति तथा बाह्य आडम्बरों का विरोध किया। (3) उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम समन्वयवाद का मार्ग प्रशस्त किया। (4) उन्होंने कहा कि गुरु को आकाशधर्मा होना चाहिए जो पौधे को बढ़ाने के लिए उन्मुक्तता दे न कि शिलाधर्मी जो पौधे को अपने गुरुत्व से दबाकर उसका विकास ही रोक दे।

6. दक्षिण भारत में भक्ति आन्दोलन में स्त्री संतों का योगदान बताइए |

उत्तर- अलवार एवं शैव परम्परा में स्त्री संतों का होना इस परम्परा की विशिष्टता को दर्शाता है। अलवारों में अंडाल नामक महिला संत के भक्तिगीत अत्यधिक लोकप्रिय थे और आज भी हैं। अंडाल स्वयं को विष्णु भगवान की प्रेयसी मानती थीं एवं अपने प्रेम सम्बन्धों को छंदों में व्यक्त करती थीं। इनकी तुलना उत्तर भारत की मीरा से की जाती है जो कि स्वयं को कृष्ण की प्रेयसी मानती थीं। कुछ विद्वानों ने अंडाल को दक्षिण की मीरा कहा है, मगर चूँकि अंडाल का काल मीरा से पहले का है अतः मीरा को उत्तर भारत की अंडाल कहना अधिक उचित होगा। नयनारों (शैव) में भी एक शिव भक्त स्त्री कराइकल अम्मइयार थीं। इन्होंने अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। नयनार परम्परा में कराइकल की रचनाओं को सुरक्षित रखा गया है।

7. सुहरावर्दी सिलसिले पर प्रकाश डालिए। 

उत्तर- सुहरावर्दी सिलसिला – भारत में सर्वप्रथम इस शाखा का प्रचार शेख बहाउद्दीन जकारिया द्वारा किया गया। इनका जन्म मुल्तान के कोट अंगेर नामक स्थान पर 1182 ई. में हुआ। इस शाखा का प्रवर्तक शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी को माना जाता है मगर वे कभी भारत नहीं आये। इस शाखा के सर्वप्रथम सूफी सन्त सैय्यद जलालुद्दीन बुखारी हुये जो “मखदुमे जहाँनिया” के नाम से लोकप्रिय थे। उन्होंने फिरोज तुगलक की राजस्व नीति को प्रभावित किया था। शेख हमीउद्दीन नागौरी भी इस सिलसिले के प्रमुख सन्त थे । सुहरावर्दी शाखा के अन्य सन्तों में “शेख मूसा ” और “शाह दौला दरियायी” के नाम उल्लेखनीय हैं। शेख मूसा सदैव स्त्री भेष में रहते थे और नृत्य-संगीत में अपना समय व्यतीत करते थे। शाह दौला दरियायी गुजरात के निवासी थे जिनका सम्बन्ध शादी वंश से था ।
8. सगुण एवं निर्गुण भक्ति में क्या अन्तर है? 

उत्तर – भक्ति परम्परा की दो परम्पराएँ प्रचलित हुईं- (1) सगुण परम्परा- इस परम्परा में देवी-देवताओं की भक्ति एवं आराधना की जाती थी। मूर्ति पूजा पर बल दिया गया। इस परम्परा में भी दो मार्ग थे- (i) कृष्ण भक्ति मार्ग-कई संत कृष्ण भक्त थे। चैतन्य, सूरदास एवं मीरा आदि ने कृष्ण भक्ति एवं उनके गीत गाकर इस कृष्ण भक्ति मार्ग का अनुसरण किया।
(ii) राम भक्ति मार्ग – कुछ संतों ने राम भक्ति का मार्ग अपनाया। (2) निर्गुण परम्परा – निर्गुण भक्ति परम्परा में अमूर्त, निराकर ईश्वर की उपासना की जाती थी। कबीर ने निर्गुण परम्परा को अपनाया ।

9. भक्ति आन्दोलन के परिणामों का वर्णन करें।’अथवा ‘ भक्ति आन्दोलन के महत्व और प्रभाव की समीक्षा करें।

 उत्तर- मध्यकालीन भारत में कई धार्मिक विचारकों तथा सुधारकों ने भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन में सुधार लाने के उद्देश्य से भक्ति का साधन बनाकर एक आन्दोलन प्रारम्भ किया जो मध्यकाल में ‘ भक्ति आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। भक्ति आन्दोलन के प्रणेता ईश्वर की एकता (एकेश्वरवाद) पर बल देते थे। वे कर्मकाण्ड एवं आडम्बर को मिथ्या बताते थे। इन्होंने जाति-पाँति के भेदभाव को त्यागने पर बल दिया, साथ ही अस्पृश्यता का विरोध किया। प्रत्येक प्रकार की सामाजिक कुरीति का विरोध किया। इन्होंने चरित्र की शुद्धता पर बल दिया । भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने स्थानीय भाषा में भजन गाये एवं पदों का सृजन किया, इससे प्रान्तीय भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। जनता में भाईचारे एवं सहिष्णुता की भावना का विकास हुआ। हिन्दू-मुस्लिमों के बीच वैमनस्य में कमी आयी। सामाजिक कुरीतियों एवं अन्धविश्वासों पर प्रहार किया गया। हिन्दुओं के आत्मबल में वृद्धि हुई । निम्न वर्ग को भी सम्बल मिला। आम जनता की संकीर्ण मानसिकता का अन्त हुआ एवं उसका दृष्टिकोण व्यापक हुआ। हिन्दू-मुस्लिमों की एक संयुक्त संस्कृति का विकास हुआ।

10. सूफियों के मुख्य सम्प्रदाय और उनके प्रमुख सन्तों के नाम लिखिए 

उत्तर- सूफियों के मुख्यतः चार सम्प्रदाय थे- (i) चिश्ती सम्प्रदाय, (ii) सुहरावर्दी सम्प्रदाय, (iii) कादिर सम्प्रदाय, (iv) नक्शबन्दी सम्प्रदाय । (1) चिश्ती सिलसिला – भारतवर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रवर्तक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को माना जाता है। ये 1192 ई. में भारत में आये। अजमेर में इनकी प्रसिद्ध दरगाह है। इन्हें मुहम्मद गौरी ने ‘सुल्तान-उल-हिन्द’ अर्थात् हिन्द का आध्यात्मिक गुरु की उपाधि से विभूषित किया था। शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी – यह मुइनुद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य थे। इनका जन्म 1235 ई. में फरगना के गौस नामक स्थान पर हुआ था । फरीदउद्दीन – गंज-ए-शकर इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल – शहर में 1175 ई. में हुआ था। ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। शेख निजामुद्दीन औलिया-इनका वास्तविक नाम मुहम्मद बिन – अहमद-बिन-दनियल-अल बुखारी था। इनका जन्म बदायूँ में 1236 ई. में हुआ था। इन्हें ‘महबूब -ए-इलाही’ (ईश्वर का प्रिय) तथा ‘सुल्तान-उल-औलिया’ (सन्तों का राजा) भी कहा जाता है। इनकी मृत्यु 1325 ई. में हुई। शेख बुरहानुद्दीन—ये औलिया शिष्य के थे। इन्होंने दौलताबाद को अपनी शिक्षा का केन्द्र बनाकर ‘महबूब – ए-इलाही’ के उपदेशों का प्रचार किया। शेख सलीम चिश्ती – चिश्ती शाखा के अन्तिम सूफियों में शेख सलीम चिश्ती का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ये फतेहपुर सीकरी में रहते थे। शेखसलीम चिश्ती के आशीर्वाद से ही अकबर के पुत्र सलीम जहाँगीर का जन्म हुआ । इनकी दरगाह फतेहपुर सीकरी में है। चिश्ती सम्प्रदाय में संगीत को प्रधानता दी गई थी। निजामुद्दीन औलिया ने योग को उस हद तक अपनाया कि उन्हें योगी सिद्ध भी कहा गया। ये राजनीति से विरत रहते थे । चिश्ती सन्त राज्य की सेवा स्वीकार नहीं करते थे। (2) सुहरावर्दी सिलसिला – भारत में सर्वप्रथम इस शाखा का प्रचार शेख बहाउद्दीन जकारिया द्वारा किया गया। इनका जन्म मुल्तान के कोट अंगेर नामक स्थान पर 1182 ई. में हुआ था। इस शाखा का प्रवर्तक शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी को माना जाता है मगर वो कभी भारत नहीं आये। इस शाखा के सर्वप्रमुख सूफी सन्त सैय्यद जलालुद्दीन बुखारी हुये जो ‘मखदूमे जहाँनिया’ के नाम से लोकप्रिय थे। उन्होंने फिरोज तुगलक की राजस्व नीति को प्रभावित किया था। शेख हमीदउद्दीन नागौरी भी इसी सिललि के प्रमुख सन्त थे । सुहरावर्दी शाखा के अन्य सन्तों में ‘शेख मूसा’ और ‘शाह दौला दरियायी’ के नाम उल्लेखनीय हैं। शेख मूसा सदैव स्त्री भेष में रहते थे और नृत्य संगीत में अपना समय व्यतीत करते थे। शाह दौला दरियायी गुजरात के निवासी थे जिनका सम्बन्ध शादी वंश से था । (3) कादिरी सिलसिला – इराक के अब्दुल कादिर अल जिलानी इसके प्रवर्तक थे। भारत में कादिरी सिलसिले के प्रवर्तक मुहम्मद गौस थे। सिकन्दर लोदी की लड़की की शादी उनसे हुई थी। राजकुमार दाराशिकोह कादिरी सिलसिले के मुल्ला शाह बदख्शी के शिष्य थे। (4) नक्शबंदी सिलसिला – अकबर के अन्तिम दिनों में यह सिलसिला भारत आया। ख्वाजा वकी बिल्लाह जो काबुल से आकर दिल्ली में बस गये थे, भारत में इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। इनके शिष्यों में ‘शेख अहमद फारुख सरहिन्दी’ प्रमुख थे। औरंगजेब उनके पुत्र शेख मासूम का शिष्य हो गया था।

 11. अजमेर के मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर एक लेख लिखिए। 

उत्तर- अजमेर स्थित ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर आज भी हजारों की संख्या में श्रद्धालु अपनी मन्नतें माँगने जाते हैं। यह दरगाह दिल्ली और गुजरात को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने के कारण भी यात्री यहाँ अधिक आते हैं। शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की मजार पर मालवा के सुल्तान ग्यासुद्दीन तुगलक ने पहली इमारत का निर्माण कराया था। सर्वप्रथम यहाँ आने वाला सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1324-1351 ई.) था। मुगल सम्राट अकबर महान् यहाँ 14 बार आया था । यहाँ के शाही दस्तावेजों में उन ब्यौरों का उल्लेख है जिनमें प्रत्येक यात्रा के दौरान अकबर ने यहाँ दान-भेंट दी। शहंशाह अकबर के पश्चात् अजमेर में चिश्ती साहब की दरगाह पर आने वालों में शाहजहाँ की पुत्री जहाँआरा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। जहाँआरा वस्तुतः बहु-आयामी प्रतिभा की शहजादी थी। सार्वजनिक कार्यों में उसने हिस्सा लिया। चाँदनी चौक निर्माण कार्य में उसका महत्वपूर्ण योगदान था। धर्म-कर्म में भी उसकी रुचि थी। जहाँआरा ने शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की जीवनी ‘मुनिस अल अरवाह’ अर्थात् ‘ आत्मा का विश्वत’ का सृजन किया। जहाँआरा द्वारा लिखित इस रचना में दरगाह की पवित्रता एवं वहाँ जाकर करने वाली प्रार्थना के तौर-तरीकों की झलक मिलती है। साथ ही यह पता चलता है कि जहाँआरा को उस पवित्र दरगाह के प्रति कितनी अधिक आस्था एवं विश्वास था । जहाँआरा बताती है कि ‘वीरवार को रमजान के पाक माह के चौथे दिन’ अर्थात् इतिहास की दृष्टि से यह कथन महत्वपूर्ण है, इससे तत्युगीन समय के काल निर्धारण में इतिहासकारों को मदद मिलती है।

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