Eps Class 12 Chapter 21 Subjective in Hindi

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व्यवसाय में संवृध्दि एवं विकास की सम्भावनाएँ एवं रणनीति

1. विकास व्यूह-रचना की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर- विकास व्यूह-रचना की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(i) फर्म को उत्पाद क्षेत्र में सापेक्ष रूप से, उच्च शिखर तक पहुँचाना।

(ii) धीमे विकास में बाजार अंश बढ़ाना।

(iii) वर्तमान उत्पाद रेखा, बहु- राष्ट्रीय बाजारों में घुसने के लिए रोकड़ प्रवाह आधिक्य, कोष क्षमता एवं अन्य साधनों द्वारा सशक्त स्थिति बनाकर रखना। 

2. विविधीकरण उद्यम की किस प्रकार सहायता करता है?

उत्तर-  विविधीकरण उद्यम को अपने साधनों को प्रभावशाली ढंग से उपयोग करने में सहायता प्रदान करता है। उद्यम से जुड़ी जोखिमों को कम करता है एवं प्रतिस्पर्धा की भावना में वृद्धि करता है। 

3. आन्तरिक सम्वृद्धि रणनीति में किस-किस को शामिल किया जाता है?

उत्तर- आन्तरिक सम्वृद्धि रणनीति में आधुनिकीकरण, विस्तार एवं विविधीकरण लोकप्रिय रूप हैं। इसकी मान्यता यह है कि उद्यम को अपने बल पर बिना दूसरे उद्यमों के साथ मिलकर विकसित होना चाहिए। 

4. नव- परावर्तन क्या है? संवृद्धि के लिये यह क्यों आवश्यक है? 

उत्तर- नव-परावर्तन – पुरानी शराब को नई बोतल में भर देने से इसके नयेपन की पोल (भेद) तुरन्त खुल जाती हैं अर्थात् ऐसी नीति विकास को स्थायित्व नहीं दे सकती। अतः सफल साहसी नव-परावर्तन द्वारा ऐसी उत्पाद / विचार / सेवा बाजार में लाता है जो पहले से या तो विद्यमान नहीं थी या ऐसे रूप में थी जिसका लाभ ग्राहकों को पर्याप्त रूप में नहीं मिल पाता था । नव-परावर्तन की राह विकास और संवृद्धि को मंजिल तक पहुँचाती है। 

5. आधुनिकीकरण के अर्थ को स्पष्ट करें।

उत्तर- उत्पादन प्रक्रिया में नवीनतम तकनीक का प्रयोग जिससे उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता बढ़े आधुनिकीकरण कहलाता है। आधुनिकीकरण के फलस्वरूप उत्पादकता में सुधार होता है, जिससे प्रति इकाई उत्पादन लागत कम हो जाती है तथा ग्राहकों को वस्तुएँ सस्ती मिलती हैं तथा वस्तुएँ उन्नत किस्म की रहती हैं फलस्वरूप उपभोक्ता का रहन-सहन अच्छा होता है। 

6. फ्रेंचाइजिंग और विलयीकरण का क्या अर्थ है? 

उत्तर- फ्रेन्चाइजिंग- इस रणनीति के अन्तर्गत साहसी देश के विभिन्न भागों में अपना अधिकृत विक्रेता बहाल कर देता है जो उक्त उत्पाद को बेचने का कार्य करता है।
विलयीकरण – सभी रणनीतियाँ आन्तरिक होती हैं अर्थात् उपक्रम के अन्दर ही लागू रहती हैं किन्तु विलयीकरण बाह्य रणनीति है। यहाँ एक ही प्रकृति के दो या दो से अधिक उपक्रम आपस में मिल जाते हैं या फिर कोई बड़ा किसी छोटे उपक्रम को अपने साथ विलोपित कर लेता है। 

7. संवृद्धि को प्रभावित करने वाले कोई तीन तत्व बतायें।

उत्तर- (1) प्रतियोगिता- आज के गलाघोंट प्रतियोगिता के बाजार में एक उत्पाद/सेवा के दर्जनों उत्पादक इसे बेचने की होड़ में लगे हैं, अब एकाधिकार की बात सिर्फ कल्पना की बात रह गयी है। हर प्रतियोगी उत्पादक एक-दूसरे की तुलना में कुछ बेहतर ब्राण्ड लाकर आगे निकलने के उपाय में लगा रहता है। ऐसी स्थिति में व्यवसाय की संवृद्धि काफी हद तक प्रतियोगिता से प्रभावित होती है क्योंकि प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अपने को संवृद्ध करना ही होगा।

(2) तकनीक परिवर्तन- दिन-प्रतिदिन नये-नये तकनीक परिवर्तन ने जीवन के हर क्षेत्र को झकझोर डाला है। आज की नवीनतम कही जाने वाली लोकप्रिय कोई उत्पाद नई तकनीक आ जाने से तुरन्त पुरानी पड़ जाती है और लोग उसे छोड़ नये उत्पाद की ओर भागने लगते हैं। अतः साहसी को लगातार तकनीक परिवर्तन पर अपनी दृष्टि जमाये रखनी होगी और इसे तुरन्त अपनाने के लिए तैयार रहना होगा। इस प्रकार तकनीक परिवर्तन भी संवृद्धि को प्रभावित करता है क्योंकि जो साहसी इसकी अनदेखी करता है, वह विकास करने के बाद भी पीछे छूटता जायेगा। 

(3) सृजनशीलता – सृजनशीलता का अर्थ किसी ऐसे उत्पाद/विचार/सेवा को सृजित करना है जिसका लाभ ग्राहकों को मिल सके और उन्हें कुछ नयापन लगे। जो साहसी इस कला में दक्ष होगा, स्वाभाविक है कि उसका उपक्रम विकास की राह पर बढ़ चलेगा। 

8. आधुनिकीकरण और विस्तारीकरण क्या है? 

उत्तर- आधुनिकीकरण- समय की दौड़ में बने रहने के लिए साहसी को अपने उत्पाद को आधुनिक बनाते रहना होगा। यह आधुनिकीकरण उत्पाद के रंग, किस्म, आकार, डिजाइन, आधुनिक तकनीक का प्रयोग आदि के द्वारा किया जा सकता है। इस नीति से एक और जहाँ प्रति इकाई लागत कम होगी, वहीं ग्राहकों की नवीनतम् पसंद की आपूर्ति बनी रहेगी। 

9. फ्रेन्चाइजिंग के दो लाभ लिखिए।

उत्तर- फ्रेन्चाइजिंग व्यवस्था के निम्नलिखित लाभ हैं-
(i) फ्रेन्चाइजी को एक निश्चित क्षेत्र में सुरक्षित अधिकार प्राप्त होता है। (ii) बैंक ऋण प्राप्त करने के अवसर अधिक बढ़ जाते हैं। 

10. फ्रेन्चाइजिंग की हानियाँ क्या हैं? 

उत्तर- फ्रेन्चाइजिंग से दो मुख्य हानियाँ होती हैं-

(i) फ्रेन्चाइजर अपनी मेहनत द्वारा व्यवसाय की ख्याति बढ़ाता है, ख्याति फ्रेन्चाइजर की सम्पत्ति रहती है। 

(ii) फ्रेन्चाइजर की असफलता के साथ ही फ्रेन्चाइजी भी विफल माना जाती है। 

11. फ्रेन्चाइजिंग के दो लाभ लिखिए।

उत्तर- फ्रेन्चाइजिंग व्यवस्था के निम्नलिखित लाभ हैं-

(i) फ्रेन्चाइजी को एक निश्चित क्षेत्र में सुरक्षित अधिकार प्राप्त होता है।

(ii) बैंक ऋण प्राप्त करने के अवसर अधिक बढ़ जाते हैं।

12. संवृद्धि को कायम रखने वाले कोई दो तत्व बतायें।

उत्तर- (i) आधुनिकीकरण- समय की दौड़ में बने रहने के लिए साहसी को अपने उत्पाद को आधुनिक बनाते रहना होगा। यह आधुनिकीकरण उत्पाद के रंग, किस्म, आकार, डिजाइन, आधुनिक तकनीक का प्रयोग आदि के द्वारा किया जा सकता है। 

(ii) विस्तारीकरण – एक सफल साहसी अपने वर्तमान लाभ से संतुष्ट नहीं होता बल्कि वह अपने उत्पाद के बाजार को और बढ़ाकर या नये बाजार ढूँढ़कर अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाता है। कुछ नयी शाखा खोलता है और मशीन संयंत्र लगाकर अपने उपक्रम का विस्तार करता है। 

13. संवृद्धि के कोई तीन स्तर बतायें।

उत्तर- (i) जन्म स्तर – सर्वप्रथम व्यावसायिक जगत् में एक उपक्रम का जन्म होता है और यह बहुत थोड़े क्षेत्र और छोटे पैमाने से अपना कारोबार आरम्भ करती है।

(ii) विकास का स्तर- इस स्तर पर उपक्रम धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगता  है। बाजार में लोग इसे जानने पहचानने लग जाते हैं। इसके उत्पादन का पैमाना एवं बाजार का क्षेत्र बढ़ने लगता है।

(iii) विस्तार का स्तर – इस स्तर पर साहसी अपने को बाजार में मजबूत समझने लगता है तो उपक्रम को और आगे बढ़ाने की आवश्यकता महसूस होने लगती है । अत: नयी शाखा खोलकर, नयी इकाई बैठाकर या नई उत्पाद की किस्म लाकर पूरे बाजार के अधिकांश हिस्से को पकड़ने के लिए विस्तारीकरण किया जाता है। 

14. विकास एवं संवृद्धि के कोई तीन उद्देश्य बतायें।

उत्तर – विकास एवं संवृद्धि के कोई तीन उद्देश्य निम्न हैं-

(i) नये परिवर्तनों को अपनाना,

(ii) बदलती हुई परिस्थितियों का सामना करना,

(iii) बाजार में अपना अस्तित्व कायम रखना । 

15. स्थायित्व संरचना से क्या अभिप्राय है? 

उत्तर – स्थायित्व संरचना इस मान्यता पर आधारित है कि प्रतिस्पर्धी शक्ति को विकसित करने हेतु फर्म को अपने साधनों का अधिकतम उपयोग करना चाहिए। 

16. केन्द्रीयकरण किसे कहते हैं? यह क्यों किया जाता है?

उत्तर- साधारण शब्दों में केन्द्रीयकरण से आशय निर्णय लेने के अधिकार सुरक्षित रखने से है। केन्द्रीयकरण की अवस्था में अधिकांश निर्णय उन अधिकारियों द्वारा जो कि उस कार्य को करने के लिए उत्तरदायी हैं, न लिए जाकर उनसे ऊँचे अधिकारियों के द्वारा लिए जाते हैं। केन्द्रीयकरण की स्थिति में निर्णय कार्य बिन्दुओं से ऊपर के स्तर पर लिए जाते हैं। 

केन्द्रीयकरण के कारण (Reasons for Centralisation) – विभिन्न संगठनों में निम्न कारणों से प्राधिकार का केन्द्रीयकरण किया जाता है-
(i) व्यक्तिगत नेतृत्व को सुविधाजनक बनाना। (ii) एकीकरण (Integra- tion) प्रदान करना। (iii) कार्य की एकरूपता (Uniformity) प्राप्त करना । (iv) आपातकालीन परिस्थितियों का सामना करना । 

17. विविधीकरण के विभिन्न प्रकार क्या हैं?

उत्तर- विविधीकरण के प्रकार :- 

(i) क्षैतिज विविधीकरण (Horizontal Diversification) – इस प्रकार के विविधीकरण के अन्तर्गत उसी प्रकार के उत्पाद अथवा बाजार का उसके साथ जोड़ा जाना । जैसे-पेप्सी द्वारा शीतल पेय के साथ चिप्स व नमकीन का जोड़ा जाना क्षैतिज विविधीकरण का एक उदाहरण है।

(ii) उदग्र विविधीकरण (Vertical Diversification) – इस प्रकार के विविधीकरण के अन्तर्गत उद्यम के वर्तमान उत्पाद के साथ-साथ पूरक उत्पाद अथवा सेवा का जोड़ा जाना इसका एक अच्छा उदाहरण है। जैसे-एक टी.वी. निर्माता के द्वारा स्वयं पिक्चर ट्यूब का निर्माण प्रारम्भ करना इसका एक अच्छा उदाहरण है।

(iii) संघीय विविधीकरण (Conglomerate Diversification) – संघीय विविधीकरण में जब निर्माता अपने उत्पाद से हटकर किसी वस्तु का निर्माण करे, आता है जैसे- गोदरेज स्टील के निर्माण के गोदरेज सोप का निर्माण करना। 

(iv) सकेन्द्री विविधीकरण (Concentric Diversification) – इस प्रकार के विविधीकरण के अन्तर्गत जब कोई उद्यमी अपने वर्तमान व्यवसाय से सम्बन्धित एक अन्य व्यवसाय जो कि प्रौद्योगिकी, विपणन अथवा दोनों से सम्बन्धित एक अन्य व्यवसाय जो कि प्रौद्योगिकी, विपणन अथवा दोनों से सम्बन्धित है, प्रारम्भ करे। जैसे-नैस्केफे कॉफी के निर्माता के द्वारा चाय का उत्पादन प्रारम्भ करना । 

18. केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीयकरण में अन्तर्भेद कीजिए ।

उत्तर- केन्द्रीयकरण व विकेन्द्रीयकरण का अन्तर जानने से पूर्व हमें यह जानना होगा कि केन्द्रीयकरण व विकेन्द्रीयकरण होता क्या है ? यथा-

केन्द्रीयकरण (Centralization) – जिस संगठन में निर्णय लेने का अधिकार केवल उच्चस्तरीय प्रबन्धन को ही होता है तो वह संगठन केन्द्रीयकृत कहलाता है। कोई भी संस्था न तो पूर्ण रूप से केन्द्रीयकृत हो सकती है और न ही विकेन्द्रीयकृत जब कोई संस्था आकार तथा जटिलताओं की ओर अग्रसर होती है तो यह देखा गया कि वे संस्थाएँ निर्णयों में विकेन्द्रीयकरण को अपनाती हैं।

विकेन्द्रीयकरण (Decentralization) – विकेन्द्रीयकरण से तात्पर्य उस विधि से है जिसमें निर्णय लेने का उत्तरदायित्व सोपानिक क्रम में विभिन्न स्तरों में विभाजित किया जाता है। सरल शब्दों में विकेन्द्रीयकरण का अर्थ संगठन के प्रत्येक स्तर पर अधिकार अन्तरण करना होता है। निर्णय लेने का अधिकार निम्नतम स्तर तक के प्रबन्ध को दिया जाता है जहाँ पर वास्तविक रूप से कार्य होना है। उपरोक्त अध्ययन के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि केन्द्रीयकरण व विकेन्द्रीयकरण एक-दूसरे के विपरीत होते हैं। केन्द्रीयकरण में निर्णय लेने का अधिकार उच्चस्तरीय प्रबन्ध को होता है वहाँ विकेन्द्रीयकरण में निर्णय लेने का उत्तरदायित्व सोपानिक क्रम में विभिन्न स्तरों में विभाजित होता है। विकेन्द्रीयकरण में संगठन के प्रत्येक स्तर पर अधिकारों का अन्तरण होता है। 

19. संवृद्धि को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्वों का वर्णन करें।

उत्तर- संवृद्धि को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं-

(i) प्रतियोगिता – वर्तमान गलाघोंट प्रतियोगिता के बाजार में एक उत्पाद/सेवा के दर्जनों उत्पादक इसे बेचने की होड़ में लगे हैं। अब एकाधिकार की बात सिर्फ कल्पना की बात रह गयी है। हर प्रतियोगी उत्पादक एक-दूसरे की तुलना में कुछ बेहतर ब्राण्ड लाकर आगे निकलने की होड़ में लगा रहता है। ऐसी स्थिति में व्यवसाय की संवृद्धि काफी हद तक प्रतियोगिता से प्रभावित होती है क्योंकि प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अपने को संवृद्ध करना ही होगा।

(ii) तकनीकी परिवर्तन- दिन-प्रतिदिन नये-नये तकनीक परिवर्तन ने जीवन के हर क्षेत्र को झकझोर डाला है। आज की कोई नवीनतम कही जाने वाली लोकप्रिय कोई उत्पाद नई तकनीक आ जाने से तत्काल पुरानी पड़ जाती है और उपभोक्ता उसे छोड़ नये उत्पाद की ओर भागने लगते हैं। अतः साहसी को लगातार तकनीक परिवर्तन पर अपनी निगाह जमाये रखनी होगी और इसे तुरन्त अपनाने के लिए तैयार रहना होगा। इस प्रकार तकनीक परिवर्तन भी संवृद्धि को प्रभावित करता है।

(iii) उपभोक्ता की प्रकृति – उपभोक्ता की प्रकृति अर्थात् उसकी पसंदगी, रुचि, फैशन आदि सभी बातें उद्यमी के उत्पाद / सेवा की भाग्य विधाता होती है। इनकी प्रवृत्ति के अनुरूप ही बाजार में माँग बढ़ती है और अन्तत: उद्यमी लाभ कमाते हुए उत्तरोत्तर संवृद्धि की ओर बढ़ता है। इस प्रकार उपभोक्ता बाजार का धारक होता है जिसकी हर गतिविधि व्यवसाय की संवृद्धि या अवनति निर्धारित करती है।

(iv) सृजनशीलता – सृजनशीलता से तात्पर्य किसी ऐसे उत्पाद/ विचार / सेवा – को सृजित करना है जिसका लाभ ग्राहकों को मिल सके और उन्हें कुछ नयापन लगे ।

(v) नवप्रवर्तन – नवप्रवर्तन संवृद्धि का महत्वपूर्ण कारक है। उद्यमी नवप्रवर्तन द्वारा ऐसी उत्पाद / विचार / सेवा बाजार में लाता है जो पहले से या तो विद्यमान नहीं थी या ऐसे रूप में थी जिसका लाभ ग्राहकों को पर्याप्त रूप में नहीं मिल पाता था। नव प्रवर्तन की राह उद्यमी को विकास या संवृद्धि की ओर ले जाती है।

20. विविधीकरण से आप क्या समझते हैं? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- एक व्यवसाय अपने वर्तमान उत्पाद अथवा वर्तमान बाजार पर आश्रित रहकर विकास नहीं कर सकता है। अर्थात् केवल बाजार बंधन द्वारा व्यवसाय का विकास नहीं हो सकता है। इसी कारण वर्तमान की अपेक्षा नए उत्पादों / बाजारों को जोड़े जाने की आवश्यकता है। विकास का यह पथ जिसके | अन्तर्गत वर्तमान की अपेक्षा नए उत्पादों/बाजारों का समावेश, विविधीकरण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विविधीकरण को वर्तमान की अपेक्षा नए उत्पादों / बाजारों एवं सेवाओं का अधिग्रहण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि जीवन चक्र विचार के अनुसार प्रत्येक उत्पाद की एक निश्चितकाल अवधि होती है। मानव की तरह उत्पाद भी बाजार में से मर जाता है। अतः व्यवसाय को चालू रखने के लिए वर्तमान उत्पाद श्रेणी में नए उत्पादों का प्रारम्भ आवश्यक है। विकास व्यूह रचना के रूप में विविधीकरण का प्रयोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। जे. पी. ग्रुप जो प्रारम्भ में एक सीमेण्ट निर्माता था, द्वारा रोड निर्माण लाइन में प्रवेश करना, एल. आई. सी. का म्यूच्युअल फण्ड्स में प्रवेश, भारतीय स्टेट बैंक का मर्चेण्ट बैंकिंग में प्रवेश इत्यादि विविधीकरण के उदाहरण हैं।प्रायः विविधीकरण के चार प्रकार होते हैं जो निम्न हैं-

(i) क्षैतिज विविधीकरण- इस प्रकार के विविधीकरण के अन्तर्गत उसी प्रकार के उत्पाद अथवा बाजार, वर्तमान उत्पाद / बाजार में जोड़े जाते हैं। जैसे- गोदरेज की स्टील अलमारियों एवं तालों के मौलिक उत्पादों में रेफ्रीजरेटर जोड़ना, क्षैतिज विविधीकरण कहलाता है। 

(ii) उदग्र विविधीकरण- इस प्रकार के विविधीकरण के अन्तर्गत उद्यम के वर्तमान उत्पाद अथवा सेवा में पूरक उत्पाद अथवा सेवा को जोड़ना आता है। नए उत्पाद अथवा सेवाएँ या तो इनपुट आगम अथवा ग्राहक का कार्य, फर्म के अपने उत्पाद के लिए सिद्ध होंगे। जैसे-एक टी. वी. निर्माता यदि स्वयं पिक्चर ट्यूब का निर्माण करे, चीनी मिल द्वारा अपने गन्ने का खेत विकसित करना।

(iii) संकेन्द्री विविधीकरण- इस प्रकार के विविधीकरण में, एक उद्यम अपने वर्तमान व्यवसाय से सम्बन्धित एक अन्य व्यवसाय जोकि प्रौद्योगिकी, विपणन अथवा दोनों से सम्बन्धित है, शुरू करना । जैसे चाय निर्माता कम्पनी लिप्टन का कॉफी निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश करना।

(iv) संघीय विविधीकरण- इस प्रकार की विकास व्यूह रचना में एक व्यवसाय अपने से बिल्कुल भिन्न क्षेत्र के व्यवसाय में प्रवेश करता है। जैसे स्टील सेफ के निर्माता कम्पनी गोदरेज का शेविंग क्रीम के क्षेत्र में प्रवेश करना इस प्रकार के विविधीकरण का उदाहरण है। 

21. संवृद्धि की रणनीतियाँ क्या हैं? 

उत्तर- संवृद्धि प्राप्त करने की चाहत प्रत्येक उद्यमी में होती है। इसके लिये उसे इसकी अच्छी रणनीति तैयार करनी होगी। एक निर्धारित समय में उद्यमी अपने उपक्रम को विकास के किस स्तर पर कैसे ले जायेगा, इससे सम्बन्धित सभी कार्य-कलापों के लिये योजना बनाकर उसे सही ढंग से क्रियान्वित करना होगा। इस रणनीति के कई रूप या प्रकार हो सकते हैं जिनमें से कुछ मुख्य इस प्रकार हैं- संवृद्धि रणनीति को विस्तृत रूप में दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(i) आन्तरिक संवृद्धि रणनीति (Internal Growth Strate- gies) – इसकी मान्यता है कि उद्यम को अपने बल पर बिना दूसरे उद्यमों के साथ मिलकर, विकसित होना चाहिए । आन्तरिक संवृद्धि रणनीति में आधुनिकीकरण, विस्तार तथा विविधीकरण लोकप्रिय रूप हैं।

(ii) बाह्य संवृद्धि रणनीति (External Growth Strategies) – बाह्य संवृद्धि रणनीति वह है जो आन्तरिक संवृद्धि रणनीति नहीं है। बाह्य विकास रणनीति के अन्तर्गत उद्यम अन्य उद्यमों से हाथ मिलाकर विकास करते हैं। बाह्य विकास व्यूह रचना में संयुक्त उपक्रम (joint venture), विलोपीकरण (merger) एवं उप-ठेकेदारी (sub-contracting) एवं फ्रेंचाइजिंग (Fran- chising) इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार विकास की प्रमुख व्यूह-रचनाएँ अथवा संवृद्धि रणनीतियाँ निम्न प्रकार हैं- 

1. आधुनिकीकरण (Modernisation) – समय की दौड़ में बने रहने के लिये साहसी को अपने उत्पाद को आधुनिक बनाते रहना होगा। यह आधुनिकीकरण उत्पाद के रंग, किस्म, आकार, डिजाइन, आधुनिक तकनीक का प्रयोग आदि के द्वारा किया जा सकता है। इस नीति से एक और जहाँ प्रति इकाई लागत कम होगी, वहीं ग्राहकों की नवीनतम् पसंद की आपूर्ति बनी रहेगी ।

2. विस्तारीकरण (Expansion ) – एक सफल साहसी अपने वर्तमान लाभ से संतुष्ट नहीं होता बल्कि वह अपने उत्पाद के बाजार को और बढ़ाकर या नये बाजार ढूँढ़कर अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाता है। कुछ नयी शाखा खोलता है और मशीन संयंत्र लगाकर अपने उपक्रम का विस्तार करता है।

3. विविधीकरण (Diversification ) – एक ही तरह के उत्पाद वाले उपक्रम का विस्तारीकरण एक सीमा के बाद जोखिम से भरा होता है। अतः वर्तमान बाजार की स्थिति देखते हुए ‘विविधीकरण’ की नीति अपनाना उपयुक्त होता है। यह इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक उत्पाद की एक उम्र सीमाहोती है। इसके बाद उसे धीरे-धीरे स्वतः समाप्त हो जाना है। विविधीकरण या तो उसी तरह के उत्पाद श्रेणी में या बिल्कुल अलग रूप में हो सकती है। जैसे-LG कं. ने TV उत्पाद से कम्प्यूटर, फ्रीज, वाशिंग मशीन तक बनाने में अपने को ढाल लिया। इसी तरह L & T जो एक इंजीनियरिंग कं. थी, सीमेण्ट उत्पादन में लग गयी।

4. प्रतिस्थापीकरण ( Substitution ) – यह नीति तब अपनायी जाती है। जब साहसी को ऐसा लगने लगे कि अब वर्तमान उत्पाद का कोई भविष्य नहीं है। इसके अन्तर्गत वर्तमान अप्रचलित हो रहे उत्पाद को नयी तकनीक युक्त उत्पाद से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। जैसे-स्याही वाली कलम के स्थान पर नये वॉल पेन का उत्पादन किया जाना, प्रतिस्थापन की ही रणनीति है।

5. विलयीकरण (Merger ) – उपर्युक्त सभी रणनीतियाँ आन्तरिक होती हैं अर्थात् उपक्रम के अन्दर ही लागू रहती हैं किन्तु विलयीकरण बाह्य रणनीति है । यहाँ एक ही प्रकृति के दो या दो से अधिक उपक्रम आपस में मिल जाते हैं या फिर कोई बड़ा किसी छोटे उपक्रम को अपने साथ विलोपित कर लेता है। ऐसा होने से छोटा उपक्रम बन्द होने से बच जाता है और स्वयं भी बड़े के साथ समाहित हो जाता है।

6. संयुक्त उपक्रम (Joint Venture ) – यह नीति उस समय अपनायी जाती है जब उद्यमी किसी कार्य को अकेले कर पाने में सक्षम नहीं होता तो वह दूसरे अन्य साहसियों के सहयोग से उक्त व्यवसाय/ कार्य को पूरा करता है। यह एक तरह की साझेदारी ही होती है। अन्तर सिर्फ यह है कि ‘संयुक्त उपक्रम’ कार्य पूरा हो जाने के बाद स्वतः समाप्त हो जाता है।

7. फ्रेन्चाइजिंग (Franchising) – इस रणनीति के अन्तर्गत साहसी देश के विभिन्न भागों में अपना अधिकृत विक्रेता बहाल कर देता है जो उक्त उत्पाद को बेचने का कार्य करता है। हाँ, अधिकृत विक्रेता के चुनाव में साहसी को सावधान रहने की आवश्यकता है क्योंकि गलत विक्रेता अपने क्षणिक लाभ के लिये मूल उत्पाद में मिलावट आदि का सहारा लेकर साहसी को बाजार में बदनाम कर सकता है। सरल शब्दों में फ्रेन्चाइजिंग एक प्रकार की ठेकेदारी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत एक फुटकर व्यापारी (Franchisee). एक निर्माता (Franchiser) के साथ एक समझौता करता है, उत्पादक के माल अथवा सेवाओं का विक्रय, एक निश्चित फीस अथवा कमीशन के बदले करने का अधिकार सौंपता है।गोदरेज की स्टील अलमारियों एवं तालों के मौलिक उत्पादों में रेफ्रीजरेटर जोड़ना, क्षैतिज विविधीकरण कहलाता है।

(iii) उदग्र विविधीकरण- इस प्रकार के विविधीकरण के अन्तर्गत उद्यम के वर्तमान उत्पाद अथवा सेवा में पूरक उत्पाद अथवा सेवा को जोड़ना आता है। नए उत्पाद अथवा सेवाएँ या तो इनपुट आगम अथवा ग्राहक का कार्य, फर्म के अपने उत्पाद के लिए सिद्ध होंगे। जैसे-एक टी. वी. निर्माता यदि स्वयं पिक्चर ट्यूब का निर्माण करे, चीनी मिल द्वारा अपने गन्ने का खेत विकसित करना।

(iv) संकेन्द्री विविधीकरण- इस प्रकार के विविधीकरण में, एक उद्यम अपने वर्तमान व्यवसाय से सम्बन्धित एक अन्य व्यवसाय जोकि प्रौद्योगिकी, विपणन अथवा दोनों से सम्बन्धित है, शुरू करना । जैसे चाय निर्माता कम्पनी लिप्टन का कॉफी निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश करना।

(v) संघीय विविधीकरण- इस प्रकार की विकास व्यूह रचना में एक व्यवसाय अपने से बिल्कुल भिन्न क्षेत्र के व्यवसाय में प्रवेश करता है। जैसे स्टील सेफ के निर्माता कम्पनी गोदरेज का शेविंग क्रीम के क्षेत्र में प्रवेश करना इस प्रकार के विविधीकरण का उदाहरण है। 

22. संवृद्धि कायम रखने वाली क्रियाओं का वर्णन करें।

उत्तर – संवृद्धि कायम रखने वाली क्रियाओं की रणनीति इस मान्यता पर आधारित है कि बाजार में अपनी प्रतिस्पर्द्धा शक्ति को विकसित करने हेतु फर्म को अपने साधनों का अधिकतम उपयोग करना चाहिए। इस रणनीति में प्रबन्ध से वर्तमान की स्थिति में ही बने रहने की आशा की जाती है। परन्तु वर्तमान फर्म निष्पादन स्तर में एक सीमित विकास कर सकती है।

स्थायित्व रणनीति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

(i) यह फर्म की वर्तमान चालू विकास दर को सुनिश्चित करती हुई फर्म के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का पालन करती है।

(ii) यह कार्य संचालन में उत्तरोत्तर सुधार पर बल देती है।

(iii) यह व्यवस्था उत्पादन अथवा सेवा लाइन व्यापार अथवा कार्यों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं मानती ।

(iv) यह उन्हीं प्रतिस्पर्द्धा लाभों के स्तर को बनाये रखने हेतु साधनों पर केन्द्रित रहती है। 

स्थायित्व रणनीति का औचित्य- स्थायित्व रणनीति के पक्ष में निम्नलिखित कारण दिए जाते हैं-

(i) फर्म अनुभव करती है कि न ही अवसर इतने आकर्षक हैं और न ही धमकियाँ उतनी विकृत । अतः फर्म को उत्पाद बाजार स्वरूप में परिवर्तन करने मैं कोई विशेष संकट नहीं होगा।

(ii) फर्म आसानी से अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर लेती है। अतः प्रबन्ध उन्हीं गतिविधियों को संचालित रखने में रुचि लेता है।

(iii) अवसरों एवं धमकियों के सम्बन्ध में फर्म वातावरणीय परिवर्तन की उपेक्षा नहीं करती।

(iv) फर्म के विशेष कर्मी किन्हीं नवीन क्रियाओं जैसे- नए उत्पाद, नया बाजार, नए संगठनात्मक कार्यों का स्वागत नहीं करते। 

स्थायित्व रणनीति निम्न आधार पर आधारित है- 

(i) मानव शक्ति- तीव्र गति से परिवर्तनीय प्रौद्योगिकीय परिप्रेक्ष्य में उत्पादन प्रक्रिया में मानव शक्ति एक महत्वपूर्ण घटक है तो प्रबन्ध के लिए योग्य मानव शक्ति की उपलब्धता एक समस्या है। आकर्षक क्षतिपूर्ति पैकेज, अच्छी कार्य शर्तें, आंतरिक विकास एवं पदोन्नति के अवसर, अच्छे अन्त:व्यक्तिगत सहसम्बन्ध स्थायित्व संरचना के प्रमुख मापदण्ड हैं। 

(ii) प्रत्याशित रोकड़ प्रवाह – फर्म को एक सकारात्मक रोकड़ प्रवाह अपेक्षित होता है ताकि भविष्य में साधनों की कमी न हो क्योंकि स्वामित्व वित्त से सम्बन्धित है, भावी प्रत्याशित रोकड़ प्रवाह का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

(iii) पूँजी पर प्रत्याय – यह सिद्धान्त यथास्थिति बनाये रखने में विश्वास रखता है। फिर भी पूँजी पर प्रत्याय पर्याप्त होनी चाहिए जिससे नवीकरण एवं पुनः स्थापना सहित संचालन खर्चों की व्यवस्था कर सके। इसी प्रकार लाभों को रोके रखना (Petention of Profit) भी करना ताकि भावी अनपेक्षित समस्याओं का सामना किया जा सके। 

23. संवृद्धि के विभिन्न स्तरों की संक्षिप्त व्याख्या करें | 

उत्तर – संवृद्धि के विभिन्न स्तर संवृद्धि अचानक नहीं आ जाती बल्कि यह विकास के विभिन्न चरणों को पार करते हुए आती है। संवृद्धि के प्रत्येक स्तर पर साहसी को सावधान और जागरूक रहने की आवश्यकता होती है। उपक्रम का यह जीवन-चक्र निम्नांकित पाँच मुख्य स्तरों से गुजरता है-

(1) जन्म स्तर – सर्वप्रथम व्यावसायिक जगत् में एक उपक्रम का जन्म होता है और यह बहुत थोड़े क्षेत्र और छोटे पैमाने से अपना कारोबार आरम्भ करती है।

(2) विकास का स्तर – इस स्तर पर उपक्रम धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगती है। बाजार में लोग इसे जानने-पहचानने लग जाते हैं। इसके उत्पादन का पैमाना एवं बाजार का क्षेत्र बढ़ने लगता है।

(3) विस्तार का स्तर – इस स्तर पर साहसी अपने को बाजार में मजबूत समझने लगता है तो उपक्रम को और आगे बढ़ाने की आवश्यकता महसूस होने लगती है। अत: नयी शाखा खोलकर, नयी इकाई बैठाकर या नयी उत्पाद की किस्म लाकर पूरे बाजार के अधिकांश हिस्से को पकड़ने के लिए विस्तारीकरण किया जाता है। 

(4) संवृद्धि / परिपक्वता स्तर- साहसी अपने उपक्रम को विस्तारित करके बाजार पर आधिपत्य कर लेता है। इसकी बिक्री बढ़ जाती है परिणामत: लाभ भी बढ़ने लगता है और इस तरह इस स्तर पर यह (उपक्रम) अपने उत्कर्ष पर पहुँचकर परिपक्व हो जाता है।

(5) अवनति स्तर उपक्रम अपने परिपक्वता के स्तर पर अधिक दिनों – तक नहीं टिक पाती क्योंकि इसकी मजबूत स्थिति देखकर बाजार में अन्य प्रतियोगी साहसी इसका लाभ देखकर कुछ नयेपन के साथ बाजार में आने लगते हैं या फिर मौजूद प्रतियोगी भी अपनी रणनीति में परिवर्तन लाकर परिपक्व उपक्रम की स्थिति को कमजोर करने लगते हैं। इस तरह इस उपक्रम की अवनति गाथा आरम्भ हो जाती है और धीरे-धीरे यह समाप्त हो जाती है और पुनः साहसी किसी नये विचार / नये उत्पाद के साथ बाजार में आने की योजना में क्रियाशील हो जाता है। विकास एवं संवृद्धि की यह मात्रा अलग-अलग उद्योग-व्यापार में बदलती रहती है। एक स्तर से दूसरे स्तर तक जाने में समय का अन्तराल भले ही भिन्न हो किन्तु विकास का यह स्तर प्रायः सभी पर लागू होता है। 

24. विकास एवं संवृद्धि को परिभाषित करते हुए इसके उद्देश्य बतायें।

उत्तर – विकास प्रकृति का सामान्य नियम है। व्यावसायिक जगत् में पहले एक उद्योग व्यवसाय रूपी बच्चे का जन्म होता है और वह धीरे-धीरे बढ़ना आरम्भ करता है। यह बढ़ना उस उद्योग / व्यवसाय/ उपक्रम का ‘विकास’ कहलाता है। जब यही विकास धीरे-धीरे संवृद्ध होकर अपने उत्कर्ष पर पहुँच जाता है तो यह स्तर ‘संवृद्धि’ (Growth) कहलाती है। इस स्तर पर उद्यमी का उपक्रम प्रत्येक विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने में सक्षम होकर बाजार में अपनी बुलंदियाँ बनाये रखता है। 

संवृद्धि के उद्देश्य – प्रत्येक व्यवसाय संवृद्धि की ऊँचाइयों को प्राप्त करना चाहता है किन्तु यह सभी व्यवसाय व उद्यमी को नसीब नहीं हो पाती। ऐसा इसलिए क्योंकि किसी भी उपक्रम का जन्म उस समय के व्यावसायिक वातावरण जैसे – सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों के चलते होता है। अब, चूँकि ये सभी परिस्थितियाँ हमेशा एक जैसी रहने वाली नहीं होतीं अतः परिवर्तन के अनुरूप अपने को विकसित करना प्रत्येक उद्यमी का उद्देश्य होता है। विकास एवं संवृद्धि के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार हैं- 

(i) नये परिवर्तनों को अपनाना,
(ii) बदलती हुई परिस्थितियों का सामना करना,
(iii) बाजार में अपना अस्तित्व कायम रखना,
(iv) बड़े पैमाने का लाभ उठाना,
(v) कुछ विशिष्ट कर पाने की अभिलाषा । 

संवृद्धि एवं विकास के इन्हीं उद्देश्यों के चलते प्रत्येक सफल उद्यमी इस प्रक्रिया से जुड़ना चाहता है। उद्यमी को इस सच्चाई का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि छोटे और कमजोर (कम विकसित) पौधे को हवा का हल्का झोंका भी डिगा देता है या उखाड़ फेंकता है जबकि मजबूत (पूर्ण विकसित) पेड़ का तेज आँधी भी कुछ बिगाड़ नहीं पाती। अतः अपने अस्तित्व को कायम रखने और उसे मजबूती देने के लिए ‘संवृद्धि एवं विकास’ ही एकमात्र विकल्प या उद्देश्य है 

 

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