Eps Class 12 Chapter 19 Subjective in Hindi

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वित्त प्रबंधन

1. व्यवसाय को वित्त की क्या आवश्यकता है?

उत्तर- वित्त की आवश्यकता निम्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती है-
(I) स्थायी सम्पत्तियों के क्रय के लिए,

(II) चालू सम्पत्तियों के लिए,

(III) निर्माण व्यय के लिए,

(IV) अदृश्य सम्पत्तियों के क्रय के लिए,

(V) आधुनिक तकनीक के क्रय के लिए, 

2. वित्तीय नियोजन क्या है? 

उत्तर- साधारण शब्दों में, अर्थ-प्रबन्धन योजना को वित्तीय नियोजन कहते हैं। यह व्यवसाय का प्राण स्रोत है क्योंकि कोई भी उपक्रम चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा बिना उचित वित्तीय नियोजन के सफल नहीं हो सकता। आर्थर एस. डेविंग के अनुसार वित्तीय नियोजन में निम्न तीन बातों को शामिल किया जाता है- (i) पूँजी की आवश्यक मात्रा का अनुमान लगाना, (ii) पूँजी के विभिन्न स्रोत निश्चित करना एवं विभिन्न प्रतिभूतियों का पारस्परिक अनुपात तय करना, एवं (iii) पूँजी का उचित प्रबन्धन करना । 

3. दीर्घकालीन वित्त क्या है? 

उत्तर- ऐसा वित्त जो लम्बी अवधि के लिए प्राप्त किया जाता है, दीर्घकालीन वित्त कहलाता है। इसे दीर्घकालीन पूँजी अथवा स्थायी पूँजी भी कहते हैं। इस प्रकार के वित्त की आवश्यकता स्थायी सम्पत्तियाँ जैसे- भूमि, मकान, मशीनरी, फर्नीचर आदि को प्राप्त करने के लिए होती है। कोई भी व्यवसाय बिना दीर्घकालीन वित्त के आरम्भ नहीं किया जा सकता है। दीर्घकालीन वित्त की अवधि कम-से-कम 10 वर्ष से लेकर 25 वर्ष के लिए होती है।

4. वित्त की परिभाषा दीजिए।

उत्तर- वित्त से आशय मुद्रा को उस समय उपलब्ध कराने से है जबकि उसकी आवश्यकता हो। वित्त प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम का जीवन रक्त है। जिस प्रकार मानव शरीर बिना रक्त के जीवित नहीं रह सकता ठीक उसी प्रकार बिना वित्त के व्यावसायिक उपक्रम चाहे छोटा हो या बड़ा, न तो जीवित रह सकता है और न ही संचालित हो सकता है। 

5. वित्त की व्यवसाय को क्या आवश्यकता है?

उत्तर- वित्त की व्यवसाय को निम्न आवश्यकता है-
(i) व्यवसाय की स्थापना के लिए, (ii) व्यवसाय के संचालन के लिए, (iii) व्यवसाय के भावी विकास के लिए, (iv) लाभ में वृद्धि के लिए, (v) मंदी का सामना करने के लिए। 

6. एक वित्तीय योजना के निरूपण को प्रभावित करने वाले किन्हीं दो तत्वों को समझाइये।

उत्तर- (i) व्यवसाय की प्रकृति- किसी नवीन प्रवर्तित उपक्रम में पूँजी के स्वरूप को निर्धारित करने पर व्यवसाय की प्रकृति का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है । कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनमें उत्पादन एवं विक्रय चलते रहते हैं। इसके विपरीत कुछ अन्य व्यवसाय मौसमी प्रकृति के होते हैं। अतः पूँजी ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए कि मौसम के अनुसार पूँजी में आवश्यक नियोजन किया जा सके।

(ii) पूँजी की लागत – पूँजी ढाँचे के निर्माण में पूँजी की लागत पर विचार करना बहुत आवश्यक होता है। पूँजी के सभी साधनों की लागत समान नहीं होती है। कुछ साधन अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं तो कुछ साधन महँगे होते हैं। अत: पूँजी ढाँचे का निर्माण करते समय पूँजी के सस्ते एवं महँगे साधनों का ऐसा मिश्रण बनाया जाता है जिसमें कुल पूँजी की औसत लागत एक निश्चित काट बिन्दु से अधिक न बढ़े। 

7. अल्पकालीन वित्त की क्या आवश्यकता है? 

उत्तर- अल्पकालीन वित्त की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से होती है- (i) उत्पादन की बिक्री के समय तक रखने के लिए, (ii) माँग और पूर्ति में समन्वय के लिए, (iii) उत्पादन को वर्ष भर की आवश्यकता की पूर्ति के लिए, (iv) अल्पकालीन मन्दी का सामना करने के लिए, (v) मजदूरी, वेतन, कच्चे माल में वृद्धि होने पर। 

8. स्त्रोतों का वित्तीय नियोजन क्या है? 

उत्तर – स्रोतों के वित्तीय नियोजन का अर्थ है वित्त के स्रोत का नियोजन अच्छे ढंग से करना जिससे कि उसका फायदा फर्म को मिले । स्रोतों के वित्तीय नियोजन का सम्बन्ध पूँजी की मात्रा निश्चित करने तथा यह निश्चित करने से है कि कितनी पूँजी स्वामी लगाएँगे तथा कितनी पूँजी अन्य साधनों से ऋण के रूप प्राप्त की जाएगी और नई पूँजी बाजार से एकत्र की जाएगी तो कितनी पूँजी के अंश व ऋण पत्र निर्गमित किए जाएँगे। इनका विस्तृत निर्धारण ही स्रोतों का वित्तीय नियोजन है। 

9. लाभों के पुनः निवेश के क्या उद्देश्य हैं?

उत्तर – प्राप्त लाभों का पुनर्विनियोग का उद्देश्य लाभांश का कुछ भाग भविष्य
में व्यवसाय के विस्तार करने एवं संयंत्र का क्रय करने या किसी व्यावसायिक संस्था का क्रय करने हेतु रोकना है। इससे एक तरफ कम्पनी की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है तो दूसरी और कम्पनी को बिना ब्याज के वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। 

10. विदेशी पूँजी निवेश से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- औद्योगीकरण को तीव्र करने एवं उनके विकास तथा वित्तीय प्रबन्ध में विदेशी पूँजी के विनियोग का महत्वपूर्ण योगदान है। औद्योगीकरण एवं आर्थिक विकास के लिए विभिन्न देशों में आपसी समझौते होना प्रमुख कारण है। विदेशी पूँजी के विनियोग से ही लोहा – इस्पात उद्योग, रासायनिक उद्योग, कोयला, ताँबा, जूट, अभ्रक इत्यादि उद्योगों का विकास हुआ। 

11. अंशों एवं ऋण पत्रों में अन्तर स्पष्ट कीजिए। कोई दो ।अथवा (Or) अंशों एवं ऋणपत्रों में तीन अन्तर बताइए? 

उत्तर – अंश (Shares):- 

(i) एक अंश स्वामित्व पूँजी का एक भाग है।

(ii) अंशधारियों को उनके अंशों पर लाभांश मिलता है।

(iii) इनके धारकों को मत देने का अधिकार होता है।

ऋणपत्र (Debentures):- 

(i) ऋणपत्र एक ऋण की स्वीकृति है।

(ii) ऋणपत्रों पर ऋणधारियों को ब्याज मिलता है।

(iii) इनके धारकों को मत देने का अधिकार नहीं होता है ।

12. विभिन्न प्रकार के अंश कौन से हैं? 

उत्तर- कम्पनी अधिनियम 2013 के अनुसार एक संस्था दीर्घकालीन एवं स्थायी वित्त प्राप्त करने के लिए अंशों का निर्गमन करती है जिसमें साधारण या समता अंश, पूर्वाधिकार अंश, बोनस अंश शामिल किये जाते हैं। 

13. जन- निक्षेप से आप क्या समझते हैं? 

उत्तर- कम्पनियों के द्वारा पूँजी एकत्रित करने की एक विधि जनता से मा स्वीकार करना है । जन-निक्षेप कम्पनियों के द्वारा एक निश्चित ब्याज दर पर, निश्चित अवधि के लिए लिया जाता है। सामान्यतया कम्पनियाँ इन जमाओं पर बैंक ब्याज दर से अधिक ब्याज देती हैं। 

14. अधिविकर्ष क्या है? 

उत्तर – अधिविकर्ष बैंक के साथ वह समझौता है जिसमें चालू खाता धारक
एक निश्चित सीमा तक अपने खाते में जमा शेष से अधिक राशि निकाल सकता है। दैनिक अधिविकर्षित राशि शेषों पर ब्याज लगाया जाता है। 

15. लाभांश को अधिकतम करने के पक्ष में आप क्या तर्क देंगे? 

उत्तर – लाभ वित्त का एक मुख्य व सरलता से उपलब्ध होने वाला स्रोत है एवं भावी आकस्मिकताओं का सामना करने के लिए अधिक मात्रा में लाभ आवश्यक होता है। 

16. प्राप्त लाभों के पुनर्विनियोग से आप क्या समझते हैं?

उत्तर – बहुत-सी संस्थाएँ या उद्योग अपने व्यवसाय के वित्त की व्यवस्था के लिए पूरे लाभांश का वितरण नहीं करतीं बल्कि लाभांश का कुछ भाग भविष्य में व्यवसाय का विस्तार करने एवं संयंत्रों का क्रय करने या किसी व्यावसायिक संस्था का क्रय करने के उद्देश्य से रोक लेती हैं, इसको अवितरित लाभ या लाभों का पुनर्विनियोजन या स्ववित्त प्रबन्ध या आन्तरिक वित्त प्रबन्ध कहा जाता है। 

17. वित्त के अल्पकालीन साधनों को आप किन-किन दो भागों में विभक्त कर सकते हैं? 

उत्तर – व्यावसायिक वित्त के अल्पकालीन साधनों को सुविधानुसार निम्न दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – (1) बैंक साधन; एवं ( 2 ) गैर-बैंक साधन । 

18. व्यापार साख क्या है?

उत्तर – व्यापार साख वह स्थिति है जिसमें एक व्यापारी अपने आपूर्तिकर्ता से किसी विशेष अवधि के लिए व्यापार की स्थापना के लिए ऋण लेता है। यह लोचपूर्ण व सन्तोषजनक शर्तों पर प्राप्य होता है। 

19. लाभों का पुन: निवेश क्या है? 

उत्तर – लाभों का पुन: निवेश वित्तीय प्रबन्ध की एक तकनीक है जिसके अनुसार कम्पनी के सभी लाभ लाभांश के रूप में अंशधारियों में वितरित नहीं किये जाते अपितु लाभ का एक अंश कम्पनी द्वारा अपने पास रोककर उसे पुनः निवेशित किया जाता है। 

20. वित्तीय प्रबन्धक के कार्यों का संक्षेप में वर्णन करें

उत्तर – वित्तीय प्रबन्धक के निम्नांकित कार्य हैं-
(1) कोष प्राप्त करना – कोष प्राप्ति के लिए वह निम्न कार्य करता है- – (i) संस्था के दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन आवश्यकताओं को मालूम करना, 

(ii) वित्त के स्रोतों का तुलनात्मक अध्ययन करना तथा श्रेष्ठ स्रोत निश्चित करना, 

(iii) वित्त प्राप्ति के लिए आवश्यक अनुमतियाँ प्राप्त करना, एवं

(iv) वित्त प्राप्ति की प्रक्रिया शुरू करना । 

(2) रोकड़ का प्रबन्ध – वित्तीय प्रबन्धक को संगठन से क्रिया के संचालन लिए उचित मात्रा में नकद रुपये का भी प्रबन्ध करना पड़ता है ताकि संगठन की तरलता और शोध क्षमता कायम रहे। अगर जरूरत के समय पर संगठन के पास पर्याप्त मात्रा में नकद रुपया नहीं रहे तो बाजार में उसकी साख घट जाती है।

(3) कोषों का आबण्टन एवं विनियोग करना – विभिन्न वैकल्पिक परियोजनाओं का विश्लेषण करके एवं लागत विश्लेषण के बाद यह कार्य किया जाता है। वित्तीय प्रबन्धक को यह प्रयास करना चाहिए कि कोष का उपयोग सर्वोत्तम हो। फंड या आय के दुरुपयोग को रोकने के लिए उचित वित्तीय उपकरण स्थापित करना चाहिए। 

(4) वित्तीय प्रतिवेदन प्रस्तुत करना – वित्त प्रबन्धक को समय-समय पर अपने उच्च प्रबन्धक को प्रतिवेदन प्रस्तुत करना पड़ता है जिससे समन्वयन कार्य सरल हो। इसके अतिरिक्त वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए आयकर विवरणी, वस्तु एवं सेवा कर विवरणी, उत्पाद शुल्क, आयात शुल्क विवरणी आदि तैयार करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त वित्तीय विवरण तैयार करना भी वित्त प्रबन्धक का ही काम है ताकि समय पर लाभ हानि जाना जा सके। 

(5) लाभों का नियोजन तथा लाभांश नीति का निर्धारण – वित्तीय प्रबन्धक को यह निर्णय लेना पड़ता है कि संगठन के लाभ का किस तरह प्रयोग होना चाहिए। एक ओर उसे अंशधारियों को उचित लाभांश देना चाहिए तथा दूसरी और लाभ की मात्रा रोक कर उसे संगठन के विस्तारीकरण में व्यय करना चाहिए। इस तरह वित्तीय प्रबन्धक को लाभांश नीति, संचय के निर्माण सम्बन्धी नीति तथा लाभ को पुनः विनियोग करने की नीति के सम्बन्ध में निर्णय लेना पड़ता है।

(6) वित्तीय कार्य कुशलता का मूल्यांकन करना – इस कार्य के लिए अनुपात विश्लेषण, कोष प्रवाह विवरण, लागत लाभ विश्लेषण, प्रवृत्ति विश्लेषण आदि वित्तीय एवं सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग किया जाता है।

(7) वित्तीय नियन्त्रण – वित्तीय नियन्त्रण वित्तीय प्रबन्धक की प्रमुख जिम्मेदारी है। इसके लिए महत्वपूर्ण तकनीक प्रयोग में आती है। ताकि वित्तीय सम्बन्धी सभी बातों पर नियन्त्रण हो सके क्योंकि वित्त ही किसी भी संगठन की जीवनदायिनी शक्ति होता है। 

21. वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ, परिभाषा एवं उद्देश्य बताइए।

उत्तर- वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ एवं (Meaning and Definition of Financial Management ) – वित्तीय प्रबन्ध का सम्बन्ध व्यवसाय की वित्त व्यवस्थाओं से है जो उसके कुशल संचालन एवं उद्देश्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए की जाती है। वित्तीय प्रबन्धन निम्न दो शब्दों का समूह है-‘वित्तीय’ और ‘प्रबन्ध’ । वित्तीय का आशय वित्त सम्बन्धी है और प्रबन्ध का आशय किसी कार्य की कुशल व्यवस्था करने से है। अतएव वित्तीय प्रबन्ध से आशय किसी व्यावसायिक उपक्रम की वित्त सम्बन्धी कुशल व्यवस्था से है । यह कहा जाता है कि वित्त व्यवसाय का जीवन रक्त है। किसी व्यवसाय की स्थापना, उसके लिए आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था करने (जैसे- भूमि, भवन, कच्चा माल, प्लाण्ट एवं मशीनरी, फर्नीचर एवं अन्य साज-सज्जा), सामान्य व्ययों का भुगतान करने तथा उसके संवर्धन के लिए पर्याप्त वित्त की आवश्यकता होती है। यह कार्य वित्तीय प्रबन्ध द्वारा सम्पन्न होता है। वित्तीय प्रबन्ध कला तथा विज्ञान दोनों है। 

गथमैन एवं डुग्गल (Guthmann and Dougall) के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्ध का सम्बन्ध ऐसी गतिविधियों से है जो व्यवसाय में प्रयुक्त कोषों के नियोजन, एकमात्र नियन्त्रण एवं प्रशासन से जुड़ी हुई हों। ” 

 वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य 

वित्तीय प्रबन्ध का मूलभूत उद्देश्य व्यवसाय के स्वामियों का अधिकतम हित करना है। अब प्रश्न उठता है कि व्यवसाय से स्वामियों का अधिकतम हित कैसे हो ? इस दृष्टि से निम्न दो विचारधाराएँ प्रचलन में हैं जोकि परस्पर विरोधी हैं-

(1) लाभों को अधिकतम करना (Profit Maximisation) – इस विचारधारा के अनुसार लाभ अर्जित करना प्रत्येक व्यवसाय का प्राथमिक उद्देश्य है। दूसरे शब्दों में, लाभ को अधिकतम करके ही व्यवसाय के स्वामियों का अधिकतम हित किया जा सकता है।

(2) सम्पदा को अधिकतम करना (Wealth Maximisation) – दूसरी विचारधारा के अनुसार वित्तीय प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य व्यवसाय के अंशधारियों अथवा स्वामियों की सम्पदा को अधिकतम करना होना चाहिए । अंशधारियों की सम्पदा निम्नलिखित सूत्र द्वारा निर्धारित की जाती है-

अंशधारियों की सम्पदा = धारित अंशों की संख्या प्रति अंश बाजार मूल्य अंशधारी अपनी सम्पदा को अधिकतम करने में रुचि रखते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि अंश बाजार में उनके अंशों के मूल्य में वृद्धि हो। उनके अंशों के मूल्य में जितनी अधिक वृद्धि हो, अंशधारियों की सम्पदा में उतनी ही अधिक वृद्धि होगी। 

(3) अन्य उद्देश्य (Other Objectives) – उपर्युक्त दोनों उद्देश्यों के अतिरिक्त वित्तीय प्रबन्ध के निम्न उद्देश्य भी होते हैं-
(i) न्यूनतम लागत पर पर्याप्त कोषों को प्राप्त करना (Sufficient Funds at Minimum Cost) – वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य न्यूनतम लागत पर पर्याप्त कोषों को प्राप्त करना एवं उनकी नियमित पूर्ति बनाये रखना है।

(ii) कोषों की सुरक्षा सुनिश्चित करना (Ensuring Safety to Funds) – व्यवसाय में जोखिम निहित होती है। इस सम्बध में कहा गया है कि “व्यवसाय जोखिम का खेल है जिसे प्रत्येक व्यक्ति नहीं खेल सकता । “अतएव व्यवसाय में कोषों का निवेश करते समय वित्तीय प्रबन्धक को यह देखना चाहिए कि उसकी सुरक्षा निरन्तर बनी रहे। इसके लिए आवश्यक सुरक्षित वित्तीय नीतियों का अनुकरण किया जाये तथा पर्याप्त कोषों की स्थापना की जाये ।

(iii) कोषों का अनुकूलतम उपयोग (Optimum Utilisation Funds) – वित्तीय प्रबन्ध का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य उपलब्ध वित्तीय कोषों का अनुकूलतम उपयोग सुनिश्चित करना है। 

(iv) वित्तीय नियन्त्रण (Financial Control) – वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य प्रभावी वित्तीय नियन्त्रण की स्थापना करना है। उसे व्यवसाय में वित्त के आवागमन पर निरन्तर निगरानी रखनी चाहिए। अधि- पूँजीकरण तथा अल्प-पूँजीकरण दोनों ही व्यवसाय के लिए घातक हैं।

(v) पर्याप्त प्रत्याय सुनिश्चित करना (Ensuring Adequate Return)—वित्तीय प्रबन्ध का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य अंशधारियों के लिए (जिन्होंने संस्था के अंश खरीदकर पूँजी का विनियोजन किया है। उनके द्वारा क्रय किये गये अंशों पर पर्याप्त प्रत्याय (Sufficient Return i.e., Dividend) सुनिश्चित करना है ताकि व्यवसाय में निधि निरन्तर बनी रहे। 

22. एक व्यवसाय की स्थायी पूँजी की आवश्यकताओं को कौन-कौन से घटक निर्धारित करते हैं?

उत्तर – व्यवसाय की दीर्घकालीन या स्थायी पूँजी की आवश्यकता निम्न घटकों पर निर्भर करती है-

(i) उत्पाद के प्रकार – उपभोक्ता वस्तुओं जैसे – वाशिंग पाउडर, स्टेशनरी आदि के उत्पादन के लिए सीमित मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है, जबकि विशालकाय वस्तुओं या महँगी वस्तुओं जैसे – ट्रक, कार, रेफ्रीजरेटर, वाशिंग मशीन आदि के उत्पादन के लिए काफी मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

(ii) व्यावसायिक परिचालन की प्रकृति – लघु औद्योगिक इकाइयों को सीमित मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ती है, जबकि बड़े पैमाने वाली औद्योगिक इकाइयों को बड़े पैमाने पर पूँजी की आवश्यकता पड़ती है।

(iii) औद्योगिक कार्य का आकार – एक वृहत् स्तरीय उत्पादन इकाई जैसे – सूती वस्त्र उद्योग को विशाल संयंत्र एवं मशीनरी की आवश्यकता होती है, जिस पर लघु औद्योगिक इकाई जैसे हैण्डलूम उत्पादों की तुलना में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ती है।

(iv) व्यावसायिक उत्तरदायित्व – यदि फर्म वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण दोनों में संलग्न हो तो ऐसी फर्म को उन फर्मों की तुलना में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ती है जो सिर्फ उत्पादन कार्य में लगी रहती हैं। इसी प्रकार एक ऐसे कार्य में स्थायी पूँजी की कम आवश्यकता पड़ती है जो दूसरे के द्वारा उत्पादित वस्तु को बेचती है।

(v) उत्पादन की प्रक्रिया – यदि व्यवसाय किसी उत्पाद के सभी अंगों का उत्पादन करता है (जैसे – कम्प्यूटर सेट) तो बड़े पैमाने पर स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ेगी। परन्तु यदि किसी उत्पाद का एक भाग या कुछ अंशों का उत्पादन किया जाना हो तो अपेक्षाकृत कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ेगी।

(vi) स्थायी पूँजी प्राप्त करने की प्रणाली – स्थायी पूँजी की पूर्ति बिना भुगतान के प्राप्त करने की सुविधा ।
इस प्रकार व्यवसाय की स्थायी पूँजी की आवश्यकता अलग-अलग इकाइयों की अलग-अलग होगी जो व्यवसाय की प्रकृति, प्रक्रिया, आकार प्रणाली और अन्य परिचालनों पर निर्भर करेगी। 

23. अंश और ऋणपत्र में अन्तर कीजिए।

उत्तर – अंश और ऋणपत्र दोनों ही कम्पनी की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण साधन हैं। इन्हें कारपोरेट प्रतिभूतियाँ कहा जाता है। उन दोनों में अग्रलिखित अन्तर हैं-

 24. समता अंश तथा पूर्वाधिकार अंश में अन्तर भेद कीजिए।

उत्तर – समता अंश तथा पूर्वाधिकार अंश में मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं- 

25. वित्त के मध्यकालीन साधनों के विभिन्न स्रोतों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- वित्त के मध्यकालीन साधन – मध्यकालीन ऋण प्रायः 3 वर्ष से लेकर 7 वर्ष की अवधि तक होते हैं तथा एक व्यवसायी को मध्यकालीन ऋण प्राप्त करने के प्रमुख रूप से निम्नलिखित साधन हैं- 

(1) जन-निक्षेप (Public Deposits) – बहुत से उद्योग अपने मध्यकालीन वित्त की व्यवस्था जनता को ऊँचे ब्याज दर पर पूँजी लगाने के लिए आमन्त्रित करते हैं जिससे संस्था के मध्यकालीन ऋण के रूप में पूँजी एकत्र हो जाती है जिसका उपयोग संस्था द्वारा अपनी मध्यकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति में किया जाता है। इस प्रकार जन-निक्षेप निजी कम्पनियों के साथ-साथ सार्वजनिक कम्पनियों में भी स्वीकार की जाने लगी है, जिससे जनता द्वारा प्राप्त राशियों से अपने मध्यकालीन कोषों की व्यवस्था कर रही हैं। 

(2) सार्वजनिक स्थायी जमा (Public Fixed Deposit) – स्थायी जमा के आधार पर कम्पनियाँ जनता से पूँजी प्राप्त करती हैं। स्थायी जमा के अन्तर्गत कम्पनियाँ 6 महीने से लेकर 3 वर्ष तक की अवधि के लिए स्वीकार किये जाते हैं और ये प्रायः कार्यशील पूँजी की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए प्राप्त किए जाते हैं तथा यह कुल जमाराशि नवीनतम आर्थिक चिट्टे के शुद्ध मूल्य से 25 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकते हैं तथा इस प्रकार स्थायी जमा धन असुरक्षित ऋण के अन्तर्गत आते हैं। 

(3) वित्तीय संस्थाओं द्वारा मध्यकालीन ऋण – उद्योगों के मध्यकालीन वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वित्तीय संस्थायें लम्बे समय तक के लिए मध्यकालीन ऋण प्रदान करती हैं। इन वित्तीय संस्थाओं में राज्य स्तर तथा अखिल भारतीय स्तर के वित्तीय निगम आते हैं। राज्य स्तर के वित्तीय निगम प्रमुख रूप से राज्य वित्त निगम, राज्य औद्योगिक एवं विनियोग निगम अथवा राज्य औद्योगिक एवं विकास निगम तथा अखिल भारतीय स्तर के निगम प्रमुख रूप से औद्योगिक साख एवं विनियोग निगम (ICICI) यूनिट ट्रस्ट (UTI), भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI), भारतीय औद्योगिक पुनर्निर्माण निगम (IRCI), साधारण बीमा निगम (GIC), भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI), भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) इत्यादि । 

(4) प्रतिबन्धित अनुबन्धों के आधार पर वित्त – कुछ वित्तीय संस्थाएँ प्रतिबन्धित शर्तों के आधार पर व्यापारियों को ऋण प्रदान करती हैं तथा शर्तों में यह भी अनुबन्ध होता है कि अगर कम्पनी या उद्योग ऋण के अदायगी के किस्तों में किसी भी प्रकार त्रुटि करती है तो ऋण देने वाली संस्थायें पूरी ऋण की वसूली एक साथ कर सकती हैं और जब तक कम्पनी द्वारा पूरी ऋण की अदायगी नहीं कर दी जाती तब तक प्रतिबन्धित शर्तों का पालन करना अनिवार्य होता है। इस प्रकार वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रतिबन्धित शर्तों में सीमा से अधिक लाभांश के वितरण पर प्रतिबन्ध, बिना ऋण देने वाली संस्थाओं के अनुमति के अधिक लम्बे समय के ऋण के प्राप्त करने पर रोक तथा ऋण पूँजी अनुपात को निर्धारित सीमा से आगे न बढ़ाने पर प्रतिबन्ध एवं चल सम्पत्तियों का एक निर्धारित न्यूनतम स्तर बनाये रखना इत्यादि हो सकता है।  

(5) आस्थगित साख के आधार पर ऋण – आस्थगित साख के आधार पर ऋण प्रमुख रूप से औद्योगिक विकास बैंक द्वारा दिया जाता है और यह उद्योगों के मशीनरी एवं उपकरणों को क्रय करने के लिए देती है और इसके अन्तर्गत विक्रेता द्वारा मशीन या उपकरण के लिए औद्योगिक विकास बैंक से स्वीकृत कराता है और क्रेता को मशीन या उपकरण के मूल्य का लगभग 10 प्रतिशत से लेकर 35 प्रतिशत तक विक्रेता को अग्रिम धनराशि रूप में देना पड़ता है और शेष धनराशि को लगभग 6-7 वर्षों के द्वारा छमाही अवधि में भुगतान किया जाता है। इस प्रकार के किस्तों की संख्या 10 से लेकर 14 तक हो सकती है। 

(6) शर्तों में परिवर्तनीयता के आधार पर ऋण – शर्तों में परिवर्तनीयता के आधार पर ऋण देने के लिए वित्तीय संस्थायें ऋण प्राप्त करने वाली कम्पनी से ऋण अनुबन्धों में एक ऐसी शर्त लगा देती हैं जिसके तहत कम्पनी के द्वारा लिए गए ऋण को कम्पनी के इक्विटी अंशों में परिवर्तन कर सकती हैं लेकिन इस प्रकार की शर्तों का निजी क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा विरोध किया जाता है क्योंकि उनको इस बात का भय रहता है कि वित्तीय संस्थाओं द्वारा कहीं कम्पनी के स्वामित्व को अपने हाथ में न ले लिया जाय क्योंकि निजी क्षेत्र की कम्पनियों के अंशों का एक बहुत बड़ा भाग पहले ही वित्तीय कम्पनियों के पास रहता है और कम्पनी के इक्विटी अंशों में परिवर्तन करके कम्पनी के प्रबन्ध एवं स्वामित्व में अपना नियंत्रण स्थापित कर सकती है। 

(7) बैंकों से सावधि ऋण लेकर – उद्योगों को कार्यशील पूँजी की आवश्यकता की पूर्ति के लिये बैंकों द्वारा सावधि ऋण देकर किया जाता है। सावधि ऋण में ऋण लेने वाले उद्योगों को अपनी चल पूँजी का 25 प्रतिशत स्वयं लगाना होता है तथा बचे हुये राशि की पूर्ति वह बैंकों से सावधि ऋण लेकर करता है और लिये गये ऋणों का भुगतान अधिक-से-अधिक पाँच वर्षों के अन्दर कर देना होता है। 

(8) व्यापारिक बैंकों को पुनर्वित्त की सुविधाएँ देकर—उद्योगों को मध्यकालीन ऋण देने के लिए 1958 में पुनर्वित्त निगम की स्थापना की गयी जिसको 1964 में औद्योगिक विकास बैंक में विलय कर दिया गया और अब उद्योगों को ऋण देने के लिए व्यापारिक बैंकों को लगभग 80 से 90 प्रतिशत तक पुनर्वित्त की सुविधा औद्योगिक विकास बैंक के माध्यम से मिलती है और उद्योगों को मध्यकालीन ऋण पुनर्वित्त के आधार पर व्यापारिक बैंकों के द्वारा प्रदान किया जाता है। 

26. वित्त के दीर्घकालीन साधनों के विभिन्न स्रोतों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- वित्त के दीर्घकालीन स्रोतों का वर्णन निम्नलिखित है- 

(1) अंशों का निर्गमन – कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार एक संस्था दीर्घकालीन एवं स्थायी वित्त प्राप्त करने के लिए अपने अंशों का निर्गमन करती है जिसमें साधारण या समता अंश, पूर्वाधिकार अंश, बोनस अंश को सम्मिलित किया जाता है। इन अशों के निर्गमन के बाद ही कोई भी संस्था अपने व्यापार का संचालन कर सकती है। साधारण अंश के अंशधारियों को संस्था में लाभ प्राप्त करने का असीमित अधिकार होता है एवं कम्पनी के संचालक बोर्ड का चुनाव एवं गठन इन्हीं लोगों के द्वारा किया जाता है तथा संस्था की सम्पत्तियों के स्वामी के रूप में अन्तिम दावेदार होते हैं । समता या साधारण अंशों के निर्गमन से प्राप्त पूँजी को स्थायी पूँजी के अन्तर्गत रखा जाता है। पूर्वाधिकार अंशों के निर्गमन से प्राप्त पूँजी को दीर्घकालीन वित्त के अन्तर्गत रखा जाता है।

(2) ऋणपत्रों का निर्गमन (Issue of Debentures) – एक संस्था अपनी दीर्घकालीन पूँजी की व्यवस्था ॠण-पत्रों का निर्गमन करके कर सकती है। यह ऋण पत्र कम्पनी या संस्था द्वारा स्वीकृत पत्र है जो कम्पनी अपने सामान्य मुहर के अन्तर्गत निर्गमित करती है और ऋणपत्र के पृष्ठ भाग पर राशि, ब्याज दर तथा अन्य शर्तों का उल्लेख रहता है और कम्पनी इन्हीं शर्तों के अन्तर्गत ऋणदाताओं से ऋण प्राप्त करती है।

(3) बैंकों से ऋण (Loan from Bank) – उद्योगों के विकास में राष्ट्रीयकृत बैंकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। देश के तीव्र आर्थिक विकास एवं रोजगार के सृजन तथा उद्योगों के विकास के लिए सन् 1996 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। उद्योगों को दीर्घकालीन पूँजी की व्यवस्था बैंकों द्वारा बहुत कम की जाती है। ज्यादातर मध्यकालीन और अल्पकालीन वित्त की व्यवस्था की जाती है, फिर भी उद्योगों को कुछ मात्रा में दीर्घकालीन पूँजी की भी व्यवस्था करनी होती है। इस प्रकार उद्योगों के विस्तार के लिए संस्थाएँ अंशों एवं ऋणपत्रों के विक्रय के माध्यम से वित्त की व्यवस्था करने की अपेक्षा बैंकों से दीर्घकालीन ऋण लेती हैं क्योंकि बैंकों के द्वारा वित्त प्राप्त करना सस्ता रहता है।

(4) विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं से ऋण (Loan from Specific Financial Institutions) – संस्थाओं के दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। उद्योगों के तीव्रगति से विकास करने के लिए उनके आवश्यक वित्त की व्यवस्था करने के उद्देश्य से विभिन्न वित्तीय संस्थाओं की स्थापना की गई। 

(5) प्राप्त लाभों का पुनर्विनियोग (Ploughing Back of Earned Profits) – बहुत-सी संस्थाएँ या उद्योग अपने व्यवसाय के वित्त की व्यवस्था के लिए पूरे लाभांश का वितरण नहीं करतीं बल्कि लाभांश का कुछ भाग भविष्य में व्यवसाय के विस्तार करने एवं संयंत्रों का क्रय करने या किसी व्यावसायिक संस्था का क्रय करने के उद्देश्य से रोक लेती हैं इसको अवितरित लाभ या लाभों का पुनर्विनियोजन या स्ववित्तप्रबन्ध या आन्तरिक वित्त प्रबन्ध कहा जाता है। इससे लाभ यह होता है कि कम्पनी की एक तरफ आर्थिक स्थिति मजबूत होती है वहीं दूसरी तरफ कम्पनी को बिना ब्याज के वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।

( 6 ) कम्पनी के ह्रास कोष (Depreciation Fund of Company) – अनेक औद्योगिक संस्थाओं में भविष्य के लिए अनेक प्रकार के कोषों का निर्माण होता है; जैसे- भूमि-भवन, मशीनरी, संयंत्र आदि का उपयोग करने से उसमें कुछ घिसावट आ जाती है या धीरे-धीरे वे खराब होने लगती हैं जिनको भविष्य में मरम्मत या बदलने की आवश्यकता होती है जिससे उनकी पुनर्स्थापना के लिए संस्थाओं के द्वारा ह्रास कोष की स्थापना की जाती है जिसमें प्रतिवर्ष होने वाले लाभों में से कुछ अंश ह्रास कोष में रखा जाता है जिसका समय – समय पर औद्योगिक संस्थाएँ संचित ह्रास कोष को अपने वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग करती हैं।

(7) बीज पूँजी योजना (Seed Capital Scheme) — बीज पूँजी योजना भारतीय औद्योगिक विकास बैंक द्वारा संचालित की जाती है । यह योजना उन उद्यमियों या साहसियों के लिए है जो तकनीकी योग्यता एवं कुशलता से संस्था के सफल प्रवर्तक बन जाते हैं लेकिन संस्था में प्रवर्तक के रूप में पूँजी लगाने के लिए वित्त का अभाव रहता है। इन्हीं वित्त की आवश्यकता की पूर्ति बीज पूँजी योजना के अन्तर्गत की जाती है। इस योजना में साहसी के अंशदान के 50 प्रतिशत भाग या 15 लाख रुपये दोनों में जो कम होता है उसी की वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी जाती है और साहसी की कुल परियोजना लागत 2 करोड़ रुपये से अधिक नहीं होना चाहिए तथा छोटी परियोजनाओं में साहसी के वित्तीय सहायता के लिए परियोजना की कुल लागत का 20 प्रतिशत या दो लाख रुपये दोनों में जो कम हो इससे अधिक नहीं दी जाती है। इस प्रकार उद्योगों के दीर्घकालीन वित्त प्रबन्ध में औद्योगिक विकास बैंक का बीज पूँजी योजना एक महत्वपूर्ण साधन है। 

(8) सरकारी प्राप्त वित्तीय सहायता (Financial Assistance by the Governments) – उद्योगों के दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार के द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान करके की जाती है, कभी-कभी कुछ विशेष प्रकार के उद्योगों में सरकार द्वारा अनुदान देकर या अंशों एवं ऋण-पत्रों को क्रय करके वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है तथा पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए पिछड़े क्षेत्र में स्थापित उद्योगों को सरकार द्वारा कम ब्याज पर ऋण प्रदान किए जाते हैं तथा उनकी वित्तीय आवश्यकताओं का विशेष ध्यान रखा जाता है और कभी-कभी सरकार द्वारा उद्योग के लिए ऋणों पर प्रत्याभूति देकर वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।

(9) विदेशी पूँजी के विनियोग (Investments of Foreign Capital) – औद्योगीकरण को तीव्र करने एवं उनके विकास तथा वित्तीय प्रबन्ध में विदेशी पूँजी के विनियोग का महत्वपूर्ण योगदान है। औद्योगीकरण एवं आर्थिक विकास के लिए विभिन्न देशों में आपसी समझौते होना प्रमुख कारण है। विदेशी पूँजी के विनियोग से ही लोहा, इस्पात उद्योग, रासायनिक उद्योग, कोयला, ताँबा, जूट, अभ्रक इत्यादि उद्योगों का विकास हुआ।


(10) जन – निक्षेप (Public Deposits) – अनेक उद्योग अपने व्यावसायिक वित्त की आवश्यकताओं के लिए जनता से पूँजी निवेश करने के लिए ऊँचे ब्याज देकर आकर्षित करते हैं जिससे जनता ऊँचे ब्याज दर पाने के लिए अपनी पूँजी का विनियोजन इन संस्थाओं में करती है। इस प्रकार जनता को विनियोजित पूँजी पर अधिक ब्याज मिलता है, वहीं दूसरी तरफ संस्था के उद्योगों की वित्त व्यवस्था भी हो जाती है ।  

27. लाभों का पुनः निवेश क्या है? इसकी क्या विशेषताएँ हैं? इसे प्रभावित करने वाले घटकों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- प्रत्येक प्रगतिशील उद्योग के भावी विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में पूँजी चाहिए। यदि वह पूँजी बाहरी लोगों से ली जाए तो उसमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः लाभ के हिस्से का पुनः विनियोग करना विस्तार एवं उन्नति की सर्वश्रेष्ठ विधि है। इस पद्धति के अनुसार कम्पनी अपनी सम्पूर्ण आय का वितरण लाभांश के रूप में न करती हुई उसका एक भाग बचाकर संचय कोष में रख लेती है और उस संचय कोष का प्रयोग कम्पनी की भावी विकास योजनाओं में करती है। कम्पनी के उस प्रकार के अर्थ प्रबन्ध को अर्जित आय का पुन: विनियोग (Ploughing back of Profit) कहते हैं। यह पद्धति कम्पनी की आर्थिक दृढ़ता के लिए अधिक लाभकर है क्योंकि ऋण से विकास की पूर्ति करने से कम्पनी पर ब्याज के भुगतान का बोझ बढ़ता है और यदि इन ऋणों का भुगतान अचानक एक साथ माँग लिया जाए तो कम्पनी की आर्थिक स्थिति शिथिल पड़ जाती है। पाश्चात्य देशों के औद्योगिक विकास में इस पद्धति का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उस दशा में जबकि पूँजी प्राप्त करना कठिन हो । यह पद्धति अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हो सकती है। उसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) यह कम्पनी की स्व- पूँजी ( Self Capital ) है। जिस पर कम्पनी के अतिरिक्त किसी और का अधिकार नहीं होता है ।

(ii) इस पूँजी पर न तो ब्याज दिया जाता है और न लाभांश ।

(iii) इस पूँजी को कम्पनी को लौटाना नहीं होता। यह असंशोधनीय होती है। 

 

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