Eps Class 12 Chapter 16 Subjective in Hindi

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प्रबंध के बुनियादी आधार

1. प्रबन्ध की दो परिभाषाएँ दीजिए

उत्तर- (i) एडविन एम. रोबिन्सन-कोई भी व्यवसाय स्वयं नहीं चल सकता चाहे वह संवेग की स्थिति में ही क्यों न हो।
(ii) ऑलीवर शेल्डन-प्रबन्ध व्यवसाय संगठन रूपी शरीर का मस्तिष्क है। एवं उसकी जीवनदायिनी शक्ति है।

2. ‘प्रबन्ध एक अदृश्य शक्ति है।’ क्यों? 

उत्तर- यद्यपि प्रबन्ध का भौतिक अस्तित्व नहीं होता फिर भी संगठन में प्रबन्ध की जानकारी इसके द्वारा प्राप्त किए गए परिणामों से होती है। यदि वांछित परिणामों की प्राप्ति होती है तो उसे कुशल एवं प्रभावी प्रबन्ध कहा जाता है और इसके विपरीत प्रबन्धहीनता कुप्रबन्ध या अकुशल प्रबन्ध होने की बात कही जाती है। 

3. नियोजन और संगठन प्रबन्ध के कार्य क्यों माने जाते हैं? 

उत्तर- (1) नियोजन – नियोजन प्रबन्ध का आधारभूत तथा प्रमुख कार्य है। यह करने से पहले सोचने (Thinking before doing) का कार्य है। किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व उसके हर पहलू पर भली-भाँति विचार कर लेना ही नियोजन है। योजना को व्यवस्थित ढंग से बनाया जाता है और प्रत्येक कार्य के लिए (i) क्या करना है, (ii) कहाँ करना है, (iii) कब करना है, (iv) कौन करेगा, (v) कैसे किया जायेगा तथा (vi) किन साधनों से किया जाएगा, आदि बातें विस्तार से तय कर ली जाती हैं। यही कारण है कि नियोजन को प्रबन्ध का मुख्य कार्य माना जाता है।

(2) संगठन – नियोजन द्वारा उद्देश्यों को निर्धारित कर लेने के पश्चात् उन्हें कार्यान्वित करने की आवश्यकता पड़ती है, जिसे प्रबन्ध संगठन के माध्यम से करता है। अत: संगठन एक आधारभूत ढाँचा है जिसके माध्यम से प्रबन्ध अपनी योजनाओं को व्यवहार में लाता है। संगठन कार्य के अन्तर्गत निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये भौतिक एवं मानवीय संसाधनों को प्राप्त करने तथा उनके बीच पारस्परिक सम्बन्धों का एक तार्किक ढाँचा तैयार किया जाता है। इसमें निम्नलिखित क्रियाएँ शामिल हैं-
(i) उपक्रम की क्रियाओं की पहचान करना;

(ii) इन क्रियाओं का समूहीकरण (वर्गीकरण करना);

(iii) प्रत्येक वर्ग या क्रिया-समूह को एक प्रबन्धक के अधीन विभाग को सौंपना;

(iv) उत्तरदायित्व परिभाषित करना तथा अधिकारों का भारार्पण करना तथा आबण्टन करना एवं

(v) संगठन में अन्तर्सम्बन्धों की स्थापना करना। यही कारण है कि संगठन प्रबन्ध का मुख्य कार्य है। 

4. प्रबन्ध को विज्ञान क्यों माना जाता है? 

उत्तर- व्यवस्थित ज्ञान, जो किन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित हो, विज्ञान कहलाता है, अर्थात् विज्ञान ज्ञान का वह रूप है जिसमें अवलोकन तथा प्रयोगों द्वारा कुछ सिद्धान्त निर्धारित किये जाते हैं। विज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- वास्तविक विज्ञान और नीति प्रधान विज्ञान। वास्तविक विज्ञान के अन्तर्गत हम केवल वास्तविक अथवा वर्तमान अवस्था का ही अध्ययन करते हैं, जबकि नीति प्रधान विज्ञान के अन्तर्गत हम आदर्श भी निर्धारित करते हैं। व्यावसायिक प्रबन्ध भी निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित सुव्यवस्थित ज्ञान का भण्डार है। विद्वानों ने अपने अनुभव एवं ज्ञान के आधार पर समय-समय पर व्यवसाय सम्बन्धी अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जो प्रबन्ध को विज्ञान की कोटि में रखने के लिए पर्याप्त है। उदाहरणार्थ- वैज्ञानिक प्रबन्ध, विवेकीकरण, विज्ञापन व बिक्री कला के सिद्धान्त आदि ।

5. संगठन क्या है ?

उत्तर – संगठन (Organisation) – नियोजन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को क्रियान्वित करने एवं उन्हें प्राप्त करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि ऐसे कुशल एवं प्रभावी संगठन का निर्माण किया जाए जिनमें नियुक्त समस्त अधिकारी एवं अन्य कर्मचारी अपने-अपने लिए निर्धारित कार्यों को इस प्रकार से सम्पन्न करें कि उनके कार्यों में किसी प्रकार की कोई बाधा उत्पन्न न हो। इसके लिए प्रबन्ध को चाहिए कि वह उपक्रम के सम्पूर्ण कारोबार को छोटी-छोटी क्रियाओं में बाँटकर उन्हें इस प्रकार समूहबद्ध (Grouping) करे कि एक प्रकार की क्रियाएँ एक ही समूह में सम्मिलित हों। इन क्रियाओं का विश्लेषण एवं श्रेणीयन हो जाने पर उन्हें उत्तरदायी अधिकारियों को उनकी योग्यता एवं कुशलता के अनुरूप सौंपा जाना चाहिए। ये अधिकारी अपने-अपने कार्यों को कुशलतापूर्वक एवं उत्साहपूर्वक कर सकें, इसके लिए उन्हें अपनी अधिकार-सीमा के अन्तर्गत पर्याप्त अधिकार एवं सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। बिना अधिकारों के उत्तरदायित्व कैसा ? उपक्रम में इस प्रकार की रचना को ‘संगठन’ कहते हैं। 

6. प्रेरणा को परिभाषित करें।

उत्तर- एम जे. जुसियस के शब्दों में, “साधारण अर्थ में, अभिप्रेरणा किसी अन्य अथवा स्वयं को वांछित गतिविधियों का अनुसरण के लिए उत्तेजित करने का कार्य है अथवा वांछित प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिए सही बटन दबाना है। 

7. प्रबन्ध कला है या विज्ञान?

उत्तर- प्रबन्ध में कला एवं विज्ञान दोनों के गुण हैं। इसे केवल विज्ञान अथवा केवल कला की संज्ञा देना उचित नहीं है। यह विज्ञान एवं कला है क्योंकि विज्ञान एवं कला एक-दूसरे के पूरक हैं। जैसा कि कोसा (Cossa) ने कहा है, “विज्ञान को कला की आवश्यकता है, कला को विज्ञान की, प्रत्येक एक-दूसरे का पूरक है। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रबन्ध के विज्ञान एवं कला के बीच कोई अलग रेखा नहीं खींची जा सकती। विज्ञान को समस्याओं के समाधान निकालने एवं सिद्धान्त बनाने हैं, जिन्हें कला के लाभार्थ प्रयोग किया जा सकता है। ” 

8. उद्यमशीलता और प्रबन्ध में अन्तर बताएँ । 

उत्तर- उद्यमशीलता और प्रबन्ध में निम्नांकित अन्तर है- उद्यमशीलता :- 

(i) यह किसी उद्यम की भावना होती है।

(ii)एक उद्यमी सफल प्रबन्धक होता है।

प्रबन्ध (Management) :- 

(i) यह किसी उद्यम के उद्देश्यों की प्राप्ति की कला और विज्ञान है।

(ii) एक सफल प्रबन्धक उद्यमी नहीं होता है।

9. क्या प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है? 

उत्तर- हाँ, प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। प्रबन्ध प्रक्रिया के अन्तर्गत नियोजन, संगठन, नियुक्तियाँ, निर्देशन एवं नियन्त्रण एक-दूसरे से सम्बन्धित अनेक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। 

10. क्या प्रबन्ध एक पेशा है ?

उत्तर- प्रबन्ध पेशे की कुछ विशेषताओं (विशिष्ट ज्ञान एवं तकनीकी चातुर्य, प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त करने की औपचारिक व्यवस्था, सेवा भावना को प्राथमिकता) को तो पूरा करता है तथा कुछ अन्य विशेषताओं (प्रतिनिधि पेशेवर संघ का होना, आचार संहिता) का इसमें अभी पूरा विकास नहीं हुआ है। भारत में अभी प्रबन्ध का पेशे के रूप में विकास अपनी शैशव अवस्था में है तथा धीमी गति से चल रहा है। जैसे-जैसे विकास की गति में तेजी आएगी, वैसे-वैसे प्रबन्ध को पेशे के रूप में स्वीकृति मिलती रहेगी।

11. प्रबन्ध समाज के विकास में सहायक होता है। कैसे? 

उत्तर- प्रबन्ध श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली वस्तुएँ एवं सेवाओं को उपलब्ध करवाकर, रोजगार के अवसरों का सृजन करके, लोगों के हितों में उन्नत तकनीकों को अपनाकर प्रबन्ध समाज के विकास में सहायक होता है। 

12. ‘प्रबन्ध कार्यक्षमता में वृद्धि करता है। ‘कैसे? 

उत्तर- प्रबन्ध का लक्ष्य संगठन की क्रियाओं के श्रेष्ठ नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण एवं नियन्त्रण के माध्यम से लागत को कम करना एवं उत्पादकता को बढ़ाना है।

14. प्रबन्ध को एक सामूहिक क्रिया क्यों कहा जाता है? 

उत्तर- प्रबन्ध एक सामूहिक क्रिया है क्योंकि जब भी किसी समान उद्देश्य की प्राप्ति हेतु व्यक्ति समूह के रूप में साथ-साथ काम करते हैं, प्रबन्ध की आवश्यकता महसूस की जाती है। 

14. प्रबन्ध को परिभाषित कीजिए एवं इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।

उत्तर-  प्रबन्ध के कार्यों की संक्षिप्त रूपरेखा निम्नलिखित है- (1) नियोजन- नियोजन प्रबन्ध का आधारभूत कार्य है। नियोजन संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कार्य की दिशा निर्धारित करने में सहायक होता है। यह अग्रिम में, क्या करना है, कब करना है, कैसे करना है और कौन एक निश्चित कार्य करेगा, निर्णय लेता है। अतः नियोजन “करने से पूर्व सोचने” की प्रक्रिया है। अतः नियोजन, प्रबन्धक की मानसिक स्थिति से सम्बन्धित है। वह कार्य करने से पूर्व सोचता है। अन्य प्रबन्धकीय कार्य जैसे – संगठन, कार्मिक व्यवस्था, निर्देशन, समन्वयन एवं नियन्त्रण नियोजन के पश्चात् आते हैं।”

(2) संगठन- प्रत्येक व्यावसायिक उद्यम को अपने विभिन्न कार्यों के निष्पादन हेतु अनेक व्यक्तियों की सेवाओं की आवश्यकता होती है। प्रबन्धक समस्त कार्मिकों के लक्ष्य निर्धारित करता है। प्रत्येक व्यक्ति की शक्ति उद्यम के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित की जाती है। संगठन के कार्यों के अन्तर्गत उत्पादन के अन्य घटकों तथा व्यक्ति, सामग्री, मुद्रा एवं मशीनों आदि की क्रियाओं को व्यवस्थित, निर्देशित, समन्वित एवं नियन्त्रित करना तथा उद्यम के उद्देश्यों को प्राप्त करना है। 

(3) कार्मिक व्यवस्था अथवा नियुक्तियाँ- कार्मिकता अन्तर्गत मानवीय शक्ति नियोजन एवं प्रबन्धन सम्मिलित हैं। सरल शब्दों में, कार्मिकता कार्य में निम्न कार्य सम्मिलित हैं- उपस्थित व्यक्तियों की इन्वेण्ट्री निर्धारण, कार्मिकों की आवश्यकता निर्धारण, मानव शक्ति चयन के स्रोत, उनके पारिश्रमिक, प्रशिक्षण एवं विकास संकलन एवं उद्यम में कार्यरत कार्मिकों का पाक्षिक कार्य समीक्षा। संगठन में प्रत्येक प्रबन्धक को अन्य व्यक्तियों से काम लेने हेतु कार्मिक व्यवस्था का कार्य करना होता है। यह निश्चित रूप से कठिन कार्य है क्योंकि यह व्यक्ति से सम्बन्धित है। जिसका व्यवहार एवं कार्यों का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। इसी कारण यह प्रबन्ध के कार्यों की अलग एवं विशिष्ट शाखा माना गया है। 

(4) निर्देशन- निर्देशन से अभिप्राय अपेक्षित योजनाओं का कार्यान्वयन है। यह संगठित एवं नियोजित क्रिया का आरम्भ कर अधीनस्थों द्वारा उनके निष्पादन को सुनिश्चित करता है ताकि समूह कार्यों की प्राप्ति की जा सके। अन्य शब्दों में, निर्देशन का अर्थ मार्ग-दर्शन, शिक्षण, अभिप्रेरणा एवं सदस्यों द्वारा कार्यों को कुशलता से करने हेतु अभिप्रेरित है। निर्देशन का सम्बन्ध कर्मचारियों को बतलाना है कि कार्य क्या एवं किस प्रकार करें। एक बार कर्मचारियों को काम पर लगाया जाए, उन्हें निरन्तर मार्गदर्शन, सम्प्रेषण, अभिप्रेरण एवं नेतृत्व प्रदान करने की आवश्यकता होती है। निर्देशन में प्रमुख क्रिया लिखित हैं- 

(a) नेतृत्व- नेतृत्व लोगों में विश्वास एवं लगन उत्पन्न करता है। एक प्रबन्धक द्वारा उसके अधीनस्थों को अपने कार्य निष्पादन हेतु निर्देश एवं मार्गदर्शन करना होता है ताकि उपक्रम के उद्देश्य प्राप्त किए जा सकें। एक सफल मार्गदर्शक बनने के लिए एक प्रबन्धक के पास दूरदर्शिता, लगन, पहल, आत्म-विश्वास तथा व्यक्तिगत ईमानदारी आदि गुण होने चाहिए।

(b) सम्प्रेषण- सम्प्रेषण प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है। सम्प्रेषण से तात्पर्य सूचना प्राप्तकर्ता एवं प्रदाता दोनों द्वारा एक विशेष संदेश को एक ही रूप में समझा जाना है। दो अथवा अधिक व्यक्तियों के बीच विचारों, भावनाओं, मनोवेगों, ज्ञान एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान होना ही सम्प्रेषण है। प्रबन्धन में कोई कार्य नहीं किया जाता जब तक कि उसका सम्प्रेषण न हो जाये। यह मौखिक, शाब्दिक अथवा संकेतों द्वारा किया जा सकता है। सम्प्रेषण ऊपर से श्रेष्ठ (अधिकारी) से अधीनस्थ को नीचे की ओर तथा नीचे से ऊपर की ओर, अधीनस्थ से श्रेष्ठ अधिकारी को किया जाता है। यह दो या अधिक व्यक्तियों के बीच एक ही स्तर के अधिकारियों के बीच भी किया जाता है।

(c) अभिप्रेरण(Motivation) – अभिप्रेरण (Motivation) शब्द ‘अभिप्रेरित करना’ से बना है जिसका अर्थ है ‘प्रेरणा’ एक आवश्यकता अथवा एक मनोभाव, जो एक व्यक्ति को कार्यशील होने हेतु प्रेरित करता है। प्रदत्त अभिप्रेरण वित्तीय; जैसे-मजदूरी में वृद्धि अथवा गैर-वित्तीय जैसे श्रेष्ठतर कार्य अवस्थाएँ, कार्य सुरक्षा, पहचान आदि हो सकते हैं।

(d) निरीक्षण अथवा पर्यवेक्षण- निरीक्षण प्रबन्ध के निर्देशन कार्य एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व हैं। आदेश देने के उपरान्त, प्रबन्धक को देखना पड़ता है कि दी गई निर्देशिका कार्यान्वित की गई है। निरीक्षण का यही उद्देश् ।

(5) नियन्त्रण (Controlling) – नियन्त्रण को यह सुनिश्चित करना कि कार्य कितना निष्पादित किया जाना है। निष्पादन का मूल्यांकन तथा आवश्यकता पड़ने पर, संशोधनात्मक कार्यवाही करना ताकि निष्पादन योजनानुसार प्राप्त हो, के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु नियन्त्रण आवश्यक है। नियन्त्रण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्ध अपनी नीतियों का अनुपालन करवाता है तथा निष्पादन के पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों के अपूर्ण रहने पर, संशोधनात्मक कार्यवाही करना सम्मिलित है। नियन्त्रण का मुख्य उद्देश्य यह निश्चित करना है कि क्रिया अपेक्षित परिणाम प्राप्ति की ओर अग्रसर है। 

15. “प्रबन्ध तथा प्रशासन समान है।” इस विचार को स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर-  अनेक आधुनिक प्रबन्ध विशेषज्ञ हैं जिनका यह मत है कि प्रबन्ध तथा प्रशासन में भेद करना भ्रामक एवं निरर्थक है। इस विचारधारा के प्रबल समर्थक हैं प्रसिद्ध प्रबन्धशास्त्री हेनरी फेयोल (Henry Fayol), जॉर्ज आर. टैरी, लुईस ए. एलन, कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल पीटर एफ. ड्रकर, स्ट्रॉग, मैक्फारलैण्ड, विलियम एच. न्यूमैन (William H. Newman), डॉ. किम्बाल एवं किम्बाल, थियो हैमन (Theo Haiman) तथा ब्रेच (E. F. L. Brech) आदि । मैक्फारलैण्ड ने 1970 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘Manage- ment — Principles and Practices के नवीन संस्करण में प्रबन्ध व प्रशासन को समान अर्थों में प्रयुक्त किया है। उनके अनुसार, “प्रबन्ध तथा प्रशासन के मध्य कोई स्पष्ट तथा दृढ़ रेखा खींचना सम्भव नहीं है अतः प्रबन्ध व प्रशासन एक-दूसरे से ओत-प्रोत हैं।” इनके मतानुसार प्रबन्ध व प्रशासन कार्यों को किसी भी संस्था में स्पष्ट रूप से अलग-अलग विभक्त नहीं किया जा सकता अर्थात् चाहे प्रबन्ध को प्रशासन से उच्च या व्यापक माना जाय या प्रशासन को प्रबन्ध से व्यापक, इन दोनों स्तरों पर कार्य करने वाले व्यक्तियों के मध्य स्पष्ट अन्तर- रेखा खींचना सम्भव नहीं है क्योंकि प्रत्येक अधिकारी यदि नीति-निर्धारण का कार्य करते हैं तो उन्हें उसे क्रियान्वित करने का कार्य करना पड़ता है। पीटर एफ. ड्रकर भी इसी मान्यता के हामी हैं। इनके अनुसार, “नियोजन व क्रियान्वयन एक ही कार्य के दो पहलू हैं अतः प्रबन्ध में इन दोनों को अलग-अलग करना खतरनाक है। इस प्रकार पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार नियोजन का उद्देश्य तभी पूरा होता है जबकि उसका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हो । अतः प्रबन्ध में इन दोनों कार्यों में स्पष्ट अन्तर नहीं किया जा सकता। दोनों कार्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं। किम्बाल एवं किम्बाल ने भी कहा है, “प्रबन्ध और प्रशासन पर्यायवाची हैं। इनमें अन्तर करना भ्रमों को निमन्त्रण देना है। ” उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रशासन तथा प्रबन्ध दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं— जहाँ प्रशासन का कार्य नीतियों, उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को निर्धारित करना है, वहीं प्रबन्ध का कार्य इन नीतियों, उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को क्रियान्वित एवं प्राप्त करना है। 

16. प्रबन्ध तथा प्रशासन में क्या अन्तर है? क्या प्रशासन प्रबन्ध का एक अंग है?  अथवा (Or) प्रबन्ध तथा प्रशासन में क्या अन्तर है?

उत्तर-  कुछ लेखक कहते हैं कि प्रबन्ध एवं प्रशासन दोनों एक ही हैं और दोनों शब्दों में कोई अन्तर नहीं है, जबकि अन्य मानते हैं कि दोनों में अन्तर है, वे अलग-अलग कार्य करते हैं। अनेक अन्य हैं, जो मानते हैं कि प्रशासन, प्रबन्ध का एक भाग है। ओलीवर शैल्डर (Oliver Shelder), विलियम आर. स्प्रींगल (William R. Sprigel ), जी. डब्ल्यू. मिल्वर्ड (G. W. Milward) तथा अन्य प्रसिद्ध प्रबन्धकीय विचारकों के अनुसार, दोनों शब्द प्रबन्ध एवं प्रशासन दो अलग-अलग शब्द हैं। उनके अनुसार, प्रशासन प्रबन्ध की अपेक्षा अधिक व्यापक विचार है। यह व्यवसाय की नीतियों एवं उद्देश्यों का निर्माता है। अतः प्रशासन एक सोचने का कार्य है, जबकि प्रबन्ध निम्न स्तर कार्य है जो कि नीतियों के कार्यान्वयन एवं कार्यों को निर्देशित करने से सम्बन्धित है ताकि प्रशासन द्वारा स्थापित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। उपरोक्त आधार पर, प्रबन्ध एवं प्रशासन में निम्न प्रकार से अन्तर स्पष्ट किया जा सकता है-  प्रशासन तथा प्रबन्ध में अन्तर- 

प्रशासन (Administration) :- 

(i) प्रशासन बाहरी घटकों (जैसे- सामूहिक, राजनैतिक अथवा जन साधारण की शक्ति) से अधिक प्रभावित होता है। 

(ii) प्रशासन का मुख्य कार्य संगठन की नीतियों एवं उद्देश्यों का निर्धारण करना होता है।

(iii) प्रशासन उद्योग का स्वामी होता है जो उसे आवश्यक पूँजी प्रदान करके उस पर प्रतिफल के रूप में लाभ प्राप्त करता है। 

(iv) प्रशासन से आशय शीर्ष अथवा सर्वोच्च प्रबन्धकीय स्तर से है

(v) प्रशासन एक निर्णयात्मक कार्य (Determinative Function)  है।

(vi) प्रशासन संस्था के संगठन की संरचना का निर्धारण करता है।  प्रशासन निर्देशन प्रदान करता है।

(vii) प्रशासन में तकनीकी योग्यता की तुलना में प्रशासकीय योग्यता का होना अधिक महत्वपूर्ण होता है।

प्रबन्ध (Management):- 

(i) प्रबन्ध मानव-शक्ति द्वारा अधिक प्रभावित होता है। 

(ii) प्रबन्ध प्रशासन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों एवं नीतियों को क्रियान्वित करता है।

(iii) प्रबन्ध प्रशासन का सेवक होता है जो उसके (प्रशासन) आदेशानुसार कार्य करता है और अपनी सेवाओं के बदले में पारिश्रमिक अथवा लाभ का कुछ भाग प्राप्त करता है।  

(iv) प्रबन्ध से आशय मध्यम एवं निम्न स्तरीय प्रबन्धकीय स्तर से है। प्रबन्ध एक क्रियान्वयन कार्य (Executive Function) है 

(v) प्रबन्ध प्रशासन द्वारा निर्धारित संगठन संरचना की स्थापना करता है।

(vi) प्रबन्ध यह देखता है कि कर्मचारीगण निर्देशन के अनुसार कार्य करें।

(vii) प्रबन्ध में प्रशासकीय योग्यता के साथ-साथ तकनीकी योग्यता का होना भी आवश्यक होता है।

18. “प्रबन्ध कला है अथवा विज्ञान अथवा दोनों।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।अथवा
प्रबन्ध की प्रकृति का वर्णन कीजिए।

उत्तर-  प्रबन्ध की प्रकृति का विवाद कि क्या यह कला है अथवा विज्ञान एक बहुत पुराना विवाद है तथा इसने बड़ी उलझन पैदा कर रखी है। यह तय करने के लिए कि प्रबन्ध कला है अथवा विज्ञान, हमें ‘कला’ तथा ‘विज्ञान’ के अर्थ समझने चाहिये।

प्रबन्ध ‘कला’ के तौर पर – कला, चातुर्य अथवा ज्ञान का प्रयोग किन्हीं परिणामों को प्राप्त करना है। इसके अन्तर्गत किन्हीं निश्चित कार्यों के करने की विधियाँ अथवा तरीके शामिल हैं, जो यह बतलाते हैं कि उद्देश्य को कैसे प्राप्त किया जाता है। कला का कार्य निश्चित परिश्रम द्वारा परिणाम प्राप्त करना अथवा परिवर्तन लाना है। प्रत्येक कला व्यावहारिक होती है तथा किसी वस्तु के निर्माण से सम्बद्ध होती है। कला की निम्नांकित विशेषताएँ हैं-

(1) व्यक्तिगत चातुर्य (Personal Skill) – इस विचार के अनुसार, प्रबन्ध एक कला है क्योंकि इसके द्वारा उद्यम के उद्देश्यों की पूर्ति व्यक्तिगत चातुर्य एवं ज्ञान द्वारा की जाती है। प्रबन्ध मूल रूप से व्यक्तियों से इच्छित परिणाम प्राप्त करने की कला है। अन्य कलाओं की तरह प्रबन्ध व्यक्तिगत है क्योंकि अपनी कला अनुसार विभिन्न प्रबन्धक, समान तकनीकी योग्यता होते हुए भी भिन्न-भिन्न परिणाम प्राप्त करते हैं।

(2) व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowledge ) कला व्यावहारिक ज्ञान है। इसका सम्बन्ध ज्ञान के प्रयोग से है। प्रबन्ध का अर्थ प्रबन्ध के सैद्धान्तिक ज्ञान से नहीं है अपितु यह ज्ञान का प्रयोग है जो इसे प्रभावी एवं उपयोगी बनाता है। जैसे किसी व्यक्ति को संगीतज्ञ नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह संगीतीय यन्त्र न बजाये भले ही वह संगीत की बारीकियाँ जानता हो। इसी प्रकार एक व्यक्ति को प्रबन्धक नहीं कहा जा सकता यदि वह प्रबन्धकीय ज्ञान का प्रयोग प्रबन्धकीय निर्णय लेने में न ला सके, भले ही उसे प्रबन्ध सिद्धान्त रटे हुए क्यों न हों।

(3) परिणामोन्मुख मार्ग (Result-oriented Approach)—प्रबन्ध उद्देश्य प्राप्ति से सम्बद्ध है – इस प्रकार यह परिणाम उन्मुख मार्ग है। प्रबन्ध को सुनिश्चित करना होता है कि परियोजनाएँ समय पर सम्पन्न हों, उत्पादन एवं बिक्री के लक्ष्य प्राप्त हों, विनियोग पर उचित प्रत्याय मिले इत्यादि । प्रबन्ध का लक्ष्य न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करना है।  

(4) नियमित अभ्यास (Regular Practice) – एक कलाकार की तरह प्रबन्ध हमेशा ऊँचे-से-ऊँचे लक्ष्यों को प्राप्त कर, निरपेक्ष पूर्णता के निकट पहुँचना है। इस प्रकार की कुशलता एवं प्रभावशीलता, केवल नियमित अभ्यास द्वारा ही सम्भव है। एक अनुभवी प्रबन्धक न केवल उद्यम को परिवर्तित परिस्थिति अनुसार बदलता है अपितु वह वातावरण को भी इसी अनुरूप बदल देता है। कोई भी अच्छा प्रबन्धक नहीं बन सकता जब तक कि वह निर्णयन एवं नेतृत्व की कला का नियमित अभ्यास न करे।

(5) सृजनशीलता (Creativity) – प्रत्येक कला में सृजनशीलता का तत्व होता है और इस तत्व के अनुसार प्रबन्ध अत्यन्त सृजनशील कला है क्योंकि इसका सम्बन्ध दूसरों को उत्साहित कर उनसे कार्य करवाना है एवं उनकी क्रियाओं में समन्वय स्थापित करना है। पहले जमाने में यह कहा जाता था कि प्रबन्ध न तो वर्गीकृत किया जा सकता है और न ही सम्प्रेषित किया जा सकता है। परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया, यह अनुभव किया जाने लगा कि प्रबन्ध सिद्धान्त वर्गीकृत एवं संप्रेषित किए जा सकते हैं जिन्होंने आगे चलकर प्रबन्ध को विज्ञान स्थान दिलवाया। 

प्रबन्ध एक विज्ञान (Management as a Science ) – विज्ञान का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान । यह ज्ञान की सूत्रबद्ध प्रणाली है, जो मानव द्वारा अवलोकन एवं परीक्षण द्वारा प्राप्त की गई है तथा जिसकी पुष्टि की जा सके। कला एवं ज्ञान मैं मूल अन्तर है। कला से अभिप्राय यह जानना होता है कि कैसे प्रयोग करें, जबकि विज्ञान का अर्थ क्यों जानना है। कीन्स (Keynes) के शब्दों में, “विज्ञान एक सूत्रबन्ध ज्ञान है जो कारण एवं परिणाम में सम्बद्ध स्थापित करे।”
(1) सूत्रबद्ध ज्ञान ( System atised Body of Knowledge ) – प्रबन्ध को विज्ञान के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसे प्रबन्ध के अभ्यासकर्ताओं, विचारकों एवं दार्शनिकों द्वारा एक लम्बे समय तक निर्मित किया। “प्रबन्धकीय विज्ञान, एक सूत्रबद्ध ज्ञान है जिसे प्रबन्ध के साधारण तथ्यों के रूप में संचित एवं स्वीकार किया गया।” प्रबन्धकीय सिद्धान्त अनुभव हेतु वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करते हैं। वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक फ्रेडरिक डब्ल्यू. टेलर (Fredrick W. Taylor), द्वारा नियोजन, संगठन, कार्मिकता, अभिप्रेरणा आदि के अध्ययन ” में वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग किया गया।

(2) निरन्तर अनुभूति ( Continued Observation)—प्रबन्ध के सिद्धान्त निरन्तर अनुभूति पश्चात् विकसित किये गये हैं। एक लम्बी वर्ष अवधि तक सैद्धान्तकों एवं व्यवहारकों द्वारा नितान्त एवं सघन परिश्रम द्वारा प्रबन्धकीय ज्ञान प्राप्त किया गया।

(3) सार्वभौमिक प्रयोग ( Universal Application ) – वैज्ञानिक सिद्धान्त आधारभूत सत्यों को प्रकट करते हैं तथा इन्हें सभी परिस्थितियों एवं सभी कालों में प्रयोग किया जा सकता है, अर्थात् उनकी सार्वभौमिक उपभोगिकता है। प्रबन्ध के क्षेत्र में, ऐसा ज्ञान, साधारण तथ्यों के संदर्भ में संचित एवं स्वीकृत किया गया। प्रबन्ध के कुछ आधारभूत सिद्धान्त हैं जिन्हें सार्वभौमिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है। टेलर (Taylor) के शब्दों में, “प्रबन्ध सिद्धान्त समस्त मानवीय क्रियाओं में, सरलतम मानवीय क्रियाओं से लेकर, हमारे बड़े-बड़े निगमों के संचालन तक उन्हें प्रयोग किया जा सकता है।” 

(4) कारण प्रभाव सम्बन्ध (Cause and Effect Relationship) – वैज्ञानिक सिद्धान्त विभिन्न घटकों के मध्य कारण प्रभाव सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इन्हीं नियमों के प्रबन्धकीय क्रिया में लागू करने पर कारण प्रभाव परिणाम अनुभव किये जा सकते हैं, जैसे- “तुच्छ नियोजन एवं प्लाण्ट आकार द्वारा तुच्छ/ अल्प उत्पादकता उत्पन्न करते हैं।”

(5) वैधता एवं पूर्वानुमानता (Validity and Predictability)—मात्र ज्ञान अथवा तथ्य एकत्रण, विज्ञान नहीं है। केवल जब संकलित तथ्यों की पुष्टि की जाती है, विज्ञान कहलाता है। प्रबन्ध के सिद्धान्तों की वैधता की पुष्टि भी इसी प्रकार की जाती है। इन सिद्धान्तों को अनेक परीक्षणों में उतारा गया तथा उन्हें वैध पाया गया। उदाहरणार्थ, एक अधीनस्थ को एक मालिक के नीचे रखने पर श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त होते हैं, अपेक्षतया जब उसे दो या अधिक मालिकों के अधीन काम करने के लिए कहा जाए। पुनः प्रबन्ध के सिद्धान्त भावी घटनाओं के पूर्वानुमान कारण प्रभाव आधार पर निश्चित किये जा सकते हैं।  

18. प्रबन्ध की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। भारत के आर्थिक विकास में प्रबन्ध के बढ़ते हुए महत्व की विवेचना कीजिए।अथवा (Or) आधुनिक युग में प्रबन्ध के बढ़ते हुए महत्व के कारणों की विवेचना कीजिए।

उत्तर- प्रबन्ध की अवधारणा के लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न संख्या 6 का पहला भाग देखें।

प्रबन्ध की परिभाषा ( Definition of Management ) – प्रबन्ध के विभिन्न लेखकों ने प्रबन्ध शब्द को भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। सम्बोध के आधार पर प्रबन्ध की कुछ एक परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) मेरी पार्कर फॉलैट्टज (Marry Parker Follett) के अनुसार, “प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों से काम लेने की कला है।”

(2) एफ. डब्ल्यू. टेलर (F. W. Taylor) के अनुसार, “प्रबन्ध सर्वप्रथम यह ज्ञात करना है कि आप व्यक्तियों से क्या (कार्य) करवाना चाहते हैं तथा पुनः यह निश्चित करना कि वे किस प्रकार सस्ते एवं श्रेष्ठतम तरीके से करें।”

प्रबन्ध का महत्व (Importance of Management ) – प्रबन्ध न्यूनतम श्रम द्वारा अधिकतम समृद्धि प्राप्त करने की कला है। जहाँ भी सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु, सुगठित व्यक्ति समूह लगे रहते हैं, किसी प्रकार का प्रबन्ध आवश्यक है। पीटर एफ. ड्रकर (Peter F. Drucker) के अनुसार, “प्रबन्ध एक संगठन को गतिशील जीवन देने वाला तत्व है। इसके अभाव में, उत्पादन के साधन केवल साधन बनकर रह जाते हैं, न कि उत्पादन।” इस प्रकार प्रबन्ध के महत्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) न्यूनतम प्रयत्नों द्वारा अधिकतम परिणामों की प्राप्ति के लिए (To obtain Maximum Results with Minimum Efforts)- प्रबन्ध न्यूनतम प्रयत्नों के द्वारा अधिकतम परिणामों की प्राप्ति सम्भव बनाता है। प्रबन्ध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उत्पादन के विभिन्न साधनों में प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित कर न्यूनतम प्रयासों से अधिकतम परिणामों की प्राप्ति सम्भव बनाता है। 

(2) पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना (To obtain pre- determined targets ) – प्रबन्ध अपने विशिष्ट ज्ञान व अनुभव के आधार पर भावी घटनाओं का अनुमान लगाकर नियोजन करते हैं एवं संगठन की संरचना करके विभिन्न क्रियाओं में समन्वय स्थापित करते हैं और इस प्रकार उपक्रम के पूर्व-निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करते हैं। कुशल प्रबन्ध के अभाव में किसी भी उपक्रम के पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

(3) उद्देश्यों का निर्धारण करने के लिए (To Determine Objec tives) – प्रत्येक संस्था की स्थापना कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती है। इन विशेष उद्देश्यों का निर्धारण करना प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है। कुशल प्रबन्ध परिस्थितियों एवं नियमों के अनुसार संस्था के विभिन्न उद्देश्यों तथा आर्थिक, सामाजिक एवं मानवीय आदि का निर्धारण करते हैं। स्पष्ट है कि प्रत्येक संस्था के उद्देश्यों के निर्धारण में प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण स्थान है।

(4) नीतियों का निर्धारण करने के लिए (To determine Poli – cies) — किसी संस्था के उद्देश्यों का निर्धारण करना जितना जरूरी है उससे कहीं अधिक जरूरी इनकी प्राप्ति हेतु सुदृढ़ नीतियों का निर्धारण करना है। नीतियाँ निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु महत्वपूर्ण साधन होती हैं। संस्था की नीतियों के निर्धारण हेतु कुशल प्रबन्ध की आवश्यकता होती है। प्रबन्ध द्वारा प्रारम्भ में आधारभूत नीतियों का निर्माण किया जाता है और बाद में जरूरत के अनुसार विभिन्न नीतियों का निर्धारण किया जाता है।

(5) व्यक्तियों के विकास के लिए (For Development of People ) — प्रबन्ध व्यक्तियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करता है और उनका सर्वांगीण विकास करता है। कुशल प्रबन्ध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति और व्यक्तियों का विकास करने के लिए लक्ष्यों का निर्धारण करते हैं, इनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं, कर्मचारियों की भर्ती एवं उनके प्रशिक्षण इत्यादि की व्यवस्था करते हैं, उनका निर्धारित लक्ष्य की ओर मार्ग प्रशस्त करते हैं, उन्हें प्रबन्ध में एवं लाभ में हिस्सा प्रदान करते हैं और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि व्यक्तियों के विकास में प्रबन्ध का अत्यन्त महत्त्व है।

(6) व्यवसाय में महत्व (Importance in Business) – पीटर एफ. डूकर ने ठीक ही कहा है, “प्रबन्धक प्रत्येक व्यवसाय का गतिशील एवं जीवनदायक तत्व होता है, उसके नेतृत्व के अभाव में उत्पादन के साधन केवल साधन मात्र ही रह जाते हैं, कभी उत्पादन नहीं बन पाते।” अर्थात् प्रबन्ध के अभाव में उत्पादन के साधन भूमि, श्रम व पूँजी निष्क्रिय तथा व्यर्थ हैं और यही कारण है कि व्यवसाय में प्रबन्ध का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। वास्तव में प्रबन्ध उद्योग अथवा व्यवसाय की जीवनदायिनी शक्ति है।

(7) उत्पादन के विभिन्न साधनों में समन्वय स्थापित करने के लिए (To Co-ordinate Different Factors of Production)- उत्पादन के विभिन्न साधन; जैसे- भूमि, श्रम, पूँजी, सामग्री एवं कच्चे माल का कुशल चयन, व्यवस्था तथा समन्वय करके ही कुशल उत्पादन की प्राप्ति की जा सकती है। उत्पादन के विभिन्न साधनों में पारस्परिक समन्वय प्रबन्ध के द्वारा ही किया जाता है। बिना समन्वय के सफल उत्पादन की आकांक्षा करना ही व्यर्थ है। 

18. प्रबन्ध की परिभाषा दीजिए एवं इसकी प्रमुख विशेषताएँ समझाइए ।अथवा (Or) प्रबन्ध की प्रकृति का उल्लेख कीजिए |

उत्तर- प्रबन्ध की अवधारणा (Concept of Management) – विभिन्न विद्वानों ने प्रबन्ध शब्द की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूपों में दी है। परम्परागत अथवा संकुचित अर्थ में, “प्रबन्ध दूसरे व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति है। इस प्रकार वह व्यक्ति जो अन्य व्यक्तियों से कार्य कराने की क्षमता रखता है, प्रबन्धक कहलाता है।” परन्तु आज के युग में प्रबन्ध केवल अन्य लोगों से काम लेने तक ही सीमित नहीं है अपितु उपक्रम में कार्यरत व्यक्तियों के साथ मिलकर कार्य करने एवं कराने की कला है। विस्तृत अर्थ में, “प्रबन्ध शब्द का अर्थ न केवल व्यापार में अपितु सभी प्रकार की क्रियाओं में, जहाँ मानवीय श्रम का प्रयोग होता हैं, किया जाता है।” प्रबन्ध का एक तीसरा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, हैरोल्ड कूण्ट्ज और ओ’ डोनेल ने “प्रबन्ध औपचारिक रूप से समूहों में संगठित मनुष्यों से तथा उनके साथ मिल-जुलकर काम कराने व करने की कला है।”
एडमिन एम. रोबिन्सन के अनुसार, “कोई भी व्यवसाय स्वयं नहीं चल सकता चाहे वह संवेग की स्थिति में ही क्यों न हो। ” प्रबन्ध की विशेषताएँ एवं प्रकृति – प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएँ एवं प्रकृति निम्न हैं-

(1) प्रबन्ध एक प्रक्रिया है (Management is a Process) – प्रबन्ध एक प्रक्रिया है क्योंकि इसके अन्तर्गत अनेक कार्य आते हैं जो उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। यह एक सामाजिक प्रक्रिया है क्योंकि प्रबन्धकीय कार्य मुख्यतया लोगों के मध्य सम्बन्धों से सम्बन्धित हैं। प्रबन्ध एक आर्थिक क्रिया भी है क्योंकि इसमें आर्थिक साधनों का प्रयोग किया जाता है। यह मानवीय क्रियाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

(2) प्रबन्ध एक सामूहिक क्रिया है (Management is a Group Activity) – प्रबन्ध एक सामूहिक क्रिया है। प्रबन्ध हमेशा सामूहिक प्रयासों को महत्व देता है। प्रबन्ध व्यक्तियों का वह समूह है जो किसी संस्था की क्रियाओं का संचालन करता है अर्थात् संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति अनेक व्यक्तियों की सहायता से की जाती है न कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रयत्न से।

(3) प्रबन्ध एक सतत् क्रिया है (Management is a Continuous Activity) – व्यवसाय में निरन्तर समस्याओं का समाधान व सुधार करने की आवश्यकता रहती है। इसी कारण प्रबन्ध को एक सतत् क्रिया कहा जाता है। व्यावसायिक इकाइयों के आकार तथा परिस्थितियों की गतिशीलता के कारण यह क्रिया निरन्तर जटिल होती जा रही है। 

(4) सार्वभौमिक प्रक्रिया (Universal Process) – प्रबन्ध की क्रिया सभी संस्थाओं में चाहे वह व्यावसायिक संस्था हो या सामाजिक, राजनैतिक हो या धार्मिक, समान रूप से सम्पन्न की जाती है। कोई भी संस्था जिसका लक्ष्य सामूहिक प्रयासों में प्राप्त हो, उसे अनिवार्य रूप से अपनी क्रियाओं का नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण करना पड़ता है।

(5) प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों है (Management is an Art as well as Science) – प्रबन्ध कला भी है और विज्ञान भी क्योंकि इसके वैज्ञानिक एवं कलात्मक रूपों को अलग नहीं किया जा सकता है। कला के रूप में प्रबन्ध में व्यावहारिक ज्ञान, निपुणता, रचनात्मक उद्देश्य एवं अभ्यास द्वारा विकास आदि विशेषताएँ हैं और विज्ञान के रूप में कारण और परिणाम का सम्बन्ध, नियमों का परीक्षण, योग्यता व परिणामों का पूर्वानुमान आदि विशेषताएँ हैं। 

(6) प्रबन्ध एक सामाजिक क्रिया है (Management is a Social Process)—प्रबन्ध का मुख्य रूप से सम्बन्ध व्यवसाय के मानवीय पक्ष से होता है। संस्था के सभी कर्मचारी समाज के ही अंग होते हैं। अतः इनका नेतृत्व व निर्देशन सामाजिक क्रिया का ही अंग हुए। वर्तमान में व्यवसाय ने भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को स्वीकार कर लिया है। 

(7) प्रबन्ध एक पेशा है (Management is a Profession)— व्यवसाय की जटिलताओं के कारण किसी भी व्यावसायिक संस्था का प्रबन्ध केवल सामान्य ज्ञान या अनुभव के आधार पर नहीं किया जा सकता अपितु इसके लिये प्रबन्ध शास्त्र का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। प्रबन्ध विज्ञान में विशिष्ट ज्ञान, प्रशिक्षण की सुविधा, सेवा भावना, आचार संहिता एवं विशिष्ट ज्ञान का समुचित उपयोग आदि सभी पेशे की विशेषताएँ पाई जाती हैं। 

(8) प्रबन्ध एक समन्वयकारी शक्ति है (Management is a Creative Function) – प्रबन्ध एक समन्वयकारी शक्ति है। यह शक्तियों के कार्यों में सामंजस्य स्थापित करने, विभिन्न वर्गों के हितों को समन्वित करने एवं संस्था के उद्देश्यों व उपलब्ध संसाधनों के मध्य एकीकरण करने की प्रक्रिया है।

(9) प्रबन्ध एक सृजनशील कार्य है (Management is a Creative Function) – प्रबन्ध समाज में विनियोग, आय, रोजगार एवं नये व्यवसायों में वृद्धि करके धन सम्पदा का निर्माण करता है। इसके द्वारा ही देश में कार्य कौशल, सृजनात्मक विचारों, साहसिक प्रवृत्तियों व व्यावसायिक अभिरुचियों को प्रोत्साहन मिलता है। 

(10) प्रबन्ध की आवश्यकता सभी स्तरों पर होती है (Management is needed at all levels) – संगठन उच्च स्तरीय हो या मध्य स्तरीय अथवा निम्न स्तरीय, प्रबन्ध संगठन के सभी स्तरों पर लागू होता है। 

(11) प्रबन्ध उद्देश्य निर्धारित करता है (Management is to Determine the Object) – प्रबन्ध उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक साधन है, साध्य (End) नहीं है। इसका उद्देश्य सामग्री, श्रम, मशीन, भूमि, समाज एवं सरकार को अपने हित में अधिक उपयोग करके पर्याप्त उत्पादन करना और उत्पादित माल की बिक्री द्वारा अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना होता है। 

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