Eps Class 12 Chapter 5 Subjective in Hindi

12th Entrepreneurship Chapter 5 Subjective : यहाँ आपको class 12th eps chapter 5 Subjective questions मिलेगी  जो  board exam 2022 के लिए important होने वाली है। उपक्रम का चुनाव एवं स्थापना Subjective questions is very important for board exam 2022. eps class 12 chapter 5 subjective question answer in hindi

उपक्रम का चुनाव एवं स्थापना

1. उपक्रम का चुनाव कर लेने के बाद किन बातों पर विचार करना जरूरी होता है?

उत्तर- उपक्रम का चुनाव कर लेने के बाद अब उद्यमी इसे स्थापित करता है। उपक्रम कहाँ स्थापित किया जाये, कैसे और कब स्थापित किया जाये, इन तथ्यों पर विचार के लिए सर्वप्रथम उसे यह सोचना चाहिए कि उपक्रम का आकार क्या हो ? यदि प्रारम्भ में उपक्रम लघुस्तरीय हो तो ठीक रहता है क्योंकि एक तो इसकी स्थापना सुगम होती है तो दूसरे इसको सरकारी रियायतें भी प्राप्त हो जाती हैं।

2. एक उद्योग आरम्भ करने से पहले के कुछ चरणों को लिखिए।

उत्तर- उद्यमी की व्यवसाय योजना के विभिन्न चरण निम्न प्रकार हैं-

1. उत्पाद चयन

2. स्वामित्व के प्रारूप का चयन

3. उद्योग के स्थान का चयन

4. पूँजी का ढाँचा (Structure of Capital)

3. उपक्रम की स्थापना में रणनीति का क्या आशय है?

उत्तर- रणनीति की महत्ता को स्वीकार करते हुए बिल बोल्टन एवं जॉन थॉम्पसन का कहना है कि रणनीतियाँ वे हैं जिन्हें उपक्रम करती हैं, यह वैसी राह है जिस पर वह चलती है तथा यह वह निर्णय है जिसके द्वारा वह सफलता के एक निश्चित स्तर तक पहुँचती है।

4. व्यवसाय के विस्तार से जुड़ी हुई किन्हीं दो समस्याओं को बतायें।

उत्तर- व्यवसाय के विस्तार से जुड़ी दो समस्याएँ इस प्रकार हैं-

(1) जोखिम प्रबन्ध (Risk Management ) – व्यवसाय के विस्तार में अनेक प्रकार की जोखिम जैसे माँग परिवर्तन, उपभोक्ता की रुचि आदि विद्यमान होती हैं। यद्यपि उपक्रम का विस्तार, विकास की एक सहज प्रक्रिया है, किन्तु इसकी जोखिमों का उचित प्रबन्ध न किये जाने पर इसकी सफलता संदिग्ध हो जाती है।

(2) विकास पूँजी की आवश्यकता (Requirement of Growth’ Capital) – व्यवसाय के विस्तार में संसाधनों की मात्रा बढ़ जाती है। उद्यमी को अधिक मात्रा में कच्चे माल, यन्त्र- मशीनें, तकनीकी सेवाएँ, मरम्मत, साजो-सामान की आवश्यकता होती है उसे विकास की अनेक योजनाओं को पूरा करना होता है। व्यवसाय के विस्तार में आधुनिकीकरण एवं अनेक परिवर्तन निहित होते हैं। इन सब कार्यों के लिए उद्यमी को ‘विकास’ पूँजी की व्यवस्था करनी होती है।

5. किसी व्यवसाय के विस्तार को विकास पूँजी की आवश्यकता किस प्रकार प्रभावित करती है?

उत्तर- व्यवसाय का विस्तार करने के लिए उद्यमी को कच्चे माल, यन्त्र व मशीनें, तकनीकी सेवाएँ, मरम्मत, साजो-सामान इत्यादि की आवश्यकता होती है उसे विकास की अनेक योजनाओं को पूरा करना होता है। व्यवसाय के विस्तार में आधुनिकीकरण एवं अनेक परिवर्तन निहित होते हैं। इन सभी कार्यों के लिए उद्यमी को ‘विकास पूँजी’ की व्यवस्था करनी होती है। इस पूँजी को प्राप्त करने का सबसे मितव्ययी एवं सरल साधन अपने संसाधनों के पुनर्विनियोजन पर होने वाली आय है किन्तु उद्यमी आवश्यकतानुसार वित्तीय संस्थाओं से भी ऋण आदि प्राप्त कर सकता है।

6. व्यवसाय की सामान्य योजना का निर्माण आप कैसे करेंगे ?

उत्तर- व्यवसाय की समग्र योजना का निर्माण करने से पूर्व एक उद्यमी को उत्पादन नियोजन, संयंत्र, लागत, नियोजन, वित्तीय नियोजन, संगठनात्मक नियोजन एवं विपणन नियोजन पर विचार करना चाहिए।

7. एक व्यावसायिक उपक्रम की संवृद्धि के मुख्य चरण बताइये।

उत्तर- प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम का अपना जीवन चक्र होता है।

व्यावसायिक संवृद्धि के मुख्यतः निम्न चार चरण है- 1. भूमिका, 2. विकास 3 स्थायित्व, 4. गिरावट।

8. उपक्रम स्थापना को क्रियान्वयन करने के किन्हीं दो चरणों को लिखें।

उत्तर- एक उपक्रम स्थापित करने के लिए कई क्रियाओं का समन्वय करना पड़ता है जिसे हम विभिन्न चरणों का नाम दे सकते हैं- (1) उद्यमितीय कार्य का चयन। (2) पूँजी प्राप्त करना और इसका उचित निवेश। (3) वस्तु एवं सेवाओं का उत्पादन एवं वितरण। (4) लाभ प्राप्त करना व लाभ अर्जन करना । (5) बचत संसाधनों का विस्तार कार्यों में उपयोग करना।

9. व्यवसाय के विस्तार पर एक संक्षिप्त लेख लिखें।

उत्तर- एक उपक्रम में उद्यमी के निजी संसाधनों के साथ-साथ समाज का धन भी लगा होता है। अतः एक उद्यमी के लिए मात्र व्यवसाय का संचालन करते रहना ही पर्याप्त नहीं है वरन् व्यवसाय का लाभप्रद विस्तार भी किया जाना आवाश्यक है। प्रत्येक उपक्रम को विकासशील होना चाहिए ताकि विद्यमान संसाधनों का अधिकाधिक उत्पादक उपयोग हो सके तथा पूँजी निर्माण में वृद्धि हो। व्यवसाय का विस्तार न केवल उद्यमी के ही हित में होता है वरन् आय, रोजगार, धन-सम्पदा, पूँजी निर्माण, बचत, उत्पादन में वृद्धि हो जाने से सम्पूर्ण समाज लाभान्वित होता है। अत: उद्यमी को सदैव अपने व्यवसाय के विकास एवं विस्तार की नीति का पालन करना चाहिए।

10. उपक्रम स्थापना को क्रियान्वित करने के किन्हीं दो चरणों की व्याख्या करें।

उत्तर- (1) स्थान व्यवस्थित करना (Arranging the Site ) – उपक्रम जिस स्थान पर स्थापित होनी है, वहाँ उन सारी सुविधाओं को व्यवस्थित कर लेना चाहिए जो उपक्रम के लिए आवश्यक हैं। जैसे इस स्थान तक पहुँचने के लिए आवागमन की व्यवस्था, बिजली, पानी आदि की व्यवस्था कर लेनी होगी।

(2) भवन निर्माण (Construction of Building) – उपक्रम के लिए कभी-कभी औद्योगिक क्षेत्र (Industrial area) में सरकार द्वारा ही स्थान एवं भवन प्रदान की जाती है जिसके लिए किराया (Rent) लिया जाता है। यदि ऐसा नहीं है तो निजी एजेंसी (Private agency) से भी अपनी आवश्यकतानुसार जगह और भवन भाड़े पर लिया जा सकता है। यह भी सम्भव नहीं हो तो जमीन •खरीद कर स्वयं भवन का निर्माण किया जा सकता है।

11. प्रोजेक्ट रिपोर्ट क्यों आवश्यक है?

उत्तर- प्रोजेक्ट प्रतिवेदन (Project Report ) – सभी तथ्यों का विस्तृत विश्लेषण करते हुए एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार कर लेनी चाहिए। इस रिपोर्ट में भावी उपक्रम का सारा विवरण समाहित होगा। इस रिपोर्ट को एक आवेदन-पत्र के साथ सरकार के उद्योग विभाग में पंजीकरण (Registration) के लिए जमा किया जाना चाहिए। यह विभाग इस रिपोर्ट के आधार पर उपक्रम का अस्थायी पंजीकरण करके इसे स्थापित करने का आदेश दे देता है, साथ ही उपक्रम की प्रकृति के अनुसार कई तरह की सुविधाएँ भी रियायतों (Concession) के साथ प्रदान करता है।

12. उपक्रम स्थापना से पूर्व ध्यान देने योग्य कोई दो घटकों के नाम बतायें।

उत्तर- (1) श्रम (Men) – उत्पादन के समस्त साधनों में श्रम ही एक सक्रिय साधन है जो अन्य सभी साधनों को क्रियाशील बनाकर किसी भी अनुपयोगी चीज को उपयोगी बना देता है। अतः अच्छी श्रम शक्ति के आधार पर ही उपक्रम की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है। उपक्रम को चलाने के लिए कुशल (Skilled) तथा अकुशल (Unskilled) दोनों तरह के श्रम की जरूरत होती है। फिर इन श्रमिकों से उचित काम लेने के लिए प्रबंधकीय कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। अतः उपक्रम में श्रम शक्ति योजना तैयार करके योग्य प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति पहले कर लेनी चाहिये जो उपक्रम के प्लांट मशीन को ठीक से चला सके। उपक्रम के लिए सही प्रकार के व्यक्तियों का चुनाव करना आवश्यक है नहीं तो समय, श्रम और धन की बर्बादी होगी। समय-समय पर कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और अभिप्रेरित (Motivate) करते रहने की योजना भी बना लेनी चाहिये।

(2) कच्चा माल (Raw Material)- यदि उपक्रम उत्पादन से सम्बन्धित है तो स्थापना से पूर्व कच्चे माल (Raw Materials) की उपलब्धता, किस्म, मूल्य, आपूर्ति की निरन्तरता आदि पर विचार करें, इसकी व्यवस्था कर लेनी चाहिये। कच्चे माल के अभाव में उत्पादन की सारी प्रक्रिया उप्प हो जायेगी।

13. रणनीति को परिभाषित करें।

उत्तर- रणनीति की महत्ता को स्वीकार करते हुए बिल बोल्टन एवं जॉन थॉम्पसन का कहना है कि रणनीतियाँ वे हैं जिन्हें उपक्रम तैयार करती है, यह वैसी राह है जिस पर वह चलती है तथा यह वह निर्णय है जिसके द्वारा यह सफलता के एक निश्चित स्तर तक पहुँचती है।

14. किसी उपक्रम के जन्म लेने में कौन सी दो शक्तियाँ कार्य करती हैं? “अथवा” किसी उपक्रम के जन्म लेने में कौन-से दो कारक कार्य करते हैं?

उत्तर- किसी भी उपक्रम के जन्म लेने में दो शक्तियाँ (Forces) ठीक उसी तरह कार्य करती हैं जैसे बच्चे के जन्म लेने में उसके माता और पिता । जब साहसी की योग्यता, क्षमता, ज्ञान एवं सृजनशीलता की शक्ति बाजार की वर्तमान अवस्था से सन्तुलित हो जाती है तो नये उपक्रम का जन्म औद्योगिक एवं व्यापारिक जगत में हो जाता है।

15. उपक्रम के चुनाव में सरकारी नियमन की क्या भूमिका?

उत्तर- प्रायः प्रत्येक उद्योग व्यापार को स्थानीय एवं सरकारी नियमों का पालन करना पड़ता है। सरकारी नियमन कुछ तो व्यवसाय के आकार के अनुसार लागू होते हैं तो कुछ स्वामित्व के आधार पर उदाहरणतः एकाकी व्यापार और साझेदारी चूँकि छोटे आकार वाले उपक्रम के लिये होते हैं जिसके चलते इन पर सरकारी नियन्त्रण की मात्रा कुछ कम होती है, जबकि कम्पनी प्रारूप वाले उपक्रम बड़े पैमाने के होने के कारण अत्यधिक कानूनी अड़चनों से बँधे होते हैं। इनका प्रत्येक कार्य-कलाप कम्पनी अधिनियम की व्यवस्थाओं के अनुसार चलता है।

16. उपक्रम के चुनाव में साहसी किन दो महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देगा ?

उत्तर- (1) स्थापना में आसानी (Easy Formation ) – यदि कोई उपक्रम जल्द और आसानी से स्थापित करना हो तो एकाकी व्यापार ठीक रहता है। साझेदारी फर्म स्थापित करने के लिए समान मानसिक विचारधारा वाले अन्य साझेदारों को लेना पड़ता है। सहकारी समिति या संयुक्त पूजी वाली कम्पनी स्थापित करने के लिए अनेक वैधानिक औपचारिकताओं (Formalities) का पालन करते हुए इसका पंजीकरण (Registration) कराना पड़ता है। अतः साहसी को सोच-विचारकर किसी एक का चुनाव करना चाहिये क्योंकि सभी स्वरूपों के अपने-अपने गुण-दोष होते हैं।

(2) व्यावसायिक क्रिया का प्रकार (Type of Business Acti- vity)- साहसी को अपनी व्यावसायिक क्रिया के अनुरूप ही उपक्रम का चुनाव करना चाहिये। यदि व्यापार छोटे स्तर का या व्यक्तिगत सेवा, जैसे-नाई, दर्जी, जौहरी आदि से सम्बन्धित हो तो एकाकी व्यापार का चयन किया जाना चाहिये। यदि व्यापारबड़े पैमाने पर या निर्माण आदि से जुड़ा हो तो साझेदारी या कम्पनी उपक्रम ठीक रहेगा।

17. क्या एक उद्यमी परिवर्तन का प्रतिनिधि होता है?

उत्तर- हाँ, एक उद्यमी परिवर्तन का प्रतिनिधि होता है। लगातार शोधकार्य, विकास क्रियाओं पर संस्था में आविष्कार को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आविष्कार बाजार में पूर्णतया की स्थिति सृजित करता है जिससे बिक्री एवं लाभ दोनों में वृद्धि होती है।

18. किसी नये उपक्रम की स्थापना की प्रक्रिया कब प्रारम्भ होती है?

उत्तर- किसी नये उपक्रम की स्थापना की प्रक्रिया उसी समय प्रारम्भ हो जाती है जब उद्यमी में कोई व्यवहार्य विचार उत्पन्न हो जाता है। उसे चाहिए कि वह व्यवसाय को लाभदायकता का विश्लेषण कर ले एवं व्यवसाय में सन्निहित जोखिम एवं आवश्यक पूँजी इत्यादि का भी विश्लेषण कर ले तभी उपक्रम की स्थापना करे।

19. आप किस प्रकार व्यवसाय की सामान्य योजना का निर्माण करेंगे ?

उत्तर-व्यवसाय की सामान्य योजना का निर्माण निम्न प्रकार किया जा सकता है-

1. उत्पाद नियोजन (Product Planning) प्रस्तावित वस्तु के सम्बन्ध में योजना बनाते समय निम्नांकित बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए (i) वस्तु में टिकाऊपन, सरल उपयोग विधि हिस्से पुर्जों की सहज उपलब्धता आदि । (ii) वस्तु की आकर्षक डिजाइन, आकार एवं श्रेष्ठ किस्म (iii) वस्तु के हिस्से जों, संघटकों व अन्तः संयोजनों के उत्पादन की योजना (iv) वस्तु का आकर्षक नाम, ब्राण्ड, लेबल एवं उत्तम पैकेजिंग (v) उपयुक्त मूल्य जो कि वस्तु की माँग, प्रतियोगिता, उपभोक्ता की देय क्षमता, सरकारी आदि के सन्दर्भ में न्यायोचित हो।

2. संयन्त्र एवं उत्पादन नियोजन (Plant and Production Planning) वस्तु की डिजाइन व अन्य सम्बन्धित तत्वों की योजना बन जाने के बाद संयन्त्र व उत्पादन प्रक्रिया के सम्बन्ध में योजना तैयार की जाती है। इसके प्रमुख अंग निम्न प्रकार हैं–  (i) संबन्ध स्थल (Plant Location )  संयन्त्र के क्षेत्र व स्थान का चुनाव अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है संयन्त्र कहाँ स्थापित किया जाए, यह निर्णय कई घटकों पर निर्भर करता है; जैसे कच्चा माल, श्रम, ईंधन, जल व शक्ति की सुलभता, बैंक, परिवहन व संचार सुविधा, बाजार की समीपता, सहायक उद्योगों की उपस्थिति आदि आज प्रत्येक राज्य में उद्योग-धन्धों के विकास के में रखनी चाहिए- लिए सरकार द्वारा अनेक सुविधाएँ तथा छूट दी जाती है जैसे- औद्योगिक बस्तियों में सस्ती भूमि, शेड्स, सस्ती बिजली, करों में छूट, वित्तीय अनुदान इत्यादि । अत: उद्यमी को प्लान्ट स्थल का चुनाव करते समय इन सुविधाओं को ध्यान में रखकर लेना चाहिए।

(ii) संयन्त्र अभिन्यास (Plant Layout) – संयन्त्र अभिन्यास यन्त्रों, प्रविधियों एवं अन्य सेवाओं को व्यवस्थित करने की योजना है। उद्यमी को अपने प्रतिफल नहीं दे सकेगी। उपक्रम की श्रेष्ठ अभिन्यास योजना तैयार करनी चाहिए ताकि न्यूनतम लागत एवं अपव्ययों के साथ अधिकतम उत्पादन किया जा सके। यदि अभिन्यास की चक्रों के उतार चढ़ावों का डटकर सामना कर सके। योजना पर उचित ढंग से विचार नहीं किया गया तो कार्यकुशलता में कमी आ जाएगी तथा उत्पादन में अधिक समय बर्बाद होगा। इसके निर्माण में औद्योगिक इन्जीनियरों की सेवाएँ प्राप्त की जा सकती हैं।

(iii) उत्पादन प्रणाली (Production System) – उत्पादन प्रणाली की योजना के अन्तर्गत उत्पादन विधि एवं क्रियाओं का चुनाव करना है। उत्पाद विधि का चयन कई बातों पर निर्भर करता है, जैसे वस्तु की प्रकृति, उत्पादन का आकार, मशीनों का प्रयोग, तकनीकी ज्ञान आदि उत्पादन प्रणाली वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण होनी चाहिए।

3. लागत नियोजन (Cost Planning) – उत्पादन योजना तैयार हो जाने के पश्चात् उत्पादन लागत के प्रारम्भिक अनुमान तैयार किये जाते हैं। वस्तु की निर्माण लागत निकालने के लिए कच्चे माल, मजदूरी, प्रत्यक्ष खर्चे, कारखाने की लागत, कार्यालय व बिक्री की लागत आदि के अनुमान लगाए जाते हैं। इन विभिन्न खचों के अनुमानों को जोड़कर वस्तु की निर्माण लागत ज्ञात की जाती है। लागत नियोजन के अन्तर्गत लागत नियन्त्रण को विभिन्न विधियों का निवारण भी आवश्यक है। प्रतिस्पद्धों को देखते हुए वस्तु की लागत क्या रहनी चाहिए. उत्पादन का पैमाना कितना होना चाहिए आदि बातों पर भी विचार किया जाता है। लागत प्रमाप निर्धारित किए जाते हैं। लागत योजना द्वारा उद्यमी यह मालूम कर सकता है कि उसकी वस्तु का उचित मूल्य क्या हो सकता है, भिन्न-भिन्न मूल्यों पर संस्था को कितना लाभ होगा तथा किस स्तर पर लागत नियन्त्रण की आवश्यकता होगी। इस योजना को लागत लेखाकारों व इंजीनियरों की सहायता से तैयार किया जाना चाहिए।

4. वित्तीय योजना (Financial Planning)- औद्योगिक उपक्रम की सफलता बहुत कुछ सीमा तक पूँजी के कुशल प्रबन्ध पर निर्भर करती है। अतः उद्यमी को आवश्यक पूँजी की मात्रा एवं उसका स्वरूप तय करने के लिए एक वित्तीय योजना बनानी होती है। इस योजना के अन्तर्गत निम्नलिखित तीन बातों के सम्बन्ध में निर्णय लिए जाते हैं-

(i) पूँजी की मात्रा का अनुमान (Estimate of Capital Require [ments) – सामान्यतया एक नये व्यवसाय के लिए दो प्रकार की पूँजी की आवश्यकता होती है- 1. स्थायी पूँजी (Fixed Capital) तथा 2. कार्यशील पूँजी (Working Capital) स्थायी पूंजी की आवश्यकता स्थायी सम्पत्तियों जैसे-भूमि, मशीन, प्लान्ट, फर्नीचर आदि के क्रम में होती है। इन सबकी आवश्यकताओं को जानकर ही स्थायी पूँजी का अनुमान किया जा सकता है। उद्यमी की दिन प्रतिदिन की आवश्यकताओं के लिए कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करनी होती है; जैसे कच्चा माल खरीदने, मजदूरी चुकाने, उपरिव्ययों का भुगतान करने, वस्तुओं की बिक्री के लिए किए गए खर्च आदि के लिए यह आवश्यक होती है। इसका अनुमान उद्योग की प्रकृति, कच्चे माल की खरीददारी, उधार बिक्री, उत्पादन की गति, वस्तु की माँग, आर्थिक उतार-चढ़ाव आदि को ध्यान में रखकर किया जाता है।

(ii) पूँजी संरचना (Capital Structure)- इसका तात्पर्य यह निर्धारित करना है कि कुल पूँजी का कितना भाग अंश जारी करके एकत्रित किया जाए तथा कितना ऋण लेकर संस्था की पूँजी संरचना में स्वामित्व पूंजी और ऋण में उपयुक्त सन्तुलन रहना चाहिए क्योंकि इस अनुपात का संस्था की वित्तीय सुदृढ़ता पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वित्तीय नियोजन करते समय उद्यमी को कई बातें ध्यान रखनी चाहिए

(1) स्थायी पूँजी, जहाँ तक सम्भव हो, केवल दीर्घकालीन स्रोतों…जैसे-स्वामित्व पूँजी स्रोत, ऋणपत्र निर्गमन आदि से ही प्राप्त की जानी चाहिए। (2) उद्यमी को अपने व्यवसाय की आवश्यकताओं के अनुरूप ही पूँजी एकत्रित करनी चाहिए। लाभ क्षमता से ज्यादा पूँजी एकत्रित करने पर संस्था का पूँजी ढाँचा अति पूँजीकृत हो जाएगा और वह अपने पूँजीदाताओं को उपयुक्त प्रतिफल नहीं दे सकेगी | (3) पूँजी योजना में पर्याप्त लोच रहनी चाहिए, ताकि संस्था व्यावसायिक चक्रों के उतार-चढ़ावों का डटकर सामना कर सके |

5. संगठनात्मक नियोजन (Organisational Planning) – संगठनात्मक नियोजन के अन्तर्गत उद्यमी अपनी संस्था के संगठन ढाँचे के बारे में महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं। इसमें संस्था के प्रबन्ध ढाँचे अर्थात् कार्यकारी अधिकारियों की संख्या, स्थिति, पद, अधिकार, उत्तरदायित्व, पारस्परिक सम्बन्ध आदि घटकों पर विचार करके संगठन संरचना तैयार की जाती है। कर्मचारियों का पारिश्रमिक कितना होगा, विक्रय प्रतिनिधियों की नियुक्ति का स्वरूप क्या होगा आदि बातों पर विचार करना संगठनात्मक नियोजन के लिए आवश्यक है।

6. विपणन नियोजन (Marketing Planning) – विपणन नियोजन संस्था के समग्र नियोजन का एक ही भाग है। उत्पादन का विक्रय के साथ तालमेल बना रहना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अन्तर्गत निम्न पहलुओं के सम्बन्ध में निर्णय लिए जाते हैं-

(i) भौतिक वितरण (Physical Distribution) – माल के वितरण के लिए उद्यमी किन श्रृंखलाओं का उपयोग करेगा, मध्यस्थों का कमीशन क्या होगा, विक्रय की शर्तें क्या होंगी आदि बातों पर भी विचार किया जाता है।

(ii) मूल्य (Price ) – वस्तु की कीमत का उचित निर्धारण आवश्यक है। मूल्य का प्रतिस्पद्धत्मिक होना आवश्यक है। मूल्यों की गणना में सभी विक्रय खचों एवं वस्तु की लागत के अतिरिक्त उचित मार्जिन का आधार रखा जाता है।

(iii) विक्रय संबर्द्धन (Sales Promotion ) – वस्तुओं के सफल विक्रय के लिए कुशल विक्रयकर्ताओं की भर्ती, विज्ञापन एवं बिक्री बढ़ाने के अन्य उपायों पर विचार किया जाता है।

उपर्युक्त घटकों के अतिरिक्त वस्तु के पैकेजिंग, नाम, ब्राण्ड आदि निर्धारण पर भी विचार किया जाता है विपणन योजना बनाते समय उद्यमी को ग्राहकों की स्थिति, क्रय शक्ति, क्रय व्यवहार, विशिष्ट आदतों आदि पर ध्यान देना चाहिए।

20. किसी व्यावसायिक उद्यम के विस्तार में किन समस्याओं पर ध्यान देना आवश्यक होता है? बताइये

उत्तर- 1. जोखिम प्रबन्ध (Risk Management ) – व्यवसाय के विस्तार में अनेक प्रकार की जोखिमें; जैसे- माँग परिवर्तन, उपभोक्ता की रुचि, फैशन, आदतों में बदलाव, विकास लागतों की वसूली, साधनों की अप्रयुक्त क्षमता आदि विद्यमान होती हैं। यद्यपि उपक्रम का विस्तार, विकास की एक सहज प्रक्रिया है किन्तु इसकी जोखिमों का उचित प्रबन्ध न किये जाने पर इसकी सफलता संदिग्ध हो जाती है। कुछ जोखिमों के प्रति तो बीमा द्वारा सुरक्षा प्राप्त की जा सकती है किन्तु कई जोखिम संकटों (Hazards) का पूर्वानुमान करके उनसे सुरक्षा के लिए प्रभावी उपाय किये जा सकते हैं।

2. विकास पूँजी की आवश्यकता (Requirement of Growth Capital) – व्यवसाय के विस्तार में संसाधनों की मात्रा बढ़ जाती है उद्यमी को अधिक मात्रा में कच्चे माल, यन्त्र- मशीनें, तकनीकी सेवाएँ, मरम्मत, साजो-सामान की आवश्यकता होती है। उसे विकास की अनेक योजनाओं को पूरा करना होता है। व्यवसाय के विस्तार में आधुनिकीकरण एवं अनेक परिवर्तन निहित होते है। इन सब कार्यों के लिए उद्यमी को विकास पूँजी की व्यवस्था करनी होती है। इस पूँजी को प्राप्त करने का सबसे मितव्ययी एवं सरल साधन अपने संसाधनों के पुनर्विनियोजन पर होने वाली आय है कि उद्यमी आवश्यकतानुसार वित्तीय संस्थाओं से भी ऋण आदि प्राप्त कर सकता है।

3. मूल्य नीति ( Price Policy) एक विकासशील व्यवसाय को अपनी मूल्य नीति का समय-समय पर मूल्यांकन करते रहना चाहिये। यद्यपि ‘लाभ के लिए कीमत निर्धारण’ (Pricing for Profit) का लक्ष्य उचित है, फिर भी उद्यमी को अनेक घटकों, जैसे-प्रतिद्वन्द्वियों की सम्भावित प्रतिक्रिया, वैधानिक सीमायें, ग्राहक प्रतिक्रिया, सामाजिक लक्ष्य, उपभोक्ता आकांक्षायें, भावी विकास आदि पर पर्याप्त रूप से विचार करके ही अपने उत्पादों का मूल्य निर्धारित करना चाहिए। प्रत्येक फर्म की बाजार में कीमत प्रतिष्ठा’ (Price Reputation) बनी होती है। व्यवसाय के विकास एवं विस्तार के साथ यह धूमिल नहीं होना चाहिए। उद्यमी कोगैर-कीमत प्रतिस्पर्द्धा (Non-price Competition) पर भी ध्यान देना चाहिए।

4. प्रभावी प्रबन्ध योग्यता (Effective Management Talent ) – व्यवसाय की क्रियाओं का विस्तार होने पर उद्यमी को अधिक योग्य तकनीकी विशेषज्ञों एवं प्रशिक्षित प्रबन्धक की सेवाओं की आवश्यकता होती है। उत्पादन की जटिलताओं को समझने व संगठनात्मक समस्याओं का उपयुक्त विश्लेषण करने के लिए उच्च प्रबन्धकीय कौशल आवश्यक होता है। उत्पादन व प्रबन्ध के क्षेत्र में नवीनतम परिवर्तनों व तकनीकों का प्रशिक्षण प्रदान करके ही प्रबन्ध दल की प्रवीणता में वृद्धि की जा सकती है। विकसित व्यवसाय की क्रियाओं के सफल संचालन के लिए उच्च नेतृत्व गुण का होना भी आवश्यक है।

5. विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन (Advertising and Sales Promotion) – विकसित व्यवसाय को अपने विज्ञापन एवं विक्रय सम्बर्द्धन अभियान पर भी निरन्तर ध्यान देना होता है। फर्म को अपने सम्भावित ग्राहकों को परिभाषित करना चाहिए। ग्राहकों की रुचियों, क्रय व्यवहार, अभिप्रेरणाओं, मनोवैज्ञानिक धारणाओं आदि को ध्यान में रखकर ही विक्रय वृद्धि की योजनाएँ संचालित की जानी चाहिए।

6. लाभ नियोजन एवं व्यय नियन्त्रण (Profit Planning and Expense Control)- अपनी क्रियाओं का विस्तार करते समय उद्यमी को लाभ एवं व्ययों के सम्बन्ध में एक उपयुक्त योजना बनानी चाहिए। उद्यमी की लाभ अर्जित करने की क्षमता पर विक्रय की मात्रा एवं लागतों का गहरा प्रभाव पड़ता है। उसे लागत मात्रा – लाभ (Cost Volume-Profit) का विश्लेषण करके व्यवसाय की लाभ-अर्जन करने की क्षमता का मूल्यांकन करते रहना चाहिए। हानियों से बचने के लिए न्यूनतम विक्रय की मात्रा ज्ञात की जानी चाहिए।

7. नवप्रवर्तनकारी अभिवृत्ति (Innovating Attitude) – व्यवसाय के विस्तार का केवल परिमाणात्मक पहलू ही नहीं होता। वास्तव में तो व्यवसाय का विकास उत्पाद विविधीकरण (Product Diversification) एवं नवप्रवर्तन के कार्यों में ही निहित होता है। उद्यमी को सदैव नवीन परिवर्तनों, नवीन तकनीकों व नवीन अनुसन्धानों की और ध्यान देकर व्यवसाय में नवीनता लानी चाहिए।

8.संयन्त्र अभिन्यास (Plant Layout) – व्यवसाय का विस्तार होने पर संयन्त्र की उत्पादन क्षमता में भी वृद्धि होती है। नई मशीनों व नये उपकरणों को स्थापित किया जाता है। उत्पाद डिजाइन एवं उत्पादन प्रक्रिया में भी परिवर्तन किये जा सकते हैं। संयन्त्र अभिन्यास में इन परिवर्तनों को आसानी से समायोजित करने की क्षमता होनी चाहिए अर्थात् वस्तुओं की माँग बढ़ने पर संयन्त्र की उत्पादन क्षमता का विस्तार आसानी से किया जाना सम्भव हो।

9. सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति (Fulfilment of Social Goals) – व्यवसाय का विकास एवं विस्तार सामाजिक लक्ष्यों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उद्यमी को अपनी व्यावसायिक शक्ति का सामाजिक हित में प्रयोग करना चाहिये। समाज के प्रत्येक वर्ग चाहे वह उपभोक्ता हो अथवा सरकार, श्रमिक हो या विनियोगकता के हितों की अभिवृद्धि का लक्ष्य व्यवसाय के विस्तार का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिये। शोषणकारी एवं समाज विरोधी कार्य एक विकासशील व्यवसाय की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है।

21. उपक्रम स्थापना का क्रियान्वयन आप कैसे करेंगे ?

उत्तर- अस्थायी पंजीकरण हो जाने के बाद अब साहसी उपक्रम स्थापना के व्यावहारिक कार्य में लग जाता है। इस दिशा में वह निम्नांकित मुख्य कार्य करता है-

(1) स्थान व्यवस्थित करना (Arranging the Site ) – उपक्रम जिस स्थान पर स्थापित होती है, वहाँ उन सारी सुविधाओं को व्यवस्थित कर लेना चाहिये जो उपक्रम के लिए आवश्यक हैं। जैसे- इस स्थान तक पहुँचने के लिए आवागमन की व्यवस्था, बिजली, पानी आदि की व्यवस्था कर लेनी होगी।

(2) भवन निर्माण (Construction of Building) – उपक्रम के लिये कभी-कभी औद्योगिक क्षेत्र (Industrial area) में सरकार द्वारा ही स्थान एवं भवन प्रदान की जाती है जिसके लिये किराया (Rent) लिया जाता है। यदि ऐसा नहीं है तो निजी एजेंसी (Private agency) से भी अपनी आवश्यकतानुसार जगह और भवन भाड़े पर लिया जा सकता है। यह भी सम्भव नहीं हो तो जमीन खरीदकर स्वयं भवन का निर्माण किया जा सकता है।

(3) मशीन एवं यंत्र की स्थापना (Setting of Machines and Equipments) – मशीन एवं यंत्र की खरीद सावधानीपूर्वक करनी चाहिये और आरम्भ में इसकी स्थापना विक्रेता कम्पनी (Vendor company) की देखरेख में ही की जानी चाहिये ताकि उपक्रम के कर्मचारी इसे देख-समझ सकें फिर इसके संचालन तक उक्त कम्पनी के प्रतिनिधि को रोके रखना चाहिये जिससे कि किसी भी गड़बड़ी को तुरन्त ठीक किया जा सके। यदि किसी मशीन की प्रकृति ऐसी है कि उसे वातानुकूल अवस्था में रखना अनिवार्य है तो इसके लिए वातानुकूल (Air conditioned) भवन का निर्माण किया जाना चाहिये ।

(4) जाँच उत्पादन (Trial Production ) – संयंत्र स्थापित हो जाने के बाद थोड़े कच्चे माल से उत्पादन की प्रक्रिया आरम्भ कर देनी चाहिये और देखना चाहिये कि इसमें क्या कमीवेशी रह गयी है। ऐसा कर लेने से तैयार उत्पादन को बाजार में भेजने से पहले उसकी जाँच हो जाती है। यदि कोई सुधारात्मक उपाय की आवश्यकता हुई तो यह भी सम्भव हो पाता है।

(5) पैकिंग एवं वितरण व्यवस्था (Packing and Distribution Arrangement ) – जाँच उत्पादन के बाद साहसी देखता है कि सब कुछ ठीक-ठाक (Upto mark ) है तो विधिवत् सामान्य उत्पादन प्रक्रिया चालू कर दी जाती है। इस तैयार उत्पाद की पैकिंग व्यवस्था ठीक से करके इसके वितरण की कार्यवाही की जाती है। इसके लिए पहले से सुनिश्चित मार्ग अपनाये जाते हैं। माल किसी थोक व्यापारी के हाथ सौंपना है, एजेंट को सौंपना है या खुदरा व्यापारी को या स्वयं सीधे उपभोक्ता तक पहुँचाना है-इन बातों का निर्णय साहसी अपनी सुविधानुसार पहले से ही कर लेता है।

(6) बाजार में प्रवेश (Entry into the Market) – पैकिंग और वितरण व्यवस्था दुरुस्त कर लेने के बाद अब साहसी का उत्पाद बाजार में दाखिला ले लेता है जहाँ उसकी असली परीक्षा होती है। साहसी अपने उत्पाद के प्रति बाजार की प्रतिक्रिया पर हमेशा चौकसी बनाये रखता है तथा तुरन्त अपनी उत्पादन प्रक्रिया में बाजार के निर्देशानुसार परिवर्तन लाता है। अब सब कुछ ठीक रहने पर साहसी स्थायी पंजीकरण हेतु पुन: जिला उद्योग विभाग (District Industries Department) को आवेदन देता है और तब साहसी का यह उपक्रम औद्योगिक समाज का एक सम्मानित सदस्य बनकर अस्तित्व में आ जाता है। इस तरह औद्योगिक जगत् में उपक्रम रूपी बच्चा जन्म लेकर धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और अपनी पहचान विशिष्ट रूप में बनाकर साहसी को सम्मान दिलाता है।

22. नये उपक्रम को स्थापित करने से पूर्व साहसी को किन आवश्यक बातों पर ध्यान देना चाहिए? “अथवा” श्रम, सामग्री, मुद्रा, संयन्त्र तथा बाजार में क्या अन्तर्सम्बन्ध है ?

उत्तर– किसी भी उपक्रम को चलाने में पाँचM की आवश्यकता होती है- (i) श्रम (Men), (ii) कच्चा माल (Raw Material), (iii) संयंत्र (Machine), (iv) मुद्रा (Money), (v) बाजार (Market) । जिस तरह मानव शरीर का निर्माण पाँच तत्वों से हुआ है, उसी तरह उपक्रम रूपी शरीर के निर्माण में उपर्युक्त पाँचों तत्वों का उचित समावेश आवश्यक है। अत: उपक्रम के जन्म के लिये इन पाँचों तत्वों का अध्ययन आवश्यक है- (i) श्रम (Men) उत्पादन के समस्त साधनों में श्रम ही एक सक्रिय साधन है – जो अन्य सभी साधनों को क्रियाशील बना कर किसी भी अनुपयोगी चीज को उपयोगी बना देता है। अतः अच्छी श्रम शक्ति के आधार पर ही उपक्रम की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है। उपक्रम को चलाने के लिए कुशल (Skilled) तथा अकुशल (Unskilled) दोनों तरह के श्रम की जरूरत होती है। फिर इन श्रमिकों से उचित काम लेने के लिए प्रबन्धकीय कर्मचारियों की आवश्यकता होती है अतः उपक्रम में श्रम-शक्ति योजना तैयार करके योग्य प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति पहले कर लेना चाहिए जो उपक्रम के प्लाण्ट मशीन को ठीक से चला सकें। उपक्रम के लिए सही प्रकार के व्यक्तियों का चुनाव करना आवश्यक है, नहीं तो समय, श्रम और धन की बर्बादी होगी। समय-समय पर कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और अभिप्रेरित (Motivate) करते रहने की योजना भी बना लेनी चाहिये।

(ii) कच्चा माल (Raw Material)- यदि उपक्रम उत्पादन से सम्बन्धित है तो स्थापना से पूर्व कच्चे माल (Raw materials) की उपलब्धता, किस्म, मूल्य, आपूर्ति की निरन्तरता आदि पर विचार करके इनकी व्यवस्था कर लेनी चाहिये। कच्चे माल के अभाव में उत्पादन की सारी प्रक्रिया ठप्प हो जायेगी।

(iii) संयंत्र (Machine) – उत्पादन चाहे बड़े या छोटे किसी भी पैमाने पर होता हो, इसके लिए संयंत्रों की आवश्यकता पड़ती ही है। उपक्रम आरम्भ करने से पूर्व उसमें लगने वाले संयंत्र एवं उपकरणों की खरीद पहले कर लेनी चाहिये। खरीदते समय संयंत्र की तकनीक, इसे चलाने वाले तकनीशियन की उपलब्धता, संयंत्र क्षमता, किस्म, मूल्य, मरम्मत की सुविधा आदि पहलुओं पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये।

(iv) मुद्रा (Money) – मुद्रा अर्थात् पूँजी उपक्रम का जीवन रक्त है। इसके बिना उपक्रम की कल्पना नहीं की जा सकती। उपक्रम में लगने वाली स्थायी पूँजी तथा चालू पूँजी की आवश्यकता निर्धारित करके इसे जुटाने के स्रोत की व्यवस्था करनी होगी। पूँजी की व्यवस्था के लिए कुछ रकम साहसी स्वयं लगाता है और बाकी रकम कर्ज के रूप में बैंक या अन्य वित्तीय संस्थाओं से जुटायी जाती है। उपक्रम आरम्भ होने के बाद पूँजी की कमी हो जाने पर नुकसान झेलना पड़ सकता है।

(v) बाजार (Market) – उपक्रम लगाने से पूर्व अपने उत्पाद की बाजार में खपत का अंदाज लगा लेना चाहिये। उसी के अनुरूप साहसी उपक्रम में उत्पादन क्षमता रखेगा क्योंकि माँग से कम और अधिक उत्पादन दोनों ही स्थिति साहसी के लिए हानिकारक हैं। यदि माँग अधिक है और उतना उत्पादन उपक्रम नहीं दे सका तो लाभ में कमी आयेगी। इसके विपरीत उत्पादन माँग की तुलना में अधिक हो जाये तो भी लाभ में कमी आयेगी क्योंकि अतिरिक्त उत्पादन में एक और व्यर्थ की पूँजी फँसी रहेगी तो दूसरी ओर इसके रख-रखाव पर भी खर्च (अनावश्यक ) झेलना पड़ेगा।

23. उपक्रम के चुनाव में उद्यमी को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

उत्तर- एक उपक्रम की स्थापना करते समय उद्यमी को निम्नलिखित तत्वों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है-

(1) व्यवसाय का चयन (Selection of Business)- किसी नये उपक्रम की स्थापना की प्रक्रिया उसी समय प्रारम्भ हो जाती है जब उद्यमी में कोई व्यवहार्य विचार उत्पन्न हो। उसे चाहिए कि वह व्यवसाय को लाभदायकता का विश्लेषण कर लै तथा व्यवसाय में सन्निहित जोखिम एवं आवश्यक पूँजी का भी विश्लेषण कर लेना चाहिए। उसे चाहिए कि वह एक संभाव्य प्रतिवेदन तैयार कर ले जो विभिन्न संभाव्य अवसर को प्रदर्शित कर सके। व्यवसाय के औचित्य के मूल्यांकन की अनेक विधियाँ है किन्तु विनियोजित पूँजी पर प्रत्याय विधि काफी प्रचलित विधि है। हालाँकि एक उद्यमी उस प्रकार के व्यवसाय का चयन करना चाहता है जो ऊँची प्रत्याय दर दे सके।

(2) संगठन के प्रारूप का चुनाव (Choice of Form of Organis- ation)- उद्यमी के समक्ष संगठन के प्रारूप के सम्बन्ध में अनेक विकल्प उपलब्ध होते हैं। वस्तुत: संगठन के प्रारूप का चुनाव उद्यमी के प्रभुत्व को निर्धारित करता है। व्यवसाय का आकार भी इसके प्रारूप को निर्धारित करता है। यदि बड़े पैमाने पर उत्पादन करना हो तो कोई भी उद्यमी कम्पनी प्रारूप को पसन्द करता है। एकाकी एवं साझेदारी प्रारूप छोटे एवं मध्यम आकार के व्यवसाय के लिए उपयुक्त होते हैं। किन्तु वर्तमान समय में छोटे एवं मध्यम वर्ग के उद्यमी भी कम्पनी प्रारूप को ही पसन्द करते हैं क्योंकि इसमें लोचनीयता एवं असीमित स्वीकृति का गुण होता है।

(3) वित्तीय साधन (Financial Propositions) – व्यावसायिक उपक्रम की स्थापना एवं निरन्तर संचालन के लिए उद्यमी को समुचित मात्रा में कोष की व्यवस्था करनी होती है। छोटे उपक्रमों की स्थिति में उद्यमी अपनी बचत से ही कोष की व्यवस्था कर लेते हैं। किन्तु वृहत् उपक्रमों की स्थिति में वित्तीय व्यवस्था के लिए उन्हें वित्तीय संस्थाओं एवं पूँजी बाजार की भी सहायता लेनी पड़ती है। उद्यमियों को दीर्घकालीन कोष की मात्रा, अल्पकालीन कोष की मात्रा, पूँजी की लागत, आदर्श पूँजी संरचना, विनियोजित पूँजी पर अनुमानित प्रत्याय की दर, संसाधनों की व्यवस्था का समुचित समय के सम्बन्ध में भी निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ती है।

(4) इकाई का आकार (Size of the Unit) – सामान्यत: तकनीकी, प्रबन्धकीय, वित्तीय एवं विपणन शक्तियाँ फर्म के आकार को प्रभावित करती है। कुछ शक्तियाँ वृहत् आकार को पसन्द करती हैं, जबकि कुछ शक्तियाँ फर्म के आकार को सीमित करती हैं। यदि उद्यमी यह समझता है कि वह अपने उत्पाद की बिक्री एवं आवश्यक वित्त व्यवस्था करने में सक्षम होगा तो उसके लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन अच्छा विकल्प होगा। हालाँकि, प्रारम्भ में छोटे पैमाने पर व्यवसाय का संचालन करना एवं अनुकूल स्थिति में व्यवसाय के आकार को वृहत् करना उचित होता है। इससे जोखिम की मात्रा कम होती है।

((5) श्रम-शक्ति की उपलब्धता (Availability of Labour Force)— आधारभूत अवधारणा यह है कि एक उद्यमी नौकरी देने वाला होता है, नौकरी ढूँढ़ने वाला नहीं। अत: उसे चाहिए कि वह कुशल श्रमिकों को ही नियुक्त करे। अच्छी शक्ति की उपलब्धता उपक्रम के सफल संचालन के लिए आवश्यक होती है। इसके लिए उसे चाहिए कि शक्ति के लिए प्रशिक्षण एवं विकास कार्यक्रमों पर ध्यान दे।

(6) प्रक्रियागत औपचारिकताओं की पूर्ति (Completion of Procedural Formalities) – एकाकी व्यापार एवं साझेदारी संस्थाओं को पंजीयन की औपचारिकता पूरी नहीं करनी होती। उन्हें केवल सामान्य औपचारिकताएँ ही पूरी करनी होती हैं जैसे म्यूनिसिपल एवं वस्तु कर अधिकारियों से आवश्यक निर्देश प्राप्त करना। लघु स्तरीय संचालन के लिए नाममात्र के सरकारी नियमन की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु कम्पनी संगठन के अन्तर्गत एक साहसी को बहुत-सी औपचारिकताएँ पूरी करनी होती है, जैसे- रजिस्ट्रेशन, व्यवसाय प्रारम्भ किया जाना, अंशों का सूचीबद्ध कराना, उत्पादों का रजिस्ट्रेशन कराना आदि ।

(7) उपक्रम आरम्भ करना (Launching the Enterprise ) – एक उद्यमी से यह आशा की जाती है कि वह आवश्यक संसाधनों, जैसे- श्रम, सामग्री, मशीन, मुद्रा, प्रबन्धकीय कौशल की व्यवस्था करेगा। इसके बाद ही वह संस्था की संरचना विकसित कर सकता है तथा प्रबन्धक अन्य कर्मचारियों के बीच कार्य का विभाजन करेगा। साहसिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्रियात्मक संगठन संरचना से काफी मदद मिलती है। यह सुविधाजनक उत्पादन पद्धति एवं बाजार में सेवाओं की पूर्ति को सुनिश्चित करता है।

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