Eps Class 12 Chapter 17 Subjective in Hindi

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उत्पादन प्रबंध एवं किस्म नियन्त्रण

1. किस्म नियन्त्रण के दो सिद्धान्त क्या हैं? 

उत्तर- (i) किस्म का प्रमाप इस तरह से निर्धारित किया जाना चाहिए कि ग्राहकों को सन्तुष्टि प्रदान करने वाली सभी विशेषताएँ वस्तु में विद्यमान हों।

(ii) वस्तुओं का निर्माण निर्धारित विवरण के अनुसार करना चाहिए जिससे उसमें प्रमाणित वस्तु या किस्म की मात्रा विद्यमान हो। 

2. निर्यात उत्पादों के किस्म नियन्त्रण संक्षेप में लिखिए।

उत्तर – किसी भी अर्थव्यवस्था के निर्यात बढ़ाने में किस्म नियन्त्रण का कार्यान्वयन बड़ा उपयोगी होता है। उत्पाद तभी विदेशी बाजारों में बिकते हैं यदि वे सस्ते एवं अच्छी किस्म के भी हों। इन प्रमापों का प्रमापीकरण विदेशी ग्राहकों को किसी भी बिक्री योजना की तुलना में अधिक प्रभावित करता है। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए, भारत सरकार ने लघु इकाइयों द्वारा निर्मित उत्पादों का निरीक्षण, माल को विदेशों में भिजवाने से पूर्व, अनिवार्य कर दिया है। इस व्यवस्था ने भारतीय निर्यातकों द्वारा विदेशी प्रतिस्पर्धी बाजारों में उत्पाद बेचने में सफलता पाई है।

3.किस्म नियन्त्रण विधियों की चर्चा कीजिए।

उत्तर – किस्म नियन्त्रण की दो विधियाँ हैं-
(1) निरीक्षण (Inspection) – निरीक्षण, उत्पादों तथा सेवाओं की किस्म नियन्त्रण का लोकप्रिय तरीका है। उत्पादन निरीक्षण में तीन महत्वपूर्ण पहलू हैं-

(i) उत्पाद निरीक्षण (Product Inspection) – जैसा कि नाम बताता है, उत्पाद निरीक्षण, निर्मित उत्पाद को बाजार में भेजने से पूर्व का निरीक्षण है।

(ii) प्रक्रिया निरीक्षण (Process Inspection) – प्रक्रिया निरीक्षण उत्पादन निरीक्षण का पूर्वगामी है। इसका उद्देश्य है कि उत्पादन प्रक्रिया में प्रयुक्त सामग्री एवं यन्त्र एवं मशीनें, निर्धारित किस्म एवं प्रमाप अनुसार हैं।

(iii) निरीक्षण विश्लेषण ( Inspection Analysis ) – निरीक्षण – विश्लेषण की एक विधि है। इसके द्वारा उद्यमी को ज्ञात हो जाता है कि निर्माणी प्रक्रिया में दोष किन बिन्दुओं पर हुए हैं।

(2) सांख्यिकी किस्म नियन्त्रण (Statistical Quality Control)— उत्पाद की किस्म पर नियन्त्रण करने की सांख्यिकीय तकनीकों पर आधारित एक सांख्यिकीय विधि है। इस विधि में उत्पाद की किस्म नियन्त्रित करने हेतु निदर्शन (Sampling), सम्भाव्यता (Probability) एवं अन्य सांख्यिकीय निर्वचन (Statistical Inferences) आधारों का प्रयोग किया जाता है। 

4. किस्म नियन्त्रण का महत्व क्या है? 

उत्तर – उत्पादों का किस्म नियन्त्रण सभी उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं को अलग लाभ पहुँचाता है। किस्म नियन्त्रण के कुछेक लाभ निम्नलिखित हैं-

(i) ब्राण्ड उत्पाद की अपनी ख्याति एवं छवि बनती है जो अन्त में बिक्री बढ़ाती है।

(ii) यह निर्माताओं द्वारा उत्पादन प्रक्रिया में कार्यरत कार्मिकों का दायित्व निर्धारण करता है।

(iii) यह लागतों का न्यूनीकरण, कार्यकुशलता, प्रमापीकरण कार्यकारी शर्तों में वृद्धि करके, सम्भव बनाता है। 

5. क्या किस्म नियन्त्रण सभी उद्योगों के लिए अनिवार्य है?

उत्तर – हाँ, किस्म नियन्त्रण सभी उद्योगों के लिए अनिवार्य है तथापि यह लघु उद्योगों के लिए अति आवश्यक है, क्योंकि लघु उद्योगों में निर्माणी प्रविधि में मानवीय साधनों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है परन्तु अनेक सीमाओं के कारण इनमें किस्म नियन्त्रण का उपयोग सीमित होता है, कारण है वित्तीय, तकनीकी एवं प्रबन्धकीय कारण । 

6. क्या उत्पादन को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष उत्पादन के रूप में बाँटा जा सकता है ? वास्तव में इन दोनों शब्दों का क्या अर्थ है ? 

उत्तर – हाँ, उत्पादन को प्रत्यक्ष उत्पादन व अप्रत्यक्ष उत्पादन के रूप में बाँटा जा सकता है। प्रत्यक्ष उत्पादन इसे तब कहा जाता है जब व्यक्ति अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्पादन करता है परन्तु जब उत्पादन उन व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न किया जाता है जो मजदूरी के बदले काम करते हैं तो इसे अप्रत्यक्ष उत्पादन कहा जाता है। 

7. उत्पाद प्रक्रिया किसे कहते हैं? 

उत्तर – उत्पाद प्रक्रिया व्यावसायिक उपक्रम उत्पाद एवं सेवाओं के उत्पादन हेतु विभिन्न उत्पादन घटकों एवं साधनों के मिश्रण को कहते हैं। इसके अन्तर्गत निम्न चरणों को शामिल किया जाता है -(i) प्राथमिक (ii) द्वितीयक, एवं (iii) तृतीयक या सेवा। 

8. गुणवत्ता नियन्त्रण क्या है? 

उत्तर – एफोर्ड एवं बीटी (Aford and Beaty) के अनुसार, “गुणवत्ता नियन्त्रण ग्राहकों की माँग द्वारा निश्चित मापदण्डों पर उत्पादन का नियन्त्रण परीक्षण एवं उनकी इंजीनियरिंग एवं निर्माणी आवश्यकतानुसार परीक्षण करने की तकनीक है।” वास्तव में गुणवत्ता नियन्त्रण एक तकनीक है जिसके द्वारा सजातीय स्वीकार्य किस्म वाले उत्पादों को निर्मित किया जाता है। 

9. उत्पाद रूपरेखा क्या है? 

उत्तर – उत्पाद रूपरेखा से हमारा तात्पर्य उस तैयारी से है जिसके ऊपर उपक्रम की छवि एवं लाभ उपार्जन क्षमता बड़ी सीमा तक निर्भर करती है। ऐसा कहा गया है कि जितना अधिक समय व्यक्ति उत्पाद रूपरेखा के निर्माण पर लगाता है उतने ही उसकी सफलता के अवसर अधिक होते जाते हैं। 

10. किस्म नियन्त्रण के क्षेत्र बताइये ।

उत्तर – किस्म नियन्त्रण का क्षेत्र (Scope of Quality Control) – किस्म नियन्त्रण क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित तथ्यों को सम्मिलित किया जा सकता है –

(i) निर्माणी प्रक्रिया की रीतियों एवं विधियों की जाँच – वस्तुओं का निर्माण करने के पहले वस्तुओं के निर्माण में प्रयोग होने वाली रीतियों एवं विधियों की जाँच की जाती है जिससे पूर्व निर्धारित प्रमापों के अनुसार विधियों – एवं रीतियों का प्रयोग हो रहा है कि नहीं। इस तरह से जाँच करने से वस्तुओं की निर्माणी प्रक्रिया के दौरान होने वाली त्रुटियों का पता लग जाता है और उसे दूर करने का उपाय पहले से ही कर दिया जाता है जिससे मशीनों एवं संयंत्रों में त्रुटि होने से वस्तुओं की किस्म खराब हो सकती है और प्रमाणित किस्म की वस्तु निर्मित नहीं हो पायेगी। 

(ii) सामग्री की किस्म की जाँच – किस्म नियन्त्रण के क्षेत्र के अन्तर्गत पहले वस्तुओं के निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री या कच्चे माल के गुण या किस्म की जाँच की जाती है, क्योंकि निर्मित वस्तुओं की किस्म प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल या सामग्री के ऊपर निर्भर करती है। अगर सामग्री या कच्चा माल अच्छी किस्म का है तो तैयार होने वाला उत्पाद भी अच्छी किस्म का होगा इसलिए सामग्री नियन्त्रण के अन्तर्गत प्रयुक्त होने वाली सामग्री की किस्म की भली-भाँति जाँच की जाती है।

(iii) दूषित किस्म की वस्तुओं में सुधार करना – संयंत्रों व उपकरणों में त्रुटि होने तथा दूषित सामग्रियों के प्रयोग का प्रभाव निर्मित होने वाली वस्तु के ऊपर पड़ता है जिससे वस्तु खराब या घटिया किस्म की होती है। इन घटिया किस्म की वस्तुओं की अधिक मात्रा होने पर संस्था के लाभ में कमी आती है और अगर इन दूषित वस्तुओं को बाजार में विक्रय के लिए भेजा जाता है तो संस्था की साख पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है जिससे दोनों स्थितियों में संस्था को क्षति पहुँचती है इसलिए दूषित किस्म की वस्तुओं में सुधार करके संस्था को होने वाली हानि से बचाया जा सकता है। 

(iv) निर्मित वस्तुओं का निरीक्षण करना – निर्मित वस्तुओं को बाजार में विक्रय के लिए भेजने के पहले वस्तुओं की किस्म एवं शुद्धिकरण की जाँच की जाती है जिससे निरीक्षण करने से यह मालूम हो जाता है कि वस्तु की कितनी इकाइयाँ दूषित व खराब हैं, इस प्रकार निरीक्षण के दौरान पायी गयी सभी दूषित इकाइयों को श्रेष्ठ किस्म की वस्तुओं से छाँटकर अलग कर दिया जाता है जिससे संस्था से बाहर केवल श्रेष्ठ किस्म की वस्तुओं को ही भेजा जाये और दोषपूर्ण वस्तुओं पर सुधारात्मक कार्यवाही की जाये ।  

11. किस्म नियन्त्रण के लिए उठाये जाने वाले कदमों का वर्णन कीजिए।

उत्तर – किस्म नियन्त्रण के लिए उठाये जाने वाले कदम (Steps for Quality Control) – एक संस्था को किस्म नियन्त्रण के लिए निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए-

(i) निर्माण प्रक्रियाओं पर नियन्त्रण – निर्मित वस्तुओं की गुणवत्ता एवं शुद्धता के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन की निर्माणी प्रक्रियाओं की विधियों एवं रीतियों की जाँच पड़ताल करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उत्पादन प्रक्रियाओं में जिन रीतियों एवं विधियों का उपयोग किया जा रहा है, वे पूर्व निर्धारित प्रमापों के अनुसार होनी चाहिए।

(ii) प्रयोग होने वाली सामग्री का नियन्त्रण – किस्म नियन्त्रण के लिए संस्था को चाहिए कि वह वस्तुओं के निर्माण में प्रयोग होने वाले कच्चे माल या सामग्री का क्रय करते समय यह अवश्य ध्यान रखे कि जिस कच्चे माल या सामग्री का क्रय किया जाय, वह निर्धारित प्रमापों के अनुसार सही एवं शुद्ध किस्म की हो तथा उस सामग्री का प्रयोग करते समय एक बार फिर से भली-भाँति जाँच कर लेनी चाहिए।

(iii) प्रमाप एवं गुणों का निर्धारण – प्रमाप एवं गुणों का निर्धारण संस्था के इन्जीनियरिंग विभाग द्वारा किया जाता है जो वस्तुओं के रूप, रंग, आकृति, रासायनिक विशेषताओं इत्यादि का निर्धारण करने के लिए नियोजन एवं नियन्त्रण, लागत तथा विक्रय विभाग से विचार-विमर्श करता है जिससे वस्तुओं का निर्माण करने के पूर्व प्रमाप का निर्धारण इस तरह से किया जाता है कि वस्तुओं में वे सभी गुण अवश्य विद्यमान हों जो उपभोक्ताओं की स्वीकार्य दर में वृद्धि करते हैं। इस प्रकार निर्धारित प्रमापों से निर्मित वस्तुओं की किस्म व गुणों से तुलना की जाती है और विचलनों का पता लगाया जा सकता है। 

(iv) कुशल एवं योग्य निरीक्षकों का चुनाव – उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल, निर्माणी प्रक्रिया एवं साज-सामान तथा निर्मित माल जैसे परिवर्तनीय घटकों का निरीक्षण करना अति आवश्यक है क्योंकि इनमें जरा-सी भी त्रुटि होने पर वस्तु की किस्म खराब हो सकती है। इसलिए कच्चे माल के क्रय से लेकर निर्मित माल में बदलने तक सभी स्तरों पर निरीक्षण के लिए कुशल एवं योग्य निरीक्षकों की नियुक्ति करनी चाहिये जो हर स्तर पर निरीक्षण के लिए भली-भाँति जानकारी रखते हों।

(v) संयंत्र, मशीनों एवं उपकरणों की शुद्धता की जाँच –निर्मित वस्तुओं की अपेक्षित किस्म व शुद्धता के लिए यह आवश्यक है कि संयंत्र व उपकरणों की शुद्धता की भी जाँच की जानी चाहिए क्योंकि अगर मशीन व उपकरण ठीक तरह से ठीक जगह पर व्यवस्थित ढंग से नहीं लगे हैं तो वस्तु में वे किस्म व गुण अपेक्षित प्रमापों के अनुसार नहीं होंगे।

(vi) वितरण, प्रतिस्थापन एवं स्वीकार्य सम्बन्धी नियन्त्रण – निर्मित वस्तुओं को उपभोक्ताओं द्वारा कितनी मात्रा में स्वीकार्य किया जा रहा है, यह निर्मित वस्तु के गुणों के ऊपर निर्भर करता है जिससे उनको सन्तुष्टि प्राप्त होती है इसलिए उपभोक्ताओं को वस्तुओं का वितरण करते समय वस्तुओं के गुणों का निर्धारित प्रमापों से मिलान अवश्य कर लेना चाहिए जिससे दोषपूर्ण वस्तुओं को अलग कर लिया जाय और निर्धारित सही किस्म की वस्तुओं को ग्राहकों को सौंपा जाय जिससे ग्राहकों में यह विश्वास उत्पन्न हो सके कि जो वस्तु उनको दी जा रही है, उसमें सभी गुण विद्यमान हैं। 

12. उत्पादन निरीक्षण क्या है? उन तीन उत्पादन स्तरों को बताइए जहाँ निरीक्षण किया जाना चाहिए।

उत्तर – उत्पाद निरीक्षण द्वारा उत्पादित वस्तु की किस्म सुनिश्चित की जा सकती है। इसके लिए उत्पाद निरीक्षण कार्य को देखने हेतु एक अलग विभाग, “किस्म नियन्त्रण विभाग” के नाम से स्थापित किया जाता है । उत्पाद निरीक्षण के माध्यम से, प्रबन्ध इन बातों का निर्णय लेता है – निरीक्षण स्थल, कब निरीक्षण किया जाए, इकाइयों की संख्या जो निरीक्षित की जायें एवं उन यन्त्रों का निर्णय जो निरीक्षण कार्य में काम में लिये जायें। इन विभिन्न निर्णयों पर एक लघु अवलोकन करें-

(i) निरीक्षण स्थल (Location of Inspection ) – केन्द्रित एवं विकेन्द्रित निरीक्षण किए जा सकते हैं । केन्द्रित निरीक्षण विधि के अन्तर्गत, एक ओर उच्चकोटि प्रशिक्षित निरीक्षकों के समय बचत तथा सूक्ष्मतम यन्त्रों एवं तकनीकों की आवश्यकता के लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। विकेन्द्रित निरीक्षण विधि को फर्श निरीक्षण (Floor Inspection) भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत फर्श निरीक्षण उत्पादन फर्श (Production Floor ) पर निरीक्षण करता है। इस विधि में अनावश्यक हानि (Crap loss) में कमी आती है। त्रुटि की अवस्था दूषित इकाइयों के उत्पादन से पूर्व उन्हें पहचाना जाता है।

(ii) कब निरीक्षण किया जाए (When to Inspection ? ) – जैसे ही निरीक्षण स्थल तय हो जाए, कब निरीक्षण किया जाये भी तय हो जाना चाहिये । निरीक्षण लागतों के अनुसार निरीक्षण संख्या तय की जानी चाहिये । प्रायः श्रम लागत का 5% निरीक्षण कार्य के लिए रखा जाता है। कुछ निरीक्षण उत्पादन प्रक्रिया के तीन विभिन्न चरणों में किये जाते हैं – कच्ची सामग्री, निर्माणाधीन माल एवं निर्मित उत्पादों का स्तर । सामग्री स्वीकार करने से पूर्व, किसी हानि के दृष्टिकोण से सामग्री का निरीक्षण करना चाहिये, उसे स्टोर में रखने अथवा विधियन उद्देश्य हेतु तैयार रखने से पूर्व पुन: निरीक्षण करना चाहिए। उत्पाद निरीक्षण निर्माण के विभिन्न चरणों पर करना चाहिए, अर्थात् निर्माणाधीन प्रक्रिया के मध्य उत्पादन श्रमिकों को चाहिए कि वे उत्पादों का अनौपचारिक निरीक्षण करते रहें । निर्मित माल के स्तर पर निरीक्षण, कम्पनी द्वारा उत्पाद की किस्म का निरीक्षण, इसका अन्तिम प्रयास है। इसके बाद माल ग्राहकों को सौंप दिया जाता है। अतः यह निरीक्षण अच्छी तरह प्रशिक्षित एवं योग्य निरीक्षकों द्वारा किया जाना चाहिये । 

(iii) निरीक्षित पदों की संख्या (Number of Items Inspected) – निरीक्षण 100% आधार पर अथवा कुछ सैम्पल लेकर किया जा सकता है। सैम्पल विधि सांख्यिकीय निर्देशन ज्ञान पर आधारित है। निर्देशन विधि प्रबन्ध को सैम्पल इकाइयों की संख्या एवं परिणामों की शुद्धता का निर्णय लेने में सहायक सिद्ध होती है।

(iv) निरीक्षण यन्त्र (Inspection Tools ) – उत्पादन निरीक्षण में विशेष यन्त्रों की आवश्यकता होती है। इन यन्त्रों में से कुछ हैं – मोटाई, रंग, घनत्व एवं उत्पादों की शक्ति (ऊर्जा आँख द्वारा माण्य), एक्स-रे (X-ray), स्ट्रोवो-स्कोप व दि-फिलैक्टोस्कोप आदि । परन्तु यह बड़े तकनीकी एवं खर्चीले यन्त्र हैं। निरीक्षण खर्चीली तकनीक है। ग्राहकों के उत्पादन पर स्वीकृति का निरीक्षण प्रभावशीलता का सबूत है। 

13. किस्म नियन्त्रण को परिभाषित कीजिए। इसके महत्व क्या हैं?

उत्तर- इसके अर्थ के लिये प्रश्न संख्या 5 का अध्ययन करें। किस्म नियन्त्रण के उद्देश्य या महत्व (Objectives or Importance of Quality Control) – किस्म नियन्त्रण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(i) ग्राहकों के स्वीकार्य योग्य प्रमापों की स्थापना करना – वस्तुओं का प्रमाप निर्धारित करते समय उपभोक्ताओं की इच्छाओं को ध्यान में रखा जाता है जिससे वस्तुओं में वे सभी विशेषताएँ अवश्य पायी जाती हैं जिससे उपभोक्ता तेजी से वस्तुओं को स्वीकार करने लगते हैं। अगर वस्तुओं में वे विशेषताएँ नहीं पायी जातीं जिनको उपभोक्ता चाहते हैं तो वस्तुओं की स्वीकार्य दर बहुत कम होगी जिससे संस्था को भारी मात्रा में क्षति हो सकती है। 

(ii) दोषपूर्ण उत्पादों से ग्राहकों को दूर रखना – किस्म नियन्त्रण का यह भी उद्देश्य होता है कि अगर निर्मित वस्तुएँ प्रमापों के अनुसार न होकर घटिया किस्म का उत्पादन हो रहा है तो ऐसे उत्पादों को ग्राहकों की पहुँच से दूर रखने का प्रयास करना चाहिए जिससे संस्था की साख को खराब होने से बचाया जा सके तथा वस्तुओं पर पड़ने वाले प्रभाव को रोका जा सके।

(iii) निर्धारित प्रमापों के अनुरूप वस्तुओं का उत्पादन करना – किस्म नियन्त्रण में पूर्व-निर्धारित प्रमापों के अनुसार वस्तुओं को तैयार किया जाता है जिससे वस्तु में सभी गुण एवं किस्म सही मात्रा में उपलब्ध हो और वस्तुओं में इन्हीं विशेषताओं के कारण वस्तु की श्रेष्ठता प्रदर्शित होती है जो अन्य वस्तुओं से अपनी अलग पहचान बनाती है तथा ग्राहकों को सन्तुष्टि प्रदान करती है। इस प्रकार निर्धारित प्रमापों के अनुसार वस्तु के रूप, रंग, आकृति और किस्म को तैयार करना किस्म नियन्त्रण का मुख्य उद्देश्य है।

(iv) विचलनों की खोजबीन तथा विश्लेषण करना – किस्म नियन्त्रण का यह उद्देश्य होता है कि वस्तु का निर्माण निर्धारित प्रमापों के अनुरूप हो रहा है या नहीं, अगर नहीं हो रहा है तो उसके विचलनों का पता लगाना तथा उसका विधिवत् विश्लेषण करना चाहिये जिससे विचलनों के कारणों का सही रूप में पता लगाया जा सके। 

(v) सुधारात्मक कार्यवाही करना – अगर वस्तुओं का निर्माण निर्धारित प्रमाप के अनुसार नहीं हो रहा है तो उसके विचलनों के कारणों का पता लगाना तथा उसकी गहन जाँच करना और उसको दूर करने के लिए सुधारात्मक कार्यवाही करना किस्म नियन्त्रण का उद्देश्य है ।

(vi) वस्तुओं की वांछित किस्म का स्तर गिरने से रोकना – अगर वस्तुओं का निर्माण निर्धारित स्तर पर न होकर वस्तु की किस्म में गिरावट आ रही है तो उसे अति शीघ्र रोकने का उपाय किस्म नियन्त्रण के द्वारा किया जाता है जिससे निर्मित होने वाली वस्तु में निर्धारित सभी विशेषताएँ पायी जायें।

(vii) अच्छे उत्पादों को दोषपूर्ण उत्पादों से अलग रखना – किस्म नियन्त्रण का यह उद्देश्य होता है कि घटिया दोषपूर्ण उत्पादों को उत्कृष्ट उत्पादों से अलग रखा जाये जिससे वस्तुओं का विक्रय करने में कोई कठिनाई न हो तथा संस्था की साख बाजार में बराबर बनी रहे ।

(viii) उत्पादन की रीतियों का मूल्यांकन व विश्लेषण करना – किस्म नियन्त्रण में उत्पादन के विभिन्न तरीकों तथा प्रविधियों का विश्लेषण व मूल्यांकन किया जाता है जिससे उत्पादन में होने वाली त्रुटि की मात्रा बहुत कम हो और ऐसी विधियों से वस्तुओं का उत्पादन किया जाये कि निर्माण लागत बहुत कम हो इसलिए मितव्ययी | विधियों का चुनाव करना चाहिए जिससे वस्तु उपभोक्ता को सस्ती दर पर प्राप्त हो सके

14. किस्म नियन्त्रण क्या है? इसके सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर – किस्म या गुण नियन्त्रण का अर्थ एवं परिभाषा – किस्म नियन्त्रण से आशय वस्तुओं की अच्छाइयों एवं श्रेष्ठता से है जिनको प्राप्त करने के लिए मानव सामग्रियों एवं निर्माण संयंत्रों तथा परिस्थितियों पर इस तरह नियन्त्रण स्थापित किया जाता है कि वस्तुओं की अच्छाइयों को प्रभावित कर सके। वस्तुओं को तैयार करने के लिए सभी सामग्रियाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से ही प्राप्त की जाती हैं जिससे प्राकृतिक कारण से उन सामग्रियों की बनावट व विशेषताओं में परिवर्तन आ जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ वस्तुओं की निर्माणी परिस्थितियों में भी तापमान, नमी, धूल, गर्म दूषित हवाएँ तथा मशीनों के हिलने-डुलने तथा मापक यन्त्रों के घिसने से उनमें समायोजन में परिवर्तन आते रहते हैं। इसलिए वस्तुओं में किस्म की सही मात्रा में विद्यमानता के लिए इन परिवर्तनों पर इस प्रकार से नियन्त्रण रखा जाय कि वस्तुओं की श्रेष्ठता एवं गुणवत्ता को प्रभावित न कर सकें। अल्फर्ड एवं बीटी के अनुसार, “विस्तृत अर्थ में किस्म नियन्त्रण औद्योगिक प्रबन्ध की तकनीकी है जिसके द्वारा स्वीकृत योग्य किस्म की एक समान वस्तुएँ निर्मित की जाती हैं। यह वास्तव में वह यन्त्र है जिसकी सहायता से उत्पाद को ग्राहकों की माँग के अनुसार निर्धारित प्रमाप के अनुरूप तैयार किया जाता है। इसका सम्बन्ध त्रुटि का पता लगाने तथा त्रुटि उत्पाद को अस्वीकृत करने की अपेक्षा सही किस्म का उत्पाद बनाने में अधिक है। ” किस्म नियन्त्रण के सिद्धान्त (Principles of Quality Control) – किस्म नियन्त्रण के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(i) किस्म का प्रमाप इस तरह से निर्धारित किया जाना चाहिए कि ग्राहकों को सन्तुष्टि प्रदान करने वाली सभी विशेषतायें वस्तु में विद्यमान हों।

(ii) वस्तुओं का निर्माण निर्धारित विवरण के अनुसार करना चाहिए जिससे उसमें प्रमाणित वस्तु या किस्म की मात्रा विद्यमान हो।

(iii) किस्म की उत्कृष्टता को प्रभावित करने वाले परिवर्तनीय घटकों पर व्यापक नियन्त्रण होना चाहिए जिससे वस्तु में निर्धारित प्रमाप के अनुसार किस्म विद्यमान हो ।

(iv) एक उत्पाद की किस्म के प्रत्येक गुण की सही मात्रा के लिए विशेष विवरण योग्य एवं कुशल डिजाइनर द्वारा तैयार किया जाना चाहिए।

(v) निर्मित वस्तु निर्धारित प्रमापों के अनुरूप तैयार की जा रही है, इसके लिए पूर्व-निर्धारित किस्म सम्बन्धी प्रमापों से तुलना करके होने वाले विचलनों का पता लगाना चाहिए तथा उसे दूर करने के उपाय करना चाहिए।

(vi) निर्माण प्रक्रिया के दौरान अधिकतम मितव्ययिता प्राप्त करने एवं बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए जिससे निर्माणी लागत कम आये ।

(vii) किस्म नियन्त्रण के लिए श्रेष्ठ कर्मचारियों का चयन किया जाना चाहिए। 

15. उत्पादन रूपरेखा क्या है? उत्पादन रूपरेखा के चरणों को समझाइए | 

उत्तर-  उत्पादन रूपरेखा (Product Design) – किसी भी उपक्रम की रीढ़ वे उत्पाद एवं सेवायें होती हैं जिन्हें इनके द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इसीलिए उत्पाद क्रिया व्यवस्था के विकास हेतु क्या और कब उत्पादन करें, का विचार इसका प्रथम चरण है। दूसरे शब्दों में, किसी उपक्रम के द्वारा सर्वप्रथम उत्पाद की रूपरेखा तैयार करना उसका प्रथम चरण होता है। अनुभव द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि किसी उपक्रम की छवि एवं उसकी लाभोपार्जन क्षमता बहुत बड़ी सीमा तक उसकी उत्पाद रूपरेखा पर ही निर्भर करती है। स्पष्ट है उत्पाद रूपरेखा तैयार करने से पूर्व अनेक घटकों, जैसे- वातावरणीय परिवर्तन (Changes in environment), प्रौद्योगिकी एवं उपभोक्ता रुचि (Technology and consumer tastes) व उनकी आवश्यकताओं पर विचार किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि उत्पाद का प्रारम्भ बाजार की माँग द्वारा शासित होता है। वास्तव में उत्पाद रूपरेखा तैयार करना कोई सरल कार्य नहीं है जो कोई व्यक्ति अपने आप तैयार कर सके। एक सही प्रकार की रूपरेखा तैयार करना अनेक बातों पर निर्भर करता है। ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति जितना अधिक समय उत्पाद रूपरेखा तैयार करने पर लगायेगा, उतने ही उसके सफलता के अवसर अधिक होंगे। साधारणतया उत्पाद रूपरेखा तैयार करते समय निम्न बातों पर विचार किया जाना चाहिए- 

(i) प्रमापीकरण

(ii)विश्वसनीयता

(iii) पुन: उत्पादनशीलता

(iv) उत्पाद सरलीकरण

(v) उत्पाद मूल्य

(vi) रख-रखाव

(vii) बनाये रखने का स्थायित्व

(viii) सेवा व्यवस्था

(ix) उपभोक्ता किस्म 

उत्पादन रूपरेखा के चरण (Steps of Product Design) – उत्पादन रूपरेखा की क्रिया को निम्न दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) कार्यक्रम रूपरेखा (Scheduling) – सफल उत्पादन के लिये कार्यक्रम की रूपरेखा का तैयार किया जाना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कार्यक्रम रूपरेखा का तैयार किया जाना दोनों ही परिस्थितियों में अर्थात् विशिष्ट आदेश (Specific order) एवं नियमित उत्पाद (Regular production) के लिये महत्वपूर्ण है। कार्यक्रम रूपरेखा को तैयार किये जाने का प्राथमिक उद्देश्य, उत्पादन प्रक्रिया को सम्पन्न करने के दौरान सामग्री का निर्विघ्न प्रवाह् Smooth flow of raw material) के लिए अत्यन्त आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि समय की सीमा अथवा Scheduling मानव शक्ति, यन्त्र एवं प्रयुक्त सामग्री के नियोजन एवं क्रमबद्धता की व्यवस्था है। इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि प्रदत्त कार्य आदेश के सम्बन्ध में, कब आरम्भ किया जाय एवं किस तिथि तक इसे सम्पन्न किया जाय। समय-बन्धन प्राय: समय सारणियों के आधार पर तैयार किया जाता है। एक आदर्श समय-बन्धन यह दर्शाता है कि प्रति सप्ताह अथवा प्रति माह कुल कितनी मात्रा में उत्पाद निर्मित किया जाय। प्रायः देखा गया है कि समय-बन्धन कभी-कभी पूरा नहीं हो पाता क्योंकि समस्त आगम सामग्री उचित समय पर उचित मात्रा में उपलब्ध हो सकेगी, यह प्रायः सभी परिस्थितियों में पूरा हो, यह आवश्यक नहीं है। समय-बन्धन की क्रिया-अनुसन्धान विधि (Operation research method of scheduling) को निर्धारित करने के लिए निम्न विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-

(i) क्रान्तिक पथ विश्लेषण (Critical Path Analysis) – यह तकनीक कार्य को अनेक भागों में बाँट लेती है, तत्पश्चात् एक भाग दूसरे से नेटवर्क (Network) से जोड़े जाते हैं। इस विधि के द्वारा किस कार्य पर कितना समय आवश्यक है, ज्ञात किया जा सकता है। PERT (Programme Evaluation and Review Technique) एक लोकप्रिय क्रान्तिक पथ मूल्यांकन (Critical Path Valuation) विधि है।

(ii) लीनियर मूल्यांकन (Linear Programming) – इस विधि के माध्यम से किसी समस्या का सम्पूर्ण हल सुनिश्चित किया जाता है परन्तु इसका प्रयोग तभी किया जा सकता है जब विभिन्न चलों का सम्बन्ध रेखीय हो। इस विधि का प्रयोग प्राय: ग्राफ (मानचित्र), यातायात अथवा सिम्प्लेक्स रीतियों में किया जाता है। सिम्पलैक्स विधि उन परिस्थितियों में श्रेष्ठ होती है जहाँ उत्पादन निर्णयों में कम्प्यूटर का प्रयोग किया जाता है।

(2) उत्पाद निरीक्षण (Product Inspection) – उत्पाद निरीक्षण के द्वारा उत्पादित वस्तु की किस्म (Quality) को सुनिश्चित किया जाता है। इसके लिए उत्पाद निरीक्षण कार्य को देखने हेतु अलग से एक विभाग स्थापित किया जाता है जिसे किस्म नियन्त्रण विभाग (Quality Control Department) के नाम से जाना जाता है। उत्पाद निरीक्षण के माध्यम से, प्रबन्ध इन बातों के सम्बन्ध में निर्णय लेता है कि

(i) निरीक्षण कब किया जाये,

(ii) इकाइयों की कितनी संख्या निर्धारित की जाये एवं

(iii) निरीक्षण स्थल तथा

(iv) उन यन्त्रों का निर्णय जो निरीक्षण कार्य में काम करते हैं। जब भी इन्हें प्रयोग किया जाता है, पर्याप्त निरीक्षण की आवश्यकता रहती है। इससे यह निर्धारित होता है कि ग्राहक अन्तिम उत्पाद (final product) से कितना सन्तुष्ट है।

 

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