Eps Class 12 Chapter 10 Subjective in Hindi

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स्थायी एवं कार्यशील पूँजी की आवश्यकताएँ

1. कार्यशील पूँजी क्या है? 

उत्तर- व्यापार में चालू सम्पत्तियों को क्रय करने तथा बनाये रखने के लिए तथा चालू दायित्वों के भुगतान के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें ही कार्यशील पूँजी कहते हैं। कार्यशील पूँजी के कोष को नकद में रखा जाता है या अधिक तरल प्रतिभूतियों में लगाया जाता है, ताकि शीघ्रता से उसे बेचा जा सके। उसकी व्यवस्था लघुकालीन वित्त द्वारा होती है।

2. स्थायी पूँजी की विशेषताओं को बतायें।

उत्तर – स्थायी पूँजी की विशेषताएँ / प्रकृति – स्थायी पूँजी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) स्थायी पूँजी व्यवसाय में दीर्घकाल तक रहती है।

(ii) स्थायी पूँजी का उपयोग स्थायी सम्पत्तियों के क्रय करने में होता है; जैसे- भूमि, भवन, मशीनें, फर्नीचर आदि ।

(iii) स्थायी पूँजी की मात्रा व्यवसाय की प्रकृति पर निर्भर करती है।

(iv) यह लागत संरचना को प्रभावित करती है।

(v) स्थायी पूँजी में अत्यधिक जोखिम होती है। 

3. कार्यशील पूँजी के चक्र से आप क्या समझते हैं? 

उत्तर – कार्यशील पूँजी से आशय उस पूँजी की मात्रा से है जिसका निवेश चालू सम्पत्तियों जैसे- प्राप्य विपत्र, विविध देनदार, कच्चा माल, अर्द्ध निर्मित माल तथा निर्मित माल में किया जाता है। कार्यशील पूँजी अस्थिर प्रवृत्ति की होती है अर्थात् चक्र की तरह घटते-बढ़ते रहता है। कार्यशील पूँजी कार्यशील एवं घूमती रहती है तथा इसका उपयोग दैनिक व्यावसायिक क्रियाओं के लिए किया जाता है। 

4. स्थायी पूँजी क्या है? 

उत्तर – स्थायी पूँजी को अचल पूँजी भी कहते हैं। स्थायी पूँजी से आशय पूँजी के उस भाग से है जिसका निवेश स्थायी सम्पत्तियों, जैसे- भूमि, भवन, मशीनरी, फर्नीचर, उपकरण आदि की खरीद के लिये किया जाता है। इन सम्पत्तियों का क्रय करने का उद्देश्य लम्बे समय तक इनसे आय अर्जित करना होता है। चूँकि यह पूँजी एक लम्बे समय तक व्यवसाय में अवरुद्ध रहती है, अतएव इसे स्थायी पूँजी कहते हैं। 

5. पूँजी का सन्तुलित होना क्यों आवश्यक है? 

उत्तर- पूँजी व्यवस्था का जीवन रक्त है। इसके बिना किसी भी उपक्रम को चला पाना असम्भव है। पूँजी की मात्रा उपक्रम की आवश्यकता के अनुरूप ही होनी चाहिए क्योंकि अति पूँजीकरण (over capitalisation) तथा अल्प पूँजीकरण (under capitalisation) दोनों ही उपक्रम के लिए घातक होते हैं। अतः पूँजी का सन्तुलित होना आवश्यक है। 

6. फैक्टरिंग किसे कहते हैं?

उत्तर- फैक्टरिंग एक वित्तीय सेवा है जिसके अन्तर्गत कम्पनी के पुस्तकीय ऋणों एवं प्राप्यों (Receivables) को अधिक अच्छे ढंग से व्यवस्थित किया जाता है। कम्पनी के पुस्तकीय ऋण एवं प्राप्यों को किसी बैंक के सुपुर्द कर दिया जाता है तथा बैंक से इसकी एवज में अग्रिम राशि प्राप्त कर ली जाती है। बैंक इस सेवा के लिए कुछ कमीशन लेती है।

7. कार्यशील पूँजी की आवश्यकता क्यों होती है?

उत्तर- पर्याप्त कार्यशील पूँजी व्यवसाय की तरलता अथवा शीघ्र भुगतान की क्षमता की सूचक होती है। कार्यशील पूँजी की आवश्यकता दैनिक व्ययों का भुगतान करने, चालू दायित्वों का समय पर भुगतान करने एवं नकद कटौती का लाभ प्राप्त करने के लिए की जाती है। 

8. रोकी गयी आय क्या होती है? 

उत्तर- आय का वह भाग जो अंशधारियों में नहीं बाँटा जाता, उसे व्यवसाय में अवितरित लाभ (Undistributed profit) के रूप में रखा जाता है, उसे रोकी गयी आय कहते हैं। इस राशि की पूँजी लागत शून्य होती है एवं इससे किसी दायित्व का सृजन भी नहीं होता है। 

9. पट्टेदारी क्या होती है? 

उत्तर- पट्टेदारी उस समझौते को कहते हैं जिसके अन्तर्गत सम्पत्ति का स्वामी अपनी सम्पत्ति के प्रयोग का अधिकार किसी अन्य को निश्चित प्रतिफल के बदले दे देता है। 

10. कार्यशील पूँजी को प्रभावित करने वाले घटक / तत्व क्या हैं? अथवा  कार्यशील पूँजी को प्रभावित करने वाले घटकों का वर्णन कीजिए । 

उत्तर – कार्यशील पूँजी को प्रभावित अथवा इसकी मात्रा को निर्धारित करने वाले प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं- 

1. व्यवसाय की प्रकृति – कार्यशील पूँजी की मात्रा को प्रभावित अथवा निर्धारित करने वाला प्रमुख घटक व्यवसाय की प्रकृति है । जनोपयोगी व्यावसायिक इकाइयों, जैसे- रेलवे, सड़क, गैस आदि में अपेक्षाकृत कम कार्यशील पूँजी से काम चल जाता है। इसका कारण यह है कि इनकी सेवाओं की निरन्तर माँग रहती है और उनका भुगतान तत्काल होता रहता है। कुछ परिवहन सेवाओं मैं तो ग्राहकों से अग्रिम धनराशि लेकर सेवा प्रदान की जाती है। इसके विपरीत, निर्माणी तथा व्यावसायिक इकाइयों में जहाँ काफी माल स्टॉक में रखना पड़ता है तथा माल का उधार विक्रय होता है, वहाँ कार्यशील पूँजी अधिक रखनी पड़ती है।

2. व्यवसाय का आकार – एक व्यावसायिक इकाई की कार्यशील पूँजी की मात्रा का उसके व्यवसाय के आकार से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। एक व्यावसायिक इकाई का आकार जितना अधिक बड़ा होगा, उसमें कार्यशील पूँजी की उतनी ही अधिक आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, एक व्यावसायिक इकाई का आकार जितना छोटा होगा, उसमें कार्यशील पूँजी की आवश्यकता उतनी ही कम होगी।  

3. व्यापार / व्यवसाय चक्र – व्यापार/ व्यवसाय चक्र भी कार्यशील पूँजी की मात्रा को प्रभावित करते हैं। व्यापार/ व्यवसाय में तेजी तथा मन्दी का चक्र निरन्तर चलता रहता है। जब तेजी का चक्र चलता है तो माँग में वृद्धि हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप मूल्यों तथा उत्पादन में वृद्धि होती है एवं व्यावसायिक क्रियाओं का विस्तार होता है। उत्पादन में वृद्धि के लिए आधुनिकीकरण का भी सहारा लिया जाता है। इनके कारण अधिक मात्रा में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, जब मन्दी का चक्र चलता है तो माल की बिक्री में कमी आ जाती है। इसके परिणामस्वरूप मूल्यों तथा उत्पादन दोनों में गिरावट आती है। व्यावसायिक क्रियाओं का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। अतएव कम मात्रा में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।

4. क्रय तथा विक्रय की शर्तें – क्रय तथा विक्रय की शर्तों का भी कार्यशील पूँजी की मात्रा पर प्रभाव पड़ता है। यदि व्यावसायिक इकाई कच्चा माल और अन्य सेवाएँ उधार प्राप्त करती है और निर्मित माल नकद बेचती है तो उसे कम मात्रा में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, यदि कोई व्यावसायिक इकाई नकद कच्चा माल खरीदती है और उधार माल का विक्रय करती है तो उसे अधिक मात्रा में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।

5. लाभांश नीति- यदि कम्पनी उदार लाभांश नीति अपनाती है तो उसे नकद लाभांश वितरण के लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत, कम्पनी या तो लाभांश वितरण ही नहीं करती है अथवा बहुत कम दर से लाभांश का विवरण करती है अथवा लाभांश नकद न वितरित करके बोनस अंशों का निर्गमन करती है तो उसे कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।

6. बैंकिंग सम्बन्ध- व्यावसायिक संस्था के बैंकिंग संस्थाओं से सम्बन्धों का भी कार्यशील पूँजी की मात्रा पर प्रभाव पड़ता है। यदि व्यावसायिक संस्था के बैंकिंग संस्थाओं से अच्छे एवं मधुर सम्बन्ध हैं तथा बैंकिंग संस्थाओं में उसकी साख अच्छी है तो वह आवश्यकता पड़ने पर सरलता से एवं यथाशीघ्र साख पर धन प्राप्त कर सकती है। अतएव कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, बैंकिंग संस्थाओं से अस्वस्थ सम्बन्धों के होने की दशा में उसे अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।

7. मुद्रा स्फीति- मुद्रा स्फीति से हमारा अभिप्राय मूल्य वृद्धि से हैं। परिणामस्वरूप उत्पादन व बिक्री के पूर्व स्तर को बनाए रखने के लिए अधिक पूँजी की आवश्यकता रहेगी। अतः मुद्रा स्फीति की दर में वृद्धि होने के साथ कार्यशील पूँजी की आवश्यकता में भी वृद्धि होती है।  

11. स्थायी पूँजी को प्रभावित करने वाले घटक/ तत्व अथवा स्थायी पूँजी की मात्रा के निर्धारक घटक क्या हैं? 

उत्तर- स्थायी पूँजी को प्रभावित / निर्धारित करने वाले प्रमुख घटक/ तत्व निम्नलिखित हैं- 

1. व्यवसाय की प्रकृति – स्थायी पूँजी की आवश्यकता व्यवसाय की प्रकृति पर निर्भर करती है। व्यवसाय की प्रकृति सामान्यतः दो प्रकार की होती है-निर्माणी व्यवसाय (Manufacturing Business) तथा व्यापारिक व्यवसाय (Trading Business ) । निर्माणी व्यवसाय में स्थायी सम्पत्तियों, जैसे- भूमि, भवन, मशीनरी तथा फर्नीचर आदि में पूँजी के अत्यधिक विनियोजन की आवश्यकता होती है। अतएव अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, व्यापारिक व्यवसाय में तैयार माल का क्रय-विक्रय किया जाता है, अतएव अपेक्षाकृत कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

2. इकाई का आकार / पैमाना – व्यावसायिक इकाई का आकार / पैमाना भी स्थायी पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करता है। बड़े आकार / पैमाने वाली व्यावसायिक इकाई, जैसे- रेलवे, वायुयान, पानी का जहाज, लोहा एवं इस्पात, सार्वजनिक यातायात उपक्रम आदि में बड़ी मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, छोटे आकार / पैमाने वाली व्यावसायिक इकाइयों में कम मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती ।

3. उत्पादन ( यन्त्रीकरण) की तकनीक – निर्माण व्यावसायिक इकाइयाँ, जिनमें बड़े आकार वाले एवं स्वचालित यन्त्रों के द्वारा उत्पादन किया जाता है, बड़ी मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता होता है। इसके विपरीत, जिन व्यावसायिक इकाइयों में लघु यन्त्रों एवं अधिकांश : मानव-शक्ति द्वारा उत्पादन होता है, उनमें कम मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

4. स्थायी सम्पत्तियों को प्राप्त करने की विधि – व्यवसाय के लिए आवश्यक स्थायी सम्पत्तियों का क्रय नकद राशि का भुगतान करके अथवा किस्तों पर किया जा सकता है। जो व्यावसायिक इकाइयाँ नकद राशि का भुगतान करके स्थायी सम्पत्तियों का क्रय करती हैं, उनमें अधिक मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत, जो व्यावसायिक इकाइयाँ किस्तों आदि के आधार पर स्थायी सम्पत्तियों का क्रय करती हैं, उनमें अपेक्षाकृत कम मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

5. विकास की सम्भावनाएँ – यदि संगठन ऐसा है जिसमें विकास की अधिक सम्भावनाएँ हैं तो ऐसे संगठन के लिए भविष्य में अतिरिक्त स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी जिसके लिए संगठन में पहले से ही वित्तीय स्रोतों का चयन कर लिया जाना चाहिए ताकि आवश्यकता के समय अतिरिक्त वित्त शीघ्र ही उपलब्ध कराया जा सके।

6. वित्त व्यवस्था विकल्प- प्राय: स्थायी सम्पत्ति में विनियोग के लिए दीर्घकालीन पूँजी स्रोतों जैसे- समता अंश पूँजी, पूर्वाधिकारी अंश पूँजी, ऋणपत्र इत्यादि का प्रयोग किया जाता है परन्तु वर्तमान में वित्त का एक और स्रोत पट्टेदारी (Leasing) उभरा है जिसके अनुसार, स्थायी सम्पत्ति को क्रय करने के स्थान पर उन्हें पट्टे (Lease) पर ले लिया जाता है, परिणामस्वरूप स्थायी पूँजी की आवश्यकता में कमी आती है।

12. कार्यशील पूँजी की आवश्यकता आप कैसे निर्धारित करेंगे ? अथवा (or), कार्यशील पूँजी को प्रभावित करने वाले तत्वों का वर्णन करें। 

उत्तर – कार्यशील पूँजी की आवश्यकता के निर्धारक – कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक निम्नलिखित हैं-

(i) व्यवसाय की प्रकृति – एक उपक्रम में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता इसकी प्रकृति पर निर्भर करती है। व्यापारिक संस्थाओं को स्थिर पूँजी में कम विनियोग करना होता है किन्तु चालू सम्पत्तियों में बड़ी रकम विनियोग करने की आवश्यकता होती है। अत: उनकी कार्यशील पूँजी की आवश्यकता बहुत अधिक होती है। इसके विपरीत निर्माणी संस्थाओं में स्थिर पूँजी की आवश्यकता बड़े पैमाने पर होती हैं, जबकि कार्यशील पूँजी की आवश्यकता तुलनात्मक कम होती है।

(ii) संचार चक्र – संचार चक्र का आशय उन सभी अवस्थाओं से है जिनसे होकर रोकड़ गुजरती है एवं अन्ततः रोकड़ में परिवर्तित हो जाती है। निर्माणी संस्थाओं में यह चक्र सामग्री के क्रम से प्रारम्भ होता है और उत्पाद की बिक्री पर समाप्त होता है। प्रत्येक अवस्था समय लेने वाली होती है जिससे चक्र का प्रारम्भ एवं अन्त होने में अधिक समय लगता है। परिणामतः ऐसी संस्थाओं में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अधिक होती है।

(iii) संचालन का पैमाना – यदि व्यवसाय का संचालन वृहत् पैमाने पर होता है तो कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अधिक एवं छोटे पैमाने पर संचालन की स्थिति में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता कम होगी।

(iv) साख नीति – वैसे व्यवसाय जो उधार माल खरीदते हैं एवं नकद में बिक्री करते हैं, कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत यदि व्यवसाय में नकद माल खरीदा जाता है और उधार में बेचा जाता है तो कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अधिक होगी। 

(v) मौसमी परिवर्तन – यदि किसी निर्माणी संस्था को आवश्यक सामग्री सालों उपलब्ध नहीं होती है तो उन्हें बड़ी मात्रा में सामग्री की इन्वेन्टरी व्यवस्था करके रखनी होती है जिससे कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अधिक होती है। इसके विपरीत स्थिति में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता कम होती है।

(vi) माँग में परिवर्तन – कुछ व्यवसाय गृहों को मौसमी माँग की समस्या का सामना करना पड़ता है। इन्हें वस्तुओं के स्टॉक की वर्ष पर्यन्त व्यवस्था करनी होती है जबकि उनकी माँग मौसमी आधार पर होती है। परिणामत: उन्हें अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार तेजी के समय में अधिक एवं मन्दी के समय में कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।

(vii) अर्जन क्षमता एवं लाभांश नीति  – एक उपक्रम एकाधिकारी स्थिति एवं अन्य कारणों से यदि अधिक लाभ अर्जित करने की स्थिति में है तो उसे कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत यदि कोई कम्पनी अपने लाभ की तुलना में अधिक दर से लाभांश देने की नीति अपनाती है तो उसे अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।

(viii) व्यवसाय का आकार – यदि व्यवसाय का आकार वृहत् है तो अधिक कार्यशील पूँजी एवं आकार छोटा होने पर कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। व्यवसाय के आकार का निर्धारण संचालन के पैमाने पर किया जा सकता है या फिर सम्पत्तियाँ अथवा बिक्री के आधार पर किया जा सकता है।

13. स्थायी पूँजी तथा कार्यशील पूँजी में क्या अन्तर है? 

उत्तर- स्थायी पूँजी तथा कार्यशील पूँजी में अन्तर 

स्थायी पूँजी- 

1. स्थायी पूँजी से आशय उस पूँजी की मात्रा से है जिसका निवेश स्थायी सम्पत्तियों (जैसे- भूमि, भवन, मशीनरी, फर्नीचर आदि) में किया जाता है।

2. स्थायी पूँजी दीर्घकाल के लिए होती है।

3. स्थायी पूँजी स्थिर प्रकृति की होती है।

4. स्थायी पूँजी स्थायी रूप से अवरुद्ध हो जाती है तथा दैनिक व्यावसायिक क्रियाओं के लिए उपलब्ध नहीं होती है।

5. स्थायी पूँजी अंशों तथा ॠण-पत्रों के निर्गमन तथा दीर्घ- कालीन वित्तीय ऋणों के माध्यम से प्राप्त होती है।

6. स्थायी पूँजी की आवश्यकता स्थायी सम्पत्ति (जैसे- भूमि, भवन, मशीनरी, फर्नीचर आदि) के क्रय करने के लिए होती है।

कार्यशील पूँजी- 

1. कार्यशील पूँजी से आशय उस पूँजी की मात्रा से है जिसका निवेश चालू सम्पत्तियों (जैसे- प्राप्य विपत्र, विविध देनदार, कच्चा माल, अर्द्ध-निर्मित माल तथा निर्मित माल) में किया जाता है।

2. कार्यशील पूँजी अल्पकाल के लिए होती है।

3. कार्यशील पूँजी अस्थिर प्रकृति की होती है अर्थात् जल्दी- जल्दी परिवर्तित होती रहती है।

4. कार्यशील पूँजी कार्यशील एवं घूमती रहती है तथा इसका | उपयोग दैनिक व्यावसायिक क्रियाओं के लिए किया जाता है। कार्यशील पूँजी अल्पावधि वित्त प्रदान करने वाले स्रोतों से प्राप्त होती है, जैसे- वाणिज्यिक बैंक, व्यापारिक उधार, ग्राहकों से अग्रिम आदि ।

5. कार्यशील पूँजी की आवश्यकता चालू सम्पत्तियों (जैसे- देनदार, स्टॉक, प्राप्य विपत्र, रोकड़ी शेष) के रखने तथा दैनिक व्ययों का भुगतान करने के लिए होती है। 

14. पूँजी के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें। 

उत्तर- पूँजी के निम्न दो प्रकार हैं-
(1) स्थायी पूँजी – स्थायी पूँजी को अचल पूँजी भी कहते हैं। स्थायी पूँजी से आशय पूँजी के उस भाग से है जिसका निवेश स्थायी सम्पत्तियों जैसे कि भूमि, भवन, मशीनरी, फर्नीचर, उपकरण आदि की खरीद के लिए किया जाता है। इन सम्पत्तियों का क्रय करने का उद्देश्य लम्बे समय तक इनसे आय अर्जित करना होता है। चूँकि यह पूँजी एक लम्बे समय तक व्यवसाय में अवरुद्ध रहती है, अतएव इसे स्थायी पूँजी कहते हैं।
स्थायी पूँजी का प्रबन्ध – स्थायी पूँजी के प्रबन्ध से आशय स्थायी पूँजी की आवश्यकता का सही-सही अनुमान लगाने से है। यह अनुमान स्थायी सम्पत्ति की आवश्यकता पर निर्भर करता है। पहले व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार के अनुसार स्थायी सम्पत्तियों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जाता है और तत्पश्चात् स्थायी पूँजी की आवश्यकता का । इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात है कि स्थायी सम्पत्तियों में विनियोजन सामान्यत: उपक्रम की लाभदायकता पर निर्भर करता है। उपक्रम की लाभदायकता जितनी अधिक होगी, उसके लिए स्थायी सम्पत्तियों में धन के विनियोजन की आवश्यकता उतनी ही अधिक होगी।

(2) कार्यशील पूँजी- सरल शब्दों में, कार्यशील पूँजी से आशय चालू सम्पत्तियों के चालू दायित्व पर आधिक्य से हैं। दूसरे शब्दों मैं, यदि चालू सम्पत्तियों के योग में से चालू दायित्वों के योग को घटा दिया जाये तो जो शेष बचेगा, वह ‘कार्यशील पूँजी’ कहलायेगी। चालू सम्पत्तियों से आशय उन सम्पत्तियों से है जो स्थिर न रहकर बदलती रहती हैं, जैसे- हस्ते रोकड़, बैंक में रोकड़, विविध देनदार, अन्तिम स्टॉक, प्रदत्त आय प्राप्य विपत्र, विपणन ” योग्य प्रतिभूतियाँ, पूर्वदत्त व्यय आदि, जबकि चालू दायित्व से आशय उन दायित्वों से है जिनका यथाशीघ्र भुगतान (सामान्यत: एक वर्ष) में करना होता है; जैसे- बैंक अधिविकर्ष, विविध लेनदार, देय विपत्र, अदत्त व्यय आदि । 

कार्यशील पूँजी की अवधारणाएँ – कार्यशील पूँजी के सम्बन्ध में निम्न दो अवधारणाएँ प्रचलन में हैं-
(i) सकल कार्यशील पूँजी अवधारणा – इस अवधारणा के अनुसार समस्त चालू सम्पत्तियों का योग ही सकल कार्यशील पूँजी है। चालू सम्पत्तियों से आशय उन सम्पत्तियों से है जिन्हें लेखांकन वर्ष के दौरान रोकड़ में परिवर्तित किया जा सकता है; जैसे- रोकड़ हस्ते, बैंक में रोकड़, प्राप्य विपत्र, अल्पकालीन विनियोग, विविध देनदार, अन्तिम स्टॉक आदि।

(ii) शुद्ध कार्यशील पूँजी – कार्यशील पूँजी से आशय शुद्ध कार्यशील पूँजी से है। यदि चालू सम्पत्तियों के योग से चालू दायित्वों के योग को घटा दिया जाये तो जो शेष बचेगा, वह शुद्ध कार्यशील पूँजी होगी। इस शुद्ध कार्यशील पूँजी का नाम ही कार्यशील पूँजी से है। इस प्रकार,

कार्यशील पूँजी = चालू सम्पत्तियाँ – चालू दायित्व  “अथवा” कार्यशील पूँजी = सकल कार्यशील पूँजी – चालू दायित्व

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