Eps Class 12 Chapter 6 Subjective in Hindi

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व्यावसायिक नियोजन

1. नियोजन सदैव भविष्य को ध्यान में रखकर किया जाता है। समझाइए

उत्तर- वास्तव में नियोजन का सार ही भविष्य है जो भी योजनाएं बनाई जाती हैं, उन्हें कार्य रूप भविष्य में दिया जाता है। यदि व्यवसाय को अगले वर्ष की उत्पादन योजना बनाती है तो उसे भविष्य की माँग को, संस्था के वर्तमान और भावी साधनों को तथा सरकारी नीतियों को ध्यान में रखना होगा।

2. क्या नियोजन में निर्णयन सम्मिलित है?

उत्तर- हाँ, नियोजन में निर्णयन सम्मिलित होता है। नियोजन की जरूरत उस समय होती है जब किसी क्रिया को करने के लिए अनेक विकल्प हो । नियोजनकर्ता विभिन्न विकल्पों में से सर्वाधिक उपयुक्त विकल्प का चयन करता है। अतः कहा जा सकता है कि नियोजन सर्वोत्तम को चुनने व अनुपयुक्त को अस्वीकार करने की प्रक्रिया है।

3. क्या नियोजन भविष्यवादी है ?

उत्तर- हाँ, नियोजन भविष्यवादी है क्योंकि नियोजन के अन्तर्गत यह निश्चित किया जाता है कि क्या किया जाना है? कैसे किया जाना है? कब किया जाना है?, किसके द्वारा किया जाना है? ये सभी भविष्य से सम्बन्धित हैं।

4. व्यवसाय नियोजन के दो उद्देश्यों का वर्णन करें।

उत्तर- व्यवसाय नियोजन के दो उद्देश्य निम्नांकित हैं- (1) कार्य का संचालन करने के लिए आधार की व्यवस्था करना तथा योजना में प्रत्येक भाग लेने वाले के बीच उत्तरदायित्व का निर्धारण करना। (ii) परियोजना में भाग लेने वालों को आगे (भविष्य) देखने के लिए प्रेरित करना।

5. व्यावसायिक नियोजन क्या है?

उत्तर- ‘नियोजन’ किसी कार्य को करने से पूर्व सोच-विचार करने एवं सर्वोत्तम विधि के चयन करने की बौद्धिक प्रक्रिया है। भविष्य के गर्भ में झाँककर सर्वोत्तम वैकल्पिक कार्य पथ का चयन करना ही व्यावसायिक नियोजन कहलाता है।

6. क्या नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है? समझायें।

उत्तर- नियोजन निर्णय लेने से सम्बन्धित है। वास्तव में निर्णय लेना और चयन करना नियोजन के लिए इतने आवश्यक हैं कि विभिन्न विकल्प खोजे बिना नियोजन- सम्बन्धी समस्याएँ पूरी नहीं हो सकतीं। इस प्रकार नियोजन एक बौद्धिक क्रिया है जिसमें निर्णय कहाँ और कैसे लिए जाने हैं और उचित प्रकार से विकसित, विश्लेषित एवं मूल्यांकित विकल्पों में से उचित विकल्प का चयन करना इस क्रिया में शामिल है।

7. एक आदर्श योजना की विशेषताएँ बताइए।

उत्तर- एक श्रेष्ठ अथवा आदर्श नियोजन के लिए निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं-

(1) नियोजन सदैव सरल व स्पष्ट होना चाहिए ताकि उसे समझने में कोई कठिनाई न आए। (2) नियोजन स्पष्ट रूप से परिभाषित उद्देश्य पर आधारित होना चाहिए। (3) नियोजन लोचपूर्ण होना चाहिए ताकि उसमें भावी परिस्थितियों के अनुरूप समायोजन किया जा सके। (4) नियोजन में विभिन्न वैकल्पिक क्रियाओं मैं से सर्वोत्तम क्रिया का चयन करने की क्षमता होना चाहिए।

9. उतावले निर्णयों पर रोक लगाने के लिए नियोजन आवश्यक है। समझाइये।

उत्तर- नियोजन उतावले निर्णयों पर रोक लगाता है। लुइस ए. ऐलन के अनुसार, “नियोजन के माध्यम से उतावले निर्णयों और अटकलबाजियों को समाप्त किया जाता है।” नियोजन के अन्तर्गत उपलब्ध साधनों के विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन किया जाता है, साथ ही उसे श्रेष्ठ ढंग से निष्पादित करने का भी प्रयास किया जाता है। चूँकि इस कार्य में साधन, समय एवं चिन्तन तीनों का ही योगदान होता है, अतः लिये गये निर्णय ठोस होते हैं, उतावले नहीं।

9. नियोजन की कोई तीन सीमाएँ बताइये।

उत्तर- नियोजन की तीन सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) पूर्वानुमान पर आधारित (Based on Forecasting) – नियोजन पूर्वानुमान पर आधारित होता है और अनुमान यथार्थ नहीं होता। यदि परिस्थितियाँ अनुमान के विपरीत हो गयीं तो नियोजन का धराशायी हो जाना स्वाभाविक है।

(2) राजनीतिक अस्थिरता (Political Instability ) – सरकार की औद्योगिक, आर्थिक, मौद्रिक नीति के अनुरूप भावी योजनाएँ तय की जाती हैं। अब, यदि सरकार बदल जाये या इन नीतियों में परिवर्तन हो जाये तो नियोजन निष्क्रिय हो जाता है।

(3) पहल क्षमता में कमी (Reduction in Initiative Capacity)- नियोजन के चलते प्रत्येक अधिकारी एवं कर्मचारी को पूर्व निर्धारित लीक पर चलने की मजबूरी होती है जिसके चलते ये चाहते हुए भी किसी कार्य में पहल नहीं कर पाते। इससे लाभदायक अवसर भी हाथ से छूट जाता है।

10. नियोजन की कोई दो तकनीक बतायें

उत्तर- नियोजन की दो तकनीक निम्नलिखित हैं- (1) उद्देश्य का सुनिश्चितीकरण ( Fixation of Objectives)— सर्वप्रथम उपक्रम का उद्देश्य स्पष्ट और सुनिश्चित किया जाता है। उद्देश्य अस्पष्ट होने से नियोजन प्रभावी नहीं हो सकता। उद्देश्य अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन दोनों हो सकते हैं।

(2) सूचनाओं का एकत्रीकरण एवं विश्लेषण (Collection and Analysis of Informations) – उद्देश्य निर्धारित कर लेने के बाद उसकी पूर्ति के अनुरूप विभिन्न सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है। इन सूचनाओं को विश्लेषित करके योजना का आधार तय किया जाता है।

11. प्रभावशाली नियन्त्रण में नियोजन की क्या भूमिका है?

उत्तर- नियोजन के अन्तर्गत प्रत्येक प्रबन्धक अपने अधीनस्थों की प्रक्रिया पर सर्वोत्तम ढंग से नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयत्न करता है। नियोजन को प्रभावी बनाने के लिए नियोजित ढंग से अधीनस्थों की क्रियाओं का माप भी किया जाता है। यही नहीं, बजट भी नियोजन का एक अंग है और साथ ही यह नियन्त्रण का भी एक अंग है, अतः बजट द्वारा भी प्रबन्धकीय नियन्त्रण प्रभावी बनता है।

12. नियोजन में समयबद्धता क्यों आवश्यक है?

उत्तर- योजना के निर्माण में अवधि का महत्वपूर्ण स्थान है। कौन सा लक्ष्य कब प्राप्त करना है, का सुनिश्चितीकरण पहले से कर लिया जाता है। इस दृष्टि से योजना तीन तरह की होती है-

(1) अल्पकालीन योजना (Short-term Plans) – जब योजना एक वर्ष या इससे कम अवधि के लिए बनायी जाये तो यह अल्पकालीन योजना कहलाती है।

(ii) मध्यकालीन योजना (Middle term Plans) – जब योजना एक वर्ष से अधिक और पाँच वर्ष से कम अवधि के लिए तैयार की जाये तो यह मध्यकालीन योजना कहलाती है।

(iii) दीर्घकालीन योजना (Long-term Plans) – दीर्घकालीन योजनाएँ लम्बी अवधि अर्थात् पाँच वर्ष से अधिक समय के लिये तैयार की जाती है।

13. नियोजन की कोई तीन विशेषताएँ बतायें

उत्तर- (1) निर्धारित उद्देश्य एवं लक्ष्य होना (Definite Object and Goal) – नियोजन का कार्य निर्धारित लक्ष्य एवं उद्देश्य को पूर्ति के लिए किया जाता है, अतः प्रत्येक नियोजक इस लक्ष्य को सदैव ध्यान में रखता है और उसी के अनुरूप अपनी योजनाएँ बनाता है।

(2) पूर्वानुमान लगाना (Forecasting) – नियोजन का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण भविष्य के बारे में देखना अर्थात् पूर्वानुमान लगाना है। फेयोल के अनुसार, “नियोजन विभिन्न प्रकार के पूर्वानुमानों का, चाहे वे अल्पकालीन हॉ अथवा दीर्घकालीन, सामान्य हों अथवा विशिष्ट, संश्लेषण (Synthesis) होता है।”

(3) एकता (Unity)- फेयोल के अनुसार, एकता भी नियोजन का एक आवश्यक लक्षण है। एक समय में केवल एक योजना ही कार्यान्वित की जा सकती है क्योंकि दो विभिन्न योजनाओं के होने पर दुविधा, आन्ति एवं अव्यवस्था फैलेगी।

14. व्यावसायिक नियोजन क्या है?

उत्तर- नियोजन का अर्थ (Meaning of Planning) सरलतम शब्दों मैं, नियोजन कार्य को करने से पूर्व सोचने की प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में, कल के कार्य का आज ही निर्धारण करना नियोजन है। निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भविष्य में क्या करना है, क्यों करना है, किसे करना है, कब करना है, कैसे करना है, किन-किन साधनों के उपयोग से करना है ? आदि बातों का पूर्व निर्धारण ही नियोजन है। उपक्रम द्वारा निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने के विभिन्न विकल्प हो सकते हैं। उनसे अपने सीमित उपलब्ध साधनों के अनुरूप सर्वोत्तम विकल्प का चयन किया जाना ही नियोजन है।

15. नियोजन के प्रकार का चित्र बनाइए।

उत्तर-  नियोजन के प्रकार–  (1) कार्य के आधार पर-(i) उच्च स्तरीय (ii) मध्यम स्तरीय (iii) निम्न स्तरीय

(2) अवधि के आधार पर- (i) अल्प कालीन (ii) मध्यम कालीन (iii) दीर्घ कालीन

(3) उपयोग के आधार पर- (i) स्थिर नियोजन (ii) एकल प्रयोग नियोजन

16. नियोजन के उद्देश्य बताइए।

उत्तर- (1) भावी कार्यों में निश्चितता, (2) पूर्वानुमान लगाना, (3) निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति, (4) प्रतिस्पर्द्धा पर विजय प्राप्त करना, (5) प्रबन्ध में मितव्ययिता, (6) साम्य व समन्वय की स्थापना, (7) भावी जोखिम में कमी।

17. नियोजन के महत्व बताइए।

उत्तर – नियोजन का महत्व निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है-

(i) भावी अनिश्चितताओं तथा परिवर्तनों का सामना करने के लिए।

(ii) संगठनात्मक लक्ष्यों की ओर ध्यान केन्द्रित करने के लिए।

(iii) एकता एवं समन्वय स्थापित करने के लिए।

(iv) उतावले निर्णयों पर रोक लगाने के लिए।

(v) संगठन को प्रभावी बनाने के लिए।

(vi) नियन्त्रण को सुविधाजनक बनाने के लिए।

(vii) उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए।

18. नियोजन की क्या सीमाएँ हैं?

उत्तर- ऐसे तो नियोजन उपक्रम प्रबन्ध की एक अनिवार्य आवश्यकता है किन्तु यह रामबाण नहीं हो सकती क्योंकि नियोजन की अपनी कुछ सीमाएँ हैं, जैसे-

(1) पूर्वानुमान पर आधारित- नियोजन पूर्वानुमान पर आधारित होता है और अनुमान यथार्थ नहीं होता। यदि परिस्थितियाँ अनुमान के विपरीत हो गयीं तो नियोजन का धराशायी हो जाना स्वाभाविक है।

(2) राजनीतिक अस्थिरता- सरकार की औद्योगिक, आर्थिक, मौद्रिक नीति के अनुरूप भावी योजनाएँ तय की जाती हैं। अब, यदि सरकार बदल जाये या इन नीतियों में परिवर्तन हो जाये तो नियोजन निष्क्रिय हो जाता है।

(3) पहल क्षमता में कमी- नियोजन के चलते प्रत्येक अधिकारी एवं कर्मचारी को पूर्व-निर्धारित लीक पर चलने की मजबूरी होती है जिसके चलते ये चाहते हुए भी किसी कार्य में पहल नहीं कर पाते। इससे लाभदायक अवसर भी हाथ से छूट जाता है।

(4) लोचशीलता का अभाव – व्यावसायिक कार्यकलाप पर्यावरण से बँधे होते हैं जो हर समय करवटें बदलते रहते हैं; जैसे- तकनीकी परिवर्तन, फैशन या रुचि में परिवर्तन । नियोजन बन जाने के बाद इसमें हमेशा परिवर्तन करते रहने की गुंजाइश नहीं रह पाती जिसके चलते व्यवसाय को नुकसान झेलना पड़ता है।

(5) खर्चीली प्रणाली – नियोजन एक खर्चीली प्रक्रिया होती है क्योंकि इसके लिए आँकड़ों एवं सूचनाओं का एकत्रीकरण, विश्लेषण, सर्वोत्तम पद्धति का चुनाव आदि करना पड़ता है। कुल मिलाकर यह खर्चीली प्रणाली साबित होती है।

(6) दोषपूर्ण तकनीक –  यदि नियोजन के लिये सही आधार (Base) का चुनाव नहीं हो सका तो सारी प्रक्रिया ही दोषपूर्ण हो जाती है।

(7) विपरीत परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त- नियोजन वैसी परिस्थिति में अनुपयुक्त होता है जब अचानक कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसका पूर्वानुमान पहले से कर पाना मुश्किल था।

(8) कुछ व्यापार के लिये अनुपयुक्त- फैशन, शेयर बाजार, सूचना तकनीक आदि से जुड़े व्यवसाय में दीर्घकालीन नियोजन अनुपयुक्त होता है क्योंकि यहाँ दिन-प्रतिदिन परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं।

19. नियोजन के विभिन्न प्रकार बतायें।

उत्तर – व्यवसाय में अनेक तरह की योजना बनाने की जरूरत पड़ती है। अतः इन योजनाओं को हम इस प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं-

(1) कार्य के आधार पर – उपक्रम के कार्य प्रायः तीन स्तरों पर सम्पादित होते हैं। अत: इन तीनों स्तरों के लिए अलग-अलग योजनाएँ बनायी जाती हैं-

(i) उच्च-स्तरीय योजनाएँ – इस योजना के अन्तर्गत उपक्रम की सामान्य नीति, उद्देश्य, बाजार, विस्तार आदि से सम्बन्धित मसौदे उच्च प्रबन्धकों द्वारा तय किये जाते हैं।

(ii) मध्य-स्तरीय योजनाएँ – उच्च प्रबन्धकों द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मध्य-स्तरीय प्रबन्धकों द्वारा ऐसी युक्तियाँ निर्धारित की जाती हैं जिससे लक्ष्य भेदना आसान हो जाता है।

(iii) निम्न-स्तरीय योजनाएँ – यह योजना कार्य के बँटवारे से सम्बन्धित होती है। यह उपक्रम के पर्यवेक्षक स्तर पर बनायी जाती है।

(2) अवधि के अनुसार – योजना के निर्माण में अवधि का महत्वपूर्ण स्थान है। कौन-सा लक्ष्य कब प्राप्त करना है, का सुनिश्चितीकरण पहले से कर लिया जाता है। इस दृष्टि से योजना तीन तरह की होती है-

(i) अल्पकालीन योजना – जब योजना एक वर्ष या इससे कम अवधि के लिए बनायी जाये तो यह अल्पकालीन योजना कहलाती है।

(ii) मध्यकालीन योजना – जब योजना एक वर्ष से अधिक और पाँच वर्ष से कम अवधि के लिये तैयार की जाये तो यह मध्यकालीन योजना कहलाती है।

(iii) दीर्घकालीन योजनाएँ- दीर्घकालीन योजनाएँ लम्बी अवधि अर्थात् पाँच वर्ष से अधिक समय के लिये तैयार कीजाती हैं।

(3) उपयोग के आधार पर – उपयोग के आधार पर दो तरह के नियोजन तैयार किये जाते हैं-

(i) स्थिर योजना – यह योजना एक ही बार बनायी जाती है जो उपक्रम की कार्य-विधि, सामान्य संचालन के सम्बन्ध में उद्देश्य के अनुरूप नीतियों, नियमों, युक्तियों आदि का निर्धारण करती है। इन्हीं निर्धारित मापदण्डों के आधार पर उपक्रम का कार्य संचालित होता रहता है।

(ii) एकल प्रयोग योजना – किसी विशेष परिस्थिति के उत्पन्न हो जाने पर इसके समाधान के लिये एकल प्रयोग योजना बनायी जाती है। कार्य पूरा हो जाने के बाद यह योजना स्वतः समाप्त हो जाती है। बजट तैयार करना या कोई विशेष कार्यक्रम बनाना इसी योजना के उदाहरण हैं।

20. साहसी के लिए नियोजन क्यों महत्वपूर्ण है? “अथवा” आधुनिक समय में नियोजन का क्या महत्व है?

उत्तर- जिस प्रकार बिना उपयुक्त हथियार के सैनिक, बिना अध्ययन के शिक्षक, बिना पतवार के नाविक तथा बिना कलम के लेखक अपना कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार बिना नियोजन के व्यवसायी सफलता की कामना नहीं कर सकता। नियोजन पग-पग पर व्यवसायी का मार्गदर्शन करता है, भावी कठिनाइयों एवं खतरों के प्रति सचेत करता है तथा उन पर विजय पाना सुलभ बनाता है। नियोजन के अभाव में सारा व्यवसाय अस्त-व्यस्त हो जायेगा, अत: पग-पग पर इसकी आवश्यकता होती है। नियोजन की आवश्यकता एवं महत्व निम्नलिखित तथ्यों से और अधिक स्पष्ट हो जायेगा-

(1) भावी अनिश्चितताओं तथा परिवर्तनों का सामना करने के लिए – यदि भविष्य निश्चित होता तथा उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना नहीं होती तो नियोजन की आवश्यकता ही नहीं होती। एक बार कार्य-प्रणाली निश्चित कर लेने के पश्चात् सदा उस पर चला जा सकता था किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं । भविष्य तो सदा से ही अनिश्चित एवं परिवर्तनशील रहा है। इन अनिश्चितता एवं परिवर्तनशीलता का सामना करने के लिए नियोजन की आवश्यकता पड़ती है।

(2) संगठनात्मक लक्ष्यों की ओर ध्यान केन्द्रित करने के लिए— चूँकि नियोजन व्यावसायिक उपक्रम के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है, अत: नियोजन करने का अर्थ होता है, लक्ष्यों की ओर ध्यान केन्द्रित करना । परिणामस्वरूप उपक्रम का प्रत्येक विभाग, अधिकारी एवं कर्मचारी सदैव उपक्रम के लक्ष्यों के प्रति जागरूक एवं सजग रहता है तथा उन्हें प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास करता रहा है। प्रत्येक विभागाध्यक्ष अपने विभाग की नीतियों, विधियों, कार्यक्रमों तथा मोर्चाबन्दी आदि को अन्य विभागों का प्रतिद्वन्द्वी न बनाकर पूरक बनाने का प्रयत्न करता है, फलस्वरूप लक्ष्यों की प्राप्ति करना सरल हो जाता है।

(3) एकता एवं समन्वय स्थापित करने के लिए – उपक्रम द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं। इन क्रियाओं के मध्य जब तक एकता एवं समन्वय स्थापित नहीं किया जायेगा, तब तक लक्ष्य पर पहुँचना कठिन होगा। विभिन्न क्रियाओं के मध्य प्रभावी एकता एवं समन्वय स्थापित करने का यह कार्य नियोजन द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इसके साथ-साथ उपक्रम की सम्पूर्ण संगठन व्यवस्था में इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है कि एक ही कार्य को पुनः न दोहराया जाये तथा विभिन्न क्रियाओं के मध्य कहीं टकराव न हो जाये। यदि ऐसा हुआ तो निर्धारित लक्ष्य के समीप पहुँचने की बजाय उससे उतने ही अधिक दूर होते चले जायेंगे। इस प्रकार नियोजन की आवश्यकता उपक्रम के विभिन्न कार्यों में एकता एवं समन्वय स्थापित करने के लिए होती है।

(4) उतावले निर्णयों पर रोक लगाने के लिए—नियोजन उतावले निर्णयों (Hasty Decisions) पर रोक लगाता है। लुइस ए. ऐलन के अनुसार, “नियोजन के माध्यम से उतावले निर्णयों और अटकलबाजियों को समाप्त किया जाता है।” इसका कारण यह है कि नियोजन में साधनों के सन्दर्भ में उपलब्ध विकल्पों में सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन किया जाता है एवं श्रेष्ठ ढंग से उसे निष्पादित करने का प्रयास किया जाता है। चूँकि इस कार्य में साधन, समय एवं चिन्तन तीनों का ही योगदान होता है, अत: लिये गये निर्णय ठोस होते हैं, उतावले नहीं ।

(5) क्रियाओं में मितव्ययिता लाने के लिए- नियोजन द्वारा व्यावसायिक उपक्रम में कार्य करने की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली का चयन करके उसके अनुसार ही सारा कार्य किया जाता है। विभिन्न कार्यों में तारतम्य एवं समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। समस्त निर्णय पर्याप्त विचार-विनिमय एवं विवेकपूर्ण ढंग से लिये जाते हैं। अनिश्चितताओं एवं अस्थिरताओं का सामना करने के लिए भी नियोजन में पर्याप्त प्रावधान रखा जाता है। अत: क्रियाओं में अपव्यय के स्थान पर मितव्ययिता आती है तथा संचालन व्यय एवं लागत व्यय में पर्याप्त कमी हो जाती है।

(6) संगठन को प्रभावी बनाने के लिए – नियोजन संगठन को प्रभावी बनाता है और वांछित परिणामों की प्राप्ति में लगने वाली आवश्यक देरी तथा लाल फीताशाही को समाप्त करके प्रबन्धकीय कार्यों को गति प्रदान करता है। यह अव्यवस्थित, अर्थहीन तथा अनावश्यक क्रियाओं के स्थान पर सुव्यवस्थित, अर्थपूर्ण एवं आवश्यक क्रियाओं को जन्म देता है। यह दोहरी क्रियाओं की समाप्ति करके संगठन में होने वाले अपव्यय पर रोक लगाता है। इस प्रकार कुशल नियोजन से संगठन प्रभावी बनता है तथा उसकी गति तीव्र हो जाती है।

(7) उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए – नियोजन विभिन्न क्रियाओं में एकता एवं समन्वय स्थापित करने में सहायक है जिसके परिणामस्वरूप उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग किया जाना सम्भव हो जाता है।

(8) नियन्त्रण को सुविधाजनक बनाने के लिए – नियोजन के अन्तर्गत प्रत्येक प्रबन्धक अपने अधीनस्थों की प्रक्रिया पर सर्वोत्तम ढंग से नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न करता है। नियोजन को प्रभावी बनाने के लिए नियोजित ढंग से अधीनस्थों की क्रियाओं का माप भी किया जाता है। यही नहीं, बजट भी नियोजन का एक अंग है और साथ ही यह नियंत्रण का भी एक अंग है, अतः बजट द्वारा भी प्रबन्धकीय नियंत्रण प्रभावी बनता है।

21. नियोजन की प्रक्रिया का संक्षिप्त वर्णन करें।

उत्तर- व्यवसाय का पैमाना, आकार, प्रकृति चाहे जो भी हो, नियोजन का बनाया जाना सभी के लिए एक ध्रुव सत्य है। हाँ, प्रत्येक व्यवसाय के लिए नियोजन की प्रक्रिया एक जैसी निर्धारित नहीं की जा सकती। फिर भी सामान्यतः एक व्यावसायिक नियोजन को निम्नांकित प्रक्रियाओं से गुजरना ही पड़ता है-

(1) उद्देश्य का सुनिश्चितीकरण – सर्वप्रथम उपक्रम का उद्देश्य स्पष्ट और सुनिश्चित किया जाता है। उद्देश्य अस्पष्ट होने से नियोजन प्रभावी नहीं हो सकता। उद्देश्य अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन दोनों हो सकते हैं।

(2) सूचनाओं का एकत्रीकरण एवं विश्लेषण – उद्देश्य निर्धारित कर लेने के बाद उसकी पूर्ति के अनुरूप विभिन्न सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है। इन सूचनाओं को विश्लेषित करके योजना का आधार तय किया जाता है।

(3) वैकल्पिक तरीकों का चुनाव—कार्य/उद्देश्य प्राप्ति के कई वैकल्पिक तरीके उपलब्ध हुआ करते हैं। इन तरीकों का मूल्यांकन अर्थात् इनकी विधि, लागत प्रभाव आदि का अध्ययन करके इनमें से सर्वोत्तम तरीके का चुनाव किया जाता है।

(4) नियोजन की सीमाओं का अध्ययन – नियोजन भविष्य के लिए बनाया जाता है। अत: सर्वोत्तम वैकल्पिक तरीके का चुनाव कर लेने के साथ ही इसकी सीमाओं का अध्ययन भी कर लेना चाहिए । योजना के क्रियान्वयन में आने वाली बाधाओं का पूर्व-अवलोकन करके इसमें थोड़ा परिवर्तन की गुंजाइश रखनी चाहिए।

(5) नियोजन का निर्माण – अब मुख्य उद्देश्य के अनुरूप नियोजन की निर्माण प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। यहाँ क्रमानुसार आगे के कदम निर्धारित करते हुए विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार करके योजना को अन्तिम रूप दे दिया जाता है।

(6) उप-योजनाओं का निर्माण – मुख्य योजना की सहायता के लिए अनेक उप-योजनाएँ तैयार की जाती हैं। ताकि उद्देश्य की प्राप्ति सुगम और आसान हो जाये। ये उप-योजनाएँ पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं होतीं बल्कि मुख्य योजना का ही अंग होती हैं।

22. नियोजन की परिभाषा दें। इसकी विशेषताएँ बताइए । “अथवा” नियोजन की प्रकृति का वर्णन कीजिए।

उत्तर— नियोजन की परिभाषाएँ – प्रबन्ध के क्षेत्र में यद्यपि नियोजन सबसे अधिक जाना-पहचाना एवं लोकप्रिय शब्द है किन्तु फिर भी इसकी एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। कुछ प्रमुख प्रबन्ध विद्वानों द्वारा दी गयी नियोजन की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) बिली ई. गोज के अनुसार, “नियोजन ‘प्राथमिक रूप में चयन’ करना है तथा नियोजन की समस्या उसी समय उत्पन्न होती है, जबकि वैकल्पिक कार्यपक्षों का पता चलता है।”

(ii) ऐलन के अनुसार, “नियोजन भविष्य को पकड़ने के लिए बनाया गया पिंजरा है। “

* नियोजन के लक्षण अथवा विशेषताएँ अथवा प्रकृति*

नियोजन के प्रमुख लक्षण अथवा प्रकृति निम्नलिखित हैं-

(1) निर्धारित उद्देश्य एवं लक्ष्य – नियोजन का कार्य निर्धारित लक्ष्य एवं उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है, अतः प्रत्येक नियोजक इस लक्ष्य को सदैव ध्यान में रखता है और उसी के अनुरूप अपनी योजनाएँ बनाता है।

(2) पूर्वानुमान लगाना – नियोजन का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण भविष्य के बारे में देखना अर्थात् पूर्वानुमान लगाना है। फेयोल के अनुसार, “नियोजन विभिन्न प्रकार के पूर्वानुमानों का, चाहे वे अल्पकालीन हों अथवा दीर्घकालीन, सामान्य हों अथवा विशिष्ट, संश्लेषण (Synthesis) होता है। “

(3) एकता – फेयोल के अनुसार, एकता भी नियोजन का एक आवश्यक लक्षण है। एक समय में केवल एक योजना ही कार्यान्वित की जा सकती है क्योंकि दो विभिन्न योजनाओं के होने पर दुविधा, भ्रान्ति एवं अव्यवस्था फैलेगी।

(4) विभिन्न वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम का चयन – नियोजन का चतुर्थ महत्वपूर्ण लक्षण विभिन्न वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम क्रिया का चयन किया जाना है। प्रबन्धक के सामने विभिन्न लक्ष्य, नीतियाँ, विधियाँ तथा कार्यक्रम होते हैं। इन्हें पूरा करने के लिए सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करना होता है। उपक्रम की सफलता बहुत कुछ सीमा तक इस चयन के आधार पर ही निर्भर करती है।

(5) नियोजन एक निरन्तर एवं लोचयुक्त प्रक्रिया- भविष्य अज्ञात है। कल क्या होने वाला है, यह निश्चयात्मक रूप में कोई नहीं कह सकता; चूँकि नियोजन भी भविष्य के लिए किया जाता है, अत: इसमें भी अनिश्चितता का रहना स्वाभाविक ही है। नियोजन का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह भी है कि इसमें निरन्तरता एवं लोच रहनी चाहिए, ताकि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप इसमें आवश्यक परिवर्तन किया जा सके।

(6) प्राथमिक कार्य – नियोजन प्रबन्ध प्राथमिक कार्य है। किसी भी प्रबन्धकीय प्रक्रिया में नियोजन को सबसे पहले एवं प्रमुख स्थान दिया जाता है, अन्य सभी कार्य नियोजन के पश्चात् ही सम्पन्न किये जाते हैं। संस्था का लक्ष्य, जिसकी पूर्ति के लिए समस्त प्रबन्धकीय क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, नियोजन द्वारा ही निर्धारित किया जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रबन्ध के अन्य सभी कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।

(7) बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया नियोजन प्राथमिक रूप में एक बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया है। क्योंकि योजना बनाने वालों को सम्भावित कार्य विधियों एवं विकल्पों में से सर्वोत्तम का चयन करना होता है और यह कार्य दूरदर्शिता, विवेक एवं चिन्तन पर निर्भर करता है जिसे हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता

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