औपनिवेशिक शहर
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Class 12 History Chapter 12 Subjective Questions in Hindi
1. “ह्वाइट और ब्लैक” टाऊन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- चूँकि अंग्रेज रंग भेदभाव, जातीय भेदभाव की निन्दनीय नीतियों में विश्वास करते थे, अत: 1857 के विद्रोह के बाद उन्होंने महसूस किया कि श्वेत लोगों, महिलाओं तथा बच्चों को उनके सम्मान, सम्पत्ति आदि को अश्वेत अथवा देसी लोगों के सम्भावित खतरों से दूर रखने के लिए अधिक सुरक्षित व पृथक् बस्ती बनाई जानी जरूरी है। इसलिए इन नवीन नगरों की किलेबन्द बस्तियों में आमतौर पर यूरोपियन ही रहते थे। भारतीय व्यापारियों, कारीगरों तथा मजदूरों की बस्तियाँ इन किलों के बाहर बसायी जाती थीं। इन बस्तियों को यूरोपियन (अंग्रेज) ‘ब्लैक टाउन’ कहकर सम्बोधित करते थे। यूरोपियन इन ‘ब्लैक टाउन्स’ से कोई सम्पर्क नहीं रखना चाहते थे। यह टाउन मुख्य रूप से मद्रास, कलकत्ता, बम्बई में स्थापित थे । ‘व्हाइट टाउन’ सुविधा की दृष्टि से ‘ब्लैक टाउन’ से अधिक विकसित था । वहाँ अच्छे मार्ग, सीधी नालियाँ, सड़कें, उत्तम जल निकासी की व्यवस्था, पेयजल की व्यवस्था, पर्याप्त पार्क, बाग, क्लब, खेल के मैदान आदि की व्यवस्था थी। इसके विपरीत ब्लैक टाउन में आबादी ज्यादा तथा साफ-सफाई की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था।
2. सिविल लाइन्स का विकास किस प्रकार हुआ ?
उत्तर- 1857 के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया था। इसीलिये अंग्रेजों को नगरों के देशी निवासियों से दूर एक पृथक् स्थान पर बसाया जाता था। अंग्रेजों के इन निवास क्षेत्रों को “सिविल लाइन” के नाम से जाना जाने लगा। ये क्षेत्र नगर के आस-पास के खेतों तथा अन्य ऊबड़-खाबड़ क्षेत्रों को साफ करके विकसित किये गये थे। ये इलाके पक्की सड़कों द्वारा मुख्य नगर से जुड़े हुये थे। सिविल लाइन क्षेत्र काफी व्यवस्थित होते थे। इनमें बड़े-बड़े बंगले, बगीचे, सैनिकों के लिये बैरकें, परेड मैदान तथा गिरजाघर स्थित होते थे। इस प्रकार ये क्षेत्र (सिविल लाइन्स) यूरोपियनों के पर्याप्त सुरक्षित निवास स्थल थे। भारत के प्रायः महत्वपूर्ण नगरों का सिविल लाइन क्षेत्र अन्य क्षेत्रों के मुकाबले अधिक अच्छा है।
3. इण्डो-सारासेनिक शैली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर- इस स्थापत्य शैली में भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों शैलियों के तत्व विद्यमान थे। ‘इन्डो’ शब्द ‘हिन्दू’ का संक्षिप्त रूप था जबकि ‘सारासेन’ शब्द का प्रयोग यूरोपवासी मुसलमानों के लिये करते थे। मध्यकालीन भारतीय इमारतों की विशेषताओं जैसे- मेहराबों, गुम्बदों, छतरियों इत्यादि का इस शैली में प्रमुखतः समावेश किया गया था। चूँकि तुर्कों तथा मुगलों के पश्चात् अंग्रेज भारत में शासन में आये थे । अतः इस शैली के प्रयोग द्वारा वे भारत में अपने शासन की वैधता तथा स्वाभाविकता को सिद्ध करना चाहते थे। 1911 ई. में निर्मित ‘गेटवे ऑफ इण्डिया’ परम्परागत गुजराती शैली में बनाया गया था जो इण्डो-सारासेनिक शैली का प्रमुख उदाहरण है। इसे राजा “जॉर्ज पंचम” तथा उनकी पत्नी ‘मेरी’ के स्वागत में बनाया गया था।
4. रेलवे के विकास का नगरीकरण पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- रेलवे के विकास का नगरीकरण पर प्रभाव – भारत में रेलवे के निर्माण के पीछे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का उद्देश्य निःसन्देह भारत के आर्थिक शोषण से सम्बन्धित था। किन्तु भारत जैसे संसाधनों से युक्त विशाल राष्ट्र में रेलवे का निर्माण एक युगान्तकारी घटना सिद्ध हुई। भारत में सर्वप्रथम 16 अप्रैल, 1853 को बम्बई तथा थाणे के मध्य पहली रेलगाड़ी चली। इसकी दूरी 21 मील थी। 15 अगस्त, 1854 को हावड़ा से हुगली तक 25 मील लम्बी रेलवे लाइन के निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ। 1867 ई. में कलकत्ता एवं दिल्ली के बीच तथा कलकत्ता एवं बम्बई के बीच रेलवे लाइनें बन गई थीं।
रेलवे के विकास ने नगरों के स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया था। अब प्रत्येक प्रमुख रेलवे स्टेशन एक व्यापारिक केन्द्र बन गया। पुराने व्यापारिक नगरों का स्थान नये नगरों ने ले लिया। उदाहरण के तौर पर गंगा नदी के किनारे स्थित प्रमुख व्यापारिक नगर “मिर्जापुर” के महत्व में कमी आई तथा जमालपुर, बरेली जैसे रेल सेवायुक्त नगरों का तीव्र विकास हुआ।
इस प्रकार रेलवे के विकास ने नगरों के विकास को तीव्रतर किया।
5. औपनिवेशिक शासन ने मानचित्रों के निर्माण में किस प्रकार की कूटनीति का प्रयोग किया था ?
उत्तर- मानचित्रों के निर्माण में औपनिवेशिक कूटनीति- मानचित्रों के निर्माण तथा सर्वेक्षण पद्धतियों में औपनिवेशिक हितों का विशेष ध्यान रखा जाता था। इस कार्य हेतु 1878 ई. में ‘सर्वे ऑफ इण्डिया’ (भारत सर्वेक्षण) का गठन किया गया था। तत्कालीन मानचित्र तथा नक्शों के निर्माण में औपनिवेशिक कूटनीति को स्पष्टतः देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, इन नक्शों में निम्न वर्ग तथा निर्धनों की बड़ी-बड़ी बस्तियों को प्रदर्शित ही नहीं किया जाता था क्योंकि औपनिवेशिक शासन के लिये यह बस्तियाँ महत्वहीन थीं। अत: नक्शों में मौजूद इन स्थानों को रिक्त मान लिया जाता था जिसका विकास तथा नियोजक योजनाओं में उपयोग किया जा सकता था। इसी कारण जब इन योजनाओं को कार्यान्वित किया जाता था तो वहाँ से गरीबों की इन बस्तियों को निर्दयता से हटा दिया जाता था।
6. यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियों ने भारत में नगरीकरण को क्यों बढ़ावा दिया? दो कारण बताएँ ।
उत्तर- प्रारम्भ में इन कम्पनियों का उद्देश्य मात्र व्यापार करना था किन्तु भारत में व्याप्त आपसी फूट को देखकर इन्होंने यहाँ साम्राज्य निर्माण का निर्णय लिया था। पुर्तगालियों ने 1510 में गोवा में, डचों ने 1605 में मछलीपट्टनम में, अंग्रेजों ने मद्रास में 1639 में तथा फ्रांसीसियों ने 1673 में पाण्डिचेरी में अपने-अपने केन्द्र स्थापित कर लिये थे। इन केन्द्रों में व्यापारिक गतिविधियों में विस्तार के फलस्वरूप इनके समीप कई छोटे-छोटे नगर तथा कस्बों का जन्म हुआ। यूरोपियन कम्पनियों की व्यापारिक गतिविधियों के कारण पिछली शताब्दी में विकसित सूरत, मछलीपट्टनम, ढाका इत्यादि नगरों का ह्रास हुआ किन्तु साथ ही मद्रास, कलकत्ता, बम्बई जैसे व्यापारिक बन्दरगाहों का तीव्र विकास हुआ। प्लासी के युद्ध (1757 ई.) के पश्चात् ये नगर राजनैतिक तथा आर्थिक शक्ति के केन्द्र के रूप में सामने आये। इस प्रकार यूरोपियन कम्पनियों की व्यापारिक गतिविधियों एवं साम्राज्य स्थापना की महत्वाकांक्षा ने नगरीकरण की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया।
7. अठारहवीं सदी में शहरी केन्द्रों का रूपान्तरण किस तरह हुआ?
उत्तर- विभिन्न पूरोपीय पुर्तगाली, डच, अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों ने भारत में अपनी व्यापारिक बस्तियाँ स्थापित कीं। प्रारम्भ में इन कम्पनियों का उद्देश्य मात्र व्यापार करना था किन्तु भारत में व्याप्त आपसी फूट को देखकर उन्होंने यहाँ साम्राज्य निर्माण का निर्णय लिया था। पुर्तगालियों ने 1510 में गोवा में, डचों ने 1605 ई. मछलीपट्टनम में अंग्रेजों ने मद्रास में 1639 ई. में फ्रांसिसियों ने 1673 में पाण्डिचेरी में अपने-अपने केन्द्र स्थापित कर लिये थे। इन केन्द्रों में व्यापारिक गतिविधियों में विस्तार के फलस्वरूप इनके समीप कई छोटे-छोटे नगर एवं कस्बों का जन्म हुआ। यूरोपीय कम्पनियों की व्यापारिक गतिविधियों के कारण पिछली शताब्दी में विकसित सूरत, मछलीपट्टनम, ढाका इत्यादि नगरों का ह्रास हुआ किन्तु साथ ही मद्रास, कलकत्ता, बम्बई जैसे व्यापारिक बन्दरगाहों का तीव्र विकास हुआ।नयी क्षेत्रीय ताकतों का विकास क्षेत्रीय राजधानियों-लखनऊ, हैदराबाद, सेंरिंगपट्टम, पूना (पुणे), नागपुर, बड़ौदा तथा तंजौर (तंजाबुर) के बढ़ते महत्व में परिलक्षित हुआ । विभिन्न लोग जैसे- व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार तथा अन्य इन राजधानियों की ओर काम तथा संरक्षण की तलाश में आने लगे। कुछ स्थानीय विशिष्ट लोगों तथा उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य से सम्बद्ध अधिकारियों ने भी इस अवसर का उपयोग ‘कस्बे’ और ‘गंज’ जैसी नई शहरी बस्तियों को बसाने में किया परन्तु राजनीतिक विकेन्द्रीकरण के प्रभाव सभी जगह एक जैसे नहीं थे। अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्यवाद और पूँजीवाद की शक्तियाँ समाज के स्वरूप को परिभाषित करने लगी थीं। मध्य अठारहवीं शताब्दी से परिवर्तन का एक नया चरण आरम्भ हुआ। जब व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य स्थानों पर केन्द्रित होने लगीं तो सत्रहवीं शताब्दी में विकसित हुए सूरत, मछलीपट्टम तथा ढाका पतनोन्मुख हो गये। 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद जैसे-जैसे अंग्रेजों ने राजनीतिक नियंत्रण हासिल किया और इंगलिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार फैला, मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई जैसे औपनिवेशिक बन्दरगाह शहर तेजी से नयी आर्थिक राजधानियों के रूप में उभरे।
8. शहरी सामाजिक जीवन पर नगरीकरण के प्रभावों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- नगरीकरण के सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित थे- (1) मध्यम वर्ग का विकास – यद्यपि मध्यम वर्ग नगरीकरण के पूर्व भी अस्तित्व में था किन्तु समाज में उनका प्रतिशत बहुत कम था। नगरीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप नगरों में क्लर्कों, अध्यापकों, वकीलों, इंजीनियरों, लेखापालों की माँग बढ़ती जा रही थी। अतः इन कारणों से नगरों में इन वर्गों के लोगों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई। इन वर्गों के लोग शिक्षित तथा बौद्धिक रूप से जागृत होते थे। इन वर्गों के सम्मिलन से नगरों में एक “मध्यम वर्ग या मध्य वर्ग” का विकास हुआ। (2) महिलाओं की स्थिति पर प्रभाव – नगरीकरण का प्रभाव समाज में महिलाओं की स्थिति पर भी पड़ा। अब महिलाओं में भी शिक्षा का प्रसार हुआ। शिक्षित महिलाएँ घर की चारदीवारी से निकलकर विभिन्न पेशेवर कार्यों को सम्पन्न करने लगीं। हालांकि समाज का दृष्टिकोण इनके प्रति लम्बे समय तक अच्छा नहीं रहा था। स्त्रियों के बढ़ते महत्व के प्रति पुरुष समाज की चिन्ताओं को कालीघाट चित्र में देखा जा सकता है जिसे उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में बनाया गया था। (3) नवीन मजदूर वर्ग का उदय— नगरीकरण की प्रक्रिया से नगरों में बड़े-बड़े उद्योगों का विकास हुआ। इन नगरों में काफी बड़ी संख्या में मजदूर रोजगार के लिये एकत्रित होने लगे थे। इस प्रकार नगरों में एक बहुत बड़े “मजदूर वर्ग” का उदय तथा विकास हुआ। शहरों में उनके निवास तथा खान-पान की दशाएँ व कार्य-स्थल का वातावरण अच्छा नहीं होता था। इस कारण मजदूरों में अपने स्वामियों के प्रति असन्तोष फैलता जा रहा था। (4) अमीरों और गरीबों में खाई का बढ़ना – नगरीकरण की इस प्रक्रिया ने एक ओर जहाँ काफी सम्पन्न उद्योगपति, पूँजीपति वर्ग का विकास किया वहीं दूसरी ओर नगरों में एक ऐसे वर्ग का अस्तित्व भी था जिसे सर्वहारा की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस वर्ग के पास जीवन-यापन के पर्याप्त साधनों का नितान्त अभावथा ।
9. भवन निर्माण में आंग्ल-भारतीय स्थापत्य के समन्वय पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- जैसे-जैसे औपनिवेशिक नगरीय अर्थव्यवस्था का विकास होता गया वैसे-वैसे ही प्रशासनिक ढाँचे तथा परिवहन व्यवस्था को विकसित करना आवश्यक होता गया। इस हेतु नवीन इमारतों का निर्माण हुआ। ये इमारतें औपनिवेशिक शासकों की संस्कृति तथा गौरव को व्यक्त करती थीं। इन इमारतों में पाश्चात्य शैलियों का प्रयोग उपनिवेशवादी दृष्टि को कई प्रकार से व्यक्त करती थी – प्रथमतः ये इमारतें उपनिवेश में जाना-पहचाना परिवेश बनाने की अंग्रेजों की उत्कट अभिलाषा को प्रदर्शित करती थीं। दूसरी बात, अंग्रेजों का मानना था कि यूरोपियन शैलियाँ ही उनकी सत्ता, शक्ति तथा सर्वश्रेष्ठता को प्रदर्शित कर सकती हैं। तीसरी बात, अंग्रेज यह मानते थे कि यूरोपियन शैली की ये इमारतें औपनिवेशिक शासकों तथा भारतीय जनता के बीच के अन्तर को प्रदर्शित कर सकेंगी। कुछ भारतीयों ने भी यूरोपियन शैलियों को अपना लिया। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजों ने भी कुछ भारतीय शैलियों को अपनी सुविधा अनुसार प्रयोग किया। इस प्रकार भवन निर्माण में आंग्ल-भारतीय स्थापत्य का सम्मिश्रण तथा समन्वय हुआ । उदाहरण के लिये “Bungalow (बंगलों), जिसका प्रयोग तथा पूरे देश में सरकारी अधिकारियों के निवास हेतु किया जाता था। सिविल लाइनों में स्थित यह बँगले जातीय अभिमान का प्रतीक बन गये थे जिनमें यूरोपियन भारतीयों के साथ प्रतिदिन के सामाजिक सम्पर्क के बिना सन्तुष्टि से निवास कर सकते थे।