Hindi Class 12 Chapter 6 Subjective
12th Hindi Chapter 9 Subjective : Here you can find class 12th hindi 100 marks Subjective questions for board exam 2024.जन-जन का चेहरा एक subjective questions is very important for bihar board exam 2024.
जन-जन का चेहरा एक
1.’जन-जन का चेहरा एक‘ से कवि का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- विचार भाव बदल सकते हैं पर अत्याचार, दानवीय प्रकृति, अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष, श्रम, कर्म, न्याय, शांति-अशांति, संगठन, विघटन, भाईचारा, बन्धुत्व भाव, शत्रुता आदि के भाव सर्वत्र समान ही हैं चाहे वह व्यक्ति अमेरिका का हो या जापान का ।अतः कवि यह मानता है कि इस दृष्टि से जन-जन का चेहरा एक ही है।
2. बँधी हुई मुट्ठियों का क्या लक्ष्य है ?
उत्तर- मुट्ठी बँधकर एक शक्ति बन जाती है पाँचों अंगुलियाँ एक साथ बँधकर एक शक्ति बन जाती हैं यह संगठन का प्रतीक बन जाती हैं और संगठन में विलक्षण शक्ति होती है। किसी भी परिस्थिति में किसी भी संघर्ष से संगठन मार्ग निकालकर विपरीत हालातों को भी अनुकूल बना लेता है। यह संगठित शक्ति इतनी विलक्षण होती है कि जार, नीरो, नन्द जैसे आततायी भी मिट्टी में मिलाये जा सकते हैं। कितना ही बड़ा शत्रु क्यों न हो, जनशक्ति के सम्मुख बौना हो जाता है और बन्द मुट्ठी जनता की वह शक्ति है, जिसमें संकल्प समाया है, दृढ़ता समायी है। प्रखर तेज चमक रहा है यह सब कुछ भस्म करने की शक्ति रखता है|
3.कवि ने सितारे को भयानक क्यों कहा है? सितारे का इशारा किस ओर है ?
उत्तर – यहाँ ‘ सितारा‘ जनता का प्रतीक है। जनता ही वह शक्ति है जो किसी देश का निर्माण करती है। जब शोषक, पीड़क, जनविरोधी वर्ग सितारे को छेड़ता है तो जनता रूपी सितारा निराला रूप धारण कर लेता है। वह गा उठता है- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। फिर बड़े-बड़े तानाशाह कांप उठते हैं। रावण, कंस, हिटलर, जार तक थर्रा उठते हैं। यह सितारा एक ही इशारा करता है, हट जाओ, गद्दी छोड़ दो, अब हम राज्य संभालेंगे क्योंकि तुमने सारे मूल्यों को मिट्टी में मिला दिया है, अब तुम्हें हटना ही होगा। यह जनता रूपी सितारा जब दमकता है अपराधी, अत्याचारी, शोषक वर्ग की आँखें चुंधियाँ जाती हैं और उसकी चमक निरन्तर बढ़ती ही जाती है अर्थात् एक बार जन आक्रोश उबल पड़ा, फट पड़ा, फिर वह ज्वालामुखी बन जाता है और वह अपने भविष्य को सही दिशा देकर ही शांत होता है। जो भी इससे टकराया चूर-चूर हो गया। जिनके राज्य में सूरज नहीं डूबता था, उन्हें भी नंगे पाँव भागना पड़ा। जनता और एक लंगोटीधारी सितारा बस इतना ही तो था ।
4.नदियों की वेदना का क्या कारण है?
उत्तर –नदी एक धारा है, सतत् गतिशील, हर क्षण नवीन, परम पवित्र, शक्तिवाहिनी, जीवनदायिनी, यही है हमारी जनता – स्वच्छ पवित्र, कर्त्तव्य पथ पर आरूढ़, सतत् गतिशील, निर्माण का संकल्प लिये। नदी के सामने अवरोध आता है वह उसकी गति को नहीं रोक पाता यही हालत जनता की भी है- कोई भी अवरोध उसके सामने ठहर नहीं पाता है पर आज जनता रूपी नदी अपवित्र होती जा रही है, गतिहीनता ओढ़ती जा रही है, उसकी स्वच्छता, निर्मलता, सहज-स्वाभाविकता धूमिल हो गयी है, उसकी जीवनी शक्ति कुंठित होती जा रही है- यह स्थिति बड़ी पीड़ादायक है। यही है नदियों की वेदना का कारण। वे यही चाहती हैं, जनता उनके समान ही सतत् गतिशील रहे, कर्मठ बनी रहे, स्वच्छ रहे, पवित्र रहे और कल्याणकारी भी रहे।
5.अर्थ स्पष्ट करें- आशामयी लाल-लाल किरणों से अंधकारचीरता सा मित्र का स्वर्ग एक; जन-जन का मित्र एक
उत्तर- प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रगतिशील चेतना के कवि मुक्तिबोध की कविता ‘जन-जन का चेहरा एक‘ से उद्धृत हैं। उनकी दृष्टि से समष्टि भाव महत्वपूर्ण है। व्यक्ति का प्रत्येक कर्म समष्टि हितार्थ ही होना चाहिए काव्य का लक्ष्य भी समष्टि हितार्थ ही होना चाहिए। काव्य का लक्ष्य भी समष्टि चिंतन ही है। अतः यह चेतना भी तभी सार्थक है जब वह जन चेतना को जगाने का सामर्थ्य रखती है। एक मशाल बनकर उजाला फैलाती है। स्वतंत्रता के बाद जो मोहभंग की स्थिति आयी प्रबुद्ध जन मानस कराह उठा । व्याख्या – स्वतंत्रता आयी। एक नयी आशा लेकर आयी । आकांक्षाओं को समेटे आयी पर हमारे यहाँ स्वतंत्रता अधूरी थी। (मात्र कुछ व्यक्तियों को ही प्राप्त हुई थी।) सामान्यजन न तो आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र था और न ही उसका कोई सामाजिक वजूद था। उस काल की भ्रमित राजनीति ने उनके सामने से सब कुछ उठा लिया शेष रह गया मूल्यों का घटना, पिसना और मिटना । जनता के स्वप्न भंग हो गये, आशाएँ धूमिल हो गईं। सारे मोह भंग हो उठे। हमने नवयुग की जो कल्पना की थी नवीन भारत का जो चित्र हमने अपने अन्तर में उतारा था वह लाल-लाल किरणों के समान था। उसने सोचा था वह मित्र (सूर्य) अंधकार को चीरकर फेंक देगा क्योंकि सूर्य तो सबका होता है। वह कहीं भी अंधकार रहने ही नहीं देता पर यह क्या यहाँ तो अंधकार की कालिमा पसरी दिखायी दे रही है। सत्ता चंद हाथों में सिमट गयी, लोकतंत्र का तो बस नाम ही रह गया सामने आये वर्ग तंत्र ने क्या नहीं बिगाड़ा, बना क्या? यह स्थिति बड़ी भयावह बन गयी। विशेष – 1. सांकेतिक शैली में सार्थक स्थितियों की बड़ी प्रभावी व्यंजना की गयी है। 2. स्वप्नभंग की स्थिति से सर्वाधिक रूप से बुद्धिजीवी वर्ग ही त्रस्त हो उठा था। 3. भाषा सरल, प्रवाहमयी है। 4. शैली प्रतीकात्मक है। 5. अलंकार – रूपक, अतिशयोक्ति, अनुप्रास ।
6.एशिया के, यूरोप के अमरीका के भिन्न-भिन्न वास स्थान; भौगोलिक ऐतिहासिक बंधनों के बावजूद, सभी ओर हिन्दुस्तान, सभी ओर हिन्दुस्तान ।
प्रसंग– प्रस्तुत पंक्तियाँ मुक्तिबोध द्वारा रचित कविता ‘जन-जन का चेहरा एक‘ से उद्धृत हैं। यहाँ कवि ने यह संकेत किया है कि मानव की स्थितियाँ सर्वत्र समान हैं पर हमारा देश कुछ अधिक महान् है जो कुछ यहाँ पाया जाता है, वह कुछ विलक्षण, अद्भुत एवं विचित्र है।व्याख्या- विश्व में एशिया है, यूरोप भी है, अमरीका भी है-वहाँ नाना प्रकार के वास स्थान हैं, जहाँ विभिन्न प्रकार के मानव रहते हैं। उनकी अपनी भौगोलिक सीमाएँ हैं, उनका अलग-अलग इतिहास है पर भारत का दृश्य कुछ अलग ही है। यहाँ का रूप ही निराला है क्योंकि यहाँ जो कुछ है, वह अन्यत्र नहीं है, यहाँ भाई बहिन का अटूट प्यार है, विलक्षण है, ऐसा कहीं नहीं है। विशेष – 1. कवि यह मानता है कि जन-जन का चेहरा एक है, फिर भी वह यह भी स्वीकार करता है कि भारत की कुछ अलग ही विशेषताएँ हैं। 2. उन्होंने कहा है, क्या कन्हैया कहीं और भी गायें चराता है, कहीं और भी बंशी की ऐसी ध्वनि होती है, जिस पर गोपियाँ पागल हो उठती हैं। 3. भाषा परिष्कृत एवं सरल है। 4. अनुप्रास अलंकार का प्रभावी प्रयोग हुआ है|
7.‘दानव दुरात्मा‘ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर–दानव तो राक्षसों को ही कहा जाता है, वे प्रायः दुरात्मा ही होते हैं पर मानव भी दुरात्मा हो सकता है। जो दुष्ट कर्म करता है, उसको दुरात्मा ही कहा जा सकता है। यह दुरात्मा, मानवतावादी सोच के विपरीत बुद्धि वाला, सर्वथा अमानवीय व्यक्ि किसी भी देश से हो सकता है, वह किसी देश विशेष का प्राणी नहीं है, उसकी व्याप्ति सर्वत्र है। उसकी दुनिया निराली होती है, उसके सामने भौगोलिक सीमाओं का कोई बन्धन नहीं है, उसकी उपस्थिति सर्वत्र है। जहाँ तक मानवीय मूल्यों का प्रश्न है, वे सर्वत्र समान ही हैं, यही स्थिति अमानवीय मूल्यों की भी होती है, वे भी सर्वत्र एक-सी ही पायी जाती हैं। उनमें किसी प्रकार का बदलाव नहीं होता।
8. ज्वाला कहाँ से उठती है? कवि ने उसे‘अतिक्रुद्ध क्यों कहा है?
उत्तर – यह क्रान्ति और चेतना की ज्वाला है जो जन-मानस में धधकती है। जब जनता पर अत्याचार होते हैं उसके हाथ का काम और मुँह का कौर छिन जाता है तब वह विवश हो उठती है। उसकी सोयी चेतना चंचल हो उठती है, आक्रोश भड़क उठता है और वह आततायी, अत्याचारी, अन्यायी को नेस्तनाबूत करने हेतु उठ खड़ी होती है। अपने ख्वाब छीनने वालों पर पिल पड़ती है – हिंसात्मक भी हो उठती है। जब उसका अधिकार उसको जाता हुआ दिखायी देता है वह भूखे सिंह के समान भयंकर रूप धारण कर लेती है और अत्याचारी अनाचारी पर टूट पड़ती है। जब भूख की ज्वाला उसको मथती है और वह असहनीय हो जाती है तो वह पागल हो उठती है और कुछ भी करने को उद्यत हो जाती है, साथ ही उसमें विलक्षण शक्ति का संचार भी हो उठता है। उस समय वह भी अमानवतावादी रूप धारण कर लेती है। यह स्वाभाविक भी है। तुम खाओ गुलगुले और हमें रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं तब होना ही पड़ता है दानव और मानवता भाग जाती है।
9.समूची दुनिया में जन-जन का युद्ध क्यों चल रहा है ?
उत्तर- समाज के कई वर्ग हैं- एक पूँजीपति, दूसरा मजदूर जिसे सर्वहारा भी कहा जाता है। यह वर्ग मजदूर है। किसान है। यह श्रम करता है पर उसके श्रम पर ऐश उड़ाते हैं पूँजीपति यहाँ तक तो ठीक है। पर जब उनके श्रम का उचित मूल्य उसे नहीं प्राप्त होता, उनका शोषण किया जाता है, उत्पीड़न किया जाता है, उनकी रोटी छीनी जाती है इस स्थिति में उनका आक्रोश भड़क उठता है और संघर्ष खूनी भी हो उठता है। यहाँ अस्तित्व की लड़ाई है, अस्तित्व सर्वहारा का ही खतरे में होता है, शोषक का नहीं। आज का युग सर्वहारा के लिए पीड़ादायक है, महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार की शिकार आम जनता ही होती हैं, पूँजीपति पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इन स्थितियों से दुखी शोषण से परेशान सर्वहारा संघर्ष के पथ पर चल देता है और जन-जन का युद्ध प्रारम्भ हो जाता है।
10.कविता का केन्द्रीय विषय क्या है?
उत्तर- प्रस्तुत कविता ‘जन-जन का चेहरा एक‘ की संवेदना वैश्विक और सार्वभौम है। यहाँ पीड़ित और शोषित एवं संघर्षशील जनता का जो अपने मानवोचित अधिकार हेतु क्रियाशील है का चित्र उतारा गया है। यह जनता सर्वत्र एक-सी है। प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक प्रान्त में और प्रत्येक देश में वह समान है। उसका चेहरा भी समान है, उसकी पीड़ाएँ भी समान हैं और उसका संघर्ष भी समान है, वह अपने कर्म तथा श्रम के आधार पर न्याय माँगती है, अपना हक माँगती है, वह शान्ति चाहती है, भाईचारा चाहती है। यह समान भाव, संघर्ष, संवेग है उसके प्रति कवि के मन में गहरी संवेदना है। इसी आधार पर कवि जनता के अन्तर को टटोलता है, परखता है और पाता है, उसकी आशाएँ व आकांक्षाएँ धूमिल होती जा रही हैं। असमय में उस पर बुढ़ापा आता चला जा रहा है। उसके शत्रु (पूँजीपति) गहरी काली छायाएँ पसार कर काले पहाड़ के समान डटे खड़े हैं, जिसने हरियाली को काली धुंध में बदल दिया है, यह घुटन भरी व्यवस्था उसकी नियति बन गयी है, उसमें ही उसको जीना है उसको एक ही गीत गाना है, वह है वेदना का और वह कर ही क्या सकती है क्योंकि उसकी सारी उमंगें रौंद दी गयी
11. प्यार का इशारा और क्रोध का दुधारा से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर – प्यार और क्रोध मानवीय वृत्तियाँ हैं। इनका रूप समान ही होता है, वह चाहे जिस जाति से हो, धर्म से हो या देश से हो प्रेम का इशारा सर्वत्र समान ही रहता है, वह मानवीय वृत्ति है और मानवीय वृत्तियाँ समान रहती हैं। क्रोध भी मनोवेग है उसका रूप भी समान ही रहता है। यह क्रोध व्यक्तिगत होता है तब उसका कोई भी रूप हो सकता है पर जब यह क्रोध शोषण, अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध उमड़ता है तो उसका रूप भी एक ही होता है, सर्वत्र एक ही होता है, उसके उबाल में परिवर्तन नहीं होता, उसके कई रूप न होकर, एक ही रूप नजर आता है।
12.. पृथ्वी के प्रसार को किन लोगों ने अपनी सेनाओं से गिरफ्तार कर रखा है?
उत्तर- यह कार्य पूँजीपतियों द्वारा ही हो रहा है और उनकी सेना है उद्योग-व्यवसाय, जिसके माध्यम से पृथ्वी के विस्तार को अपने में समेट लिया है। पृथ्वी का विस्तार यहाँ भौतिक नहीं है, भावात्मक और मानसिक है। प्रेम, सौहार्द्र, आनन्द, उल्लास यह सब खो गया है उनका जो सर्वहारा है, आशा, आकांक्षाएँ, मिट गयी हैं, उनकी जो संवेदना है उन पर पूँजीपतियों का पहरा है, अर्थात् सर्वहारा जहाँ भी है उसका भौतिक अस्तित्व कुछ नहीं भावात्मक अस्तित्व भी कुछ नहीं वह मात्र पूँजीपतियों की मुट्ठी में बन्द है ।
13. कविता की पंक्ति पंक्ति का अर्थ स्पष्ट करते हुए भावार्थ लिखिये ।
उत्तर- व्याख्यात्मक प्रश्न का अध्ययन करें।
14.मुक्तिबोध की कविताओं की क्या पहचान है ?
उत्तर – मुक्तिबोध की कविताओं की पहचान सरल भाषा पर जटिल संवेदना है। आपकी कविताओं में जीवन संघर्ष का प्रखर स्वर और शासन व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया है। परम्पराओं का उन्होंने अतिक्रमण किया है, फिर वह परम्परा कहीं भी हो हैं|