Hindi Class 12 Chapter 9 Subjective
12th Hindi Chapter 9 Subjective : Here you can find class 12th hindi 100 marks Subjective questions for board exam2024.प्रगीतऔरसमाज subjective questions is very important for bihar board exam 2024.
प्रगीत और समाज
1.‘शेर सिंह का शस्त्र-समर्पण’ किनका आख्यानक काव्य है?
उत्तर- जयशंकर प्रसाद।
2.आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काव्य सिद्धान्त के आदर्श क्या थे?
उत्तर- प्रबंध काव्य।
3.किस काव्य में मानव जीवन का एक पूर्ण दृश्य होता है?
उत्तर-प्रबंध काव्य।
4.हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान किनकी कृति है?
उत्तर-डॉ. त्रिभुवन सिंह।
5.नामवर सिंह का जन्म हुआ था।
उत्तर- 28 जुलाई, 1927 ई.।
6.आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य-आदर्श क्या थे, पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य सिद्धान्त के आदर्श प्रबंधकाव्य थे। प्रबंधकाव्य में मानव जीवन का पूर्ण दृश्य होता है। उसमें घटनाओं की सम्बद्ध श्रृंखला और स्वाभाविक क्रम से ठीक-ठीक निर्वाह के साथ हृदय को स्पर्श करने वाले, उसे नावा भावों को रसाफक अनुभव करानेवाले प्रसंग होते हैं। यही नहीं प्रबन्ध काव्य में राष्ट्रीय-प्रेम, जातीय-भावना धर्म-प्रेम या आदर्श जीवन की प्रेरणा देना ही उसका उद्देश्य होता है। प्रबंधकाव्य की कथा चूँकि यथार्थ जीवन पर आधारित होती है इससे उसमें असम्भव और काल्पनिक कथा का चमत्कार नहीं बल्कि यथार्थ जीवन के विविध पक्षों का स्वाभाविक और औचित्यपूर्ण चित्रण होता है। शुक्ल को ‘सूरसागर’ इसलिए परिसीमित लगा क्योंकि वह गीतिकाव्य है। आधुनिक कविता से उन्हें शिकायत थी कि ‘कला कला के लिए’ की पुकार के कारण यूरोप में प्रगीत मुक्तकों का ही चलन अधिक देखकर यहाँ भी उसी का जमाना यह बताकर कहा जाने लगा कि अब ऐसी लम्बी कविताएँ पढ़ने की किसी को फुरसत कहाँ जिनमें कुछ दतिवृत भी मिला रहता हो। इस प्रकार काव्य में जीवन की अनेक परिस्थितियों की ओर ले जानेवाले प्रसंगों या आख्यानों की उद्भावना बंद सी हो गई। इसीलिए ज्योंही प्रसाद की शेरसिंह का शस्त्र-समर्पण, पेथोला की प्रतिध्वनि, प्रलय की छाया तथा कामायनी और निराला की राम की शक्तिपूजा तथा तुलसीदास के आख्यानक काव्य सामने आए तो शुक्ल जी संतोष व्यक्त करते हैं। शुक्ल के संतोष व्यक्त करने का कारण है कि प्रबंध काव्य में जीवन का पूरा चित्र खींचा जाता है। कवि अपनी पूरी बात को प्रबलता के साथ कह पाता है। यही कारण है कि रामचन्द्र शुक्ल को काव्यों में प्रबंधकाव्य प्रिय लगता है।
7.‘कला-कला के लिए’ सिद्धान्त क्या है?
उत्तर- ‘कला-कला के लिए’ सिद्धान्त का अर्थ है कि कला लोगों में कलात्मकता का भाव उत्पन्न करने के लिए है। इसके द्वारा रस एवं माधुर्य की अनुभूति होती है, इसीलिए प्रगीत मुक्तकों (लिरिक्स) की रचना का प्रचलन बढ़ा है। इसके लिए यह भी तर्क दिया जाता है कि अब लंबी कविताओं को पढ़ने तथा सुनने की फुरसत किसी के पास नहीं है। ऐसी कविताएँ जिसमें कुछ इतिवृत्त भी मिला रहता है, उबाऊ होती है। विशुद्ध काव्य की सामग्रियाँ ही कविता का आनन्द दे सकती हैं। यह केवल प्रगीत-मुक्तकों से ही संभव है।
8.प्रगीत को आप किस रूप परिभाषित करेंगे? इसके बारे में क्या धारणा प्रचलित रही है?
उत्तर- अपनी वैयक्तिकता और आत्मपरकता के कारण “लिरिक” अथवा “प्रगीत” काव्य की कोटि में आती है। प्रगीतधर्मी कविताएँ न तो सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त समझी जाती हैं, न उनसे इसकी अपेक्षा की जाती है। आधुनिक हिन्दी कविता में गीति और मुक्तक के मिश्रण से नूतन भाव भूमि पर जो गीत लिखे जाते हैं उन्हें ही ‘प्रगति’ की संज्ञा दी जाती है। सामान्य समझ के अनुसार प्रगीतधर्मी कविताएँ नितांत वैयक्तिक और आत्मपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मात्र हैं, यह सामान्य धारणा है। इसके विपरीत अब कुछ लोगों द्वारा यह भी कहा जाने लगा है कि अब ऐसी लम्बी कविताएँ जिसमें कुछ इतिवृत्त भी मिला रहता है, इन्हें पढ़ने तथा सुनने की किसी को फुरसत कहाँ है अर्थात् नहीं है।
9.वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं से क्या तात्पर्य है? आत्मपरक प्रगीत और नाट्यधर्मी कविताओं की यथार्थ-व्यंजना में क्या अन्तर है?
उत्तर- वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं में जीवन के समग्र चित्र उपस्थित हो जाते हैं। वस्तुतः मुक्तिबोध की लम्बी रचनाएँ वस्तुपरक हैं परन्तु आत्मसंघर्ष ज्यादा मुखरित है। ये कविताएँ अपने रचना-विन्यास में प्रगीतधर्मी हैं। किसी-किसी में तो नाटकीय रूप के बावजूद काव्यभूमि मुख्यतः प्रगीतभूमि है। कहीं नाटकीय एकालाप मिलता है तो कहीं पूर्णतः शुद्ध प्रगीत, जैसे ‘सहर्ष स्वीकारा है’ अथवा ‘मैं तुमलोगों से दूर हूँ।’ जैसा कि मुक्तिबोध स्वयं लिखते हैं कि निस्संदेह उसमें कथा केवल आभास है नाटकीयता केवल मरीचिका है, वह विशुद्ध आत्मगत काव्य है। जहाँ नाटकीयता, है वहाँ भी “कविता के भीतर की सारी नाटकीयता” वस्तुतः भावों की है। जहाँ नाटकीयता है वहाँ वस्तुतः भावों की गतिमयता है “क्योंकि” वहाँ जीवन-यथार्थ केवल भाव बनकर प्रस्तुत होता है। इस प्रकार यह आत्मपरकता अथवा भावमयता किसी कवि की सीमा नहीं बल्कि शक्ति है जो उसकी प्रत्येक कविता को गति और ऊर्जा प्रदान करती है।। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये आत्मपरक प्रगीत भी नाट्यधर्मी लम्बी कविताओं के सदृश्य ही यथार्थ को प्रतिध्वनित करते हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि यहाँ वस्तुगत यथार्थ को अंतर्जगत उस मात्रा में घुला लेता है जितनी उस यथार्थ की ऐन्द्रिय उबुद्धता के लिए आवश्यक है। इस प्रकार एक प्रगीतधर्मी कविता में वस्तुगत यथार्थ अपनी चरम आत्मपरकता के रूप में ही व्यक्त होता है। मुक्तिबोध की आत्मपरक छोटी कविताओं में निहित सामाजिक सार्थकता का बोध स्वभावतः होता है।
10.हिन्दी कविता के इतिहास में प्रगीतों का क्या स्थान है सोदाहरण स्पष्ट करें।
उत्तर- प्रगीत वे कविताएँ हैं जिन्हें अक्सर माना जाता है कि ये कविताएँ सीधे-सीधे सामाजिक न होकर अपनी वैयक्तिकता और आत्मपरकता के कारण ‘लिरिक’ अथवा प्रगीत काव्य की कोटि में आती हैं। गीतिकाव्य गीतशैली का नव्यतम विकास है। प्रगीतधर्मी कविताएँ न तो सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त समझी जाती हैं न उनसे इसकी अपेक्षा की जाती है क्योंकि साम्राज्य समझ के अनुसार वे अंततः नितांत वैयक्तिक और आत्मपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मात्र हैं। परन्तु छायावादीकाल में प्रसाद की शेरसिंह का शस्त्रसमर्पण, पेथोला की प्रतिध्वनि, ‘प्रलय की छाया’ तथा ‘कामायनी’ और निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ तुलसीदास जैसे आख्यानक काव्य इस मिथक को तोड़ते हुए प्रगीतों की अलग कोटि विकसित करते हैं। आगे मुक्तिबोध, नागार्जुन, समशेर बहादुर सिंह के प्रगीत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मुक्तिबोध के यहाँ प्रगीत वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं के रूप में हैं जो आत्मपरक हैं। आत्मसंघर्ष से उपजी हैं जिनमें सामाजिक भी निहित है। ये नई कविता के अन्दर आत्मपरक कविताओं की ऐसी प्रबल प्रवृत्ति थी जो या तो समाज निरपेक्ष थी या फिर जिसकी सामाजिक अर्थवत्ता सीमित थी। परन्तु इनमें जीवन यथार्थ भाव बनकर प्रस्तुत होता है। त्रिलोचन ने वर्णनात्मक कविताओं के बावजूद ज्यादातर सॉनेट और गीत ही लिखे हैं। कहने के लिए तो ये प्रगीत हैं लेकिन जीव जगत और प्रकृति के जितने रंग-बिरंगे चित्र त्रिलोचन के काव्य संसार में मिलते हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रगीतों में मितकथन में अतिकथन से अधिक शक्ति होती है। अतः प्रगीत का इतिहास समकालीन कवियों का इतिहास कह सकते हैं।
11.आधुनिक प्रगीत-काव्य किन अर्थों में भक्ति काव्य से भिन्न एवं गुप्तजी के आदि के प्रबंध काव्य से विशिष्ट है? क्या आप आलोचक से सहमत हैं? अपने विचार
उत्तर- आधुनिक प्रगीत काव्य में भी प्रबंध काव्य की भाँति जीवन के सारे चित्र खींचे जाते हैं। मुक्तिबोध, प्रसाद, निराला, नागार्जुन शमशेर की लम्बी कविताएँ क्रमशः ब्रह्मराक्षस, पेथोला की प्रतिध्वनि, शेर सिंह का आत्मसमर्पण, तुलसीदास, राम की शक्तिपूजा, अकाल और उसके बाद इत्यादि की कविताएँ उदाहरण हैं। इन कविताओं की खास बात यह है कि मितकथन में अतिकथन से अधिक शक्ति होती है और यही बात इनमें कही गयी है। प्रबंधकाव्य की तरह इनमें भी नाटकीयता का समावेश है। साथ ही सामाजिक संघर्ष के बदले आत्मसंघर्ष मुखरित है। परन्तु निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’, तुलसीदास में सामाजिक संघर्ष के साथ आत्मसंघर्ष का मिश्रित रूप है। आधुनिक युग के प्रगीत काव्यों की मुख्य भाव-भूमि राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष है जो गुप्त के काव्यों में दिखलाई पड़ती है। इनमें भक्तिकाव्य से भिन्न इस रोमांटिक प्रगीतात्मकता के मूल में एक नया व्यक्तिवाद है, जहाँ ‘समाज’ के बहिष्कार के द्वारा ही व्यक्ति अपनी सामाजिकता प्रमाणित करता है। इन रोमांटिक गीतों में भक्तिकाव्य जैसी तन्मयता नहीं है किन्तु आत्मयता और ऐन्द्रियता कहीं अधिक है। गुप्त का प्रबन्ध काव्य सीधे-सीधे राष्ट्रीय विचारों को रखता है और रोमांटिक प्रगीत उस युग की चेतना को अपनी असामाजिकता में ही अधिक गहराई से वाणी दे रहे थे। इसलिए विशिष्ट है। आलोचक ने जो उदाहरण निराला आदि कवियों की कविताओं को प्रगीत के जो रूप में दिये हैं उदाहरण इनमें सच्चे अर्थों में सामाजिकता छिपी है। अतः लेखक के विचार में सामाजिक संघर्ष के साथ आत्मसंघर्ष भी मायने रखता है। अतः प्रगीत काव्य भक्ति काव्य से अधिक सूक्ष्म रूप में वाणी देता है।।
12.“कविता जो कुछ कह रही है उसे सिर्फ वही समझ सकता है जो इसके एकाकीपन में मानवता की आवाज सुन सकता है।” इस कथन का आशय स्पष्ट करें। साथ ही किसी उपयुक्त उदाहरण से अपने उत्तर की पुष्टि करें।
उत्तर- आलोचक की दृष्टि में प्रगीत वैसा काव्य है जिसमें व्यक्ति का एकाकीपन झलके अथवा समाज के विरुद्ध व्यक्ति या समाज से कटा हुआ हो। प्रगीतात्मकता का अर्थ है एकांत संगीत अथवा अकेले कंठ की पुकार। प्रगीत की यह धारणा इतनी बद्धमूल हो गयी है कि आज भी प्रगीत के रूप में प्रायः उसी कविता को स्वीकार किया जाता है जो नितांत वैयक्तिक और आत्मपरक है। परन्तु थियोडोर एडोनों ने कहा है कि व्यक्ति अकेला है यह ठीक है परन्तु उसका आत्मसंघर्ष अकेला नहीं है। उसका आत्मसंघर्ष समाज में प्रतिफलित होता है। यही कारण है कि बच्चन जैसे कवि सरल सपाट निराशा से अलग करते हुए एक गहरी सामाजिक सच्चाई को “जक संघर्ष के सारण इनमें सच्चे अरण निराला आदि व्यक्त करता है। कवि अपने अकेलेपन में समाज के बारे में सोचता है। नई प्रक्रिया द्वारा उसका निर्माण करना चाहता है। यहाँ व्यक्ति बनाम समाज जैसे सरल द्वन्द्व का स्थान समाज के अपने अंतर्विरोधों ने ले लिया है। व्यक्तिवाद उतना आश्वस्त नहीं रहा बल्कि स्वयं व्यक्ति के अन्दर भी अंत:संघर्ष पैदा हुआ। विद्रोह का स्थान आत्मविडंबना ने ले लिया। यहाँ समाज के उस दबाव को महसूस किया जा सकता है जिसमें अकेले होने की विडंबना के साथ उसका अन्तर्द्वन्द्व उसे सामाजिकता की प्रेरणा देता है और कवि प्रगतिवादी हो जाता है। परिणाम अन्दर से निकलकर बाहर जनता के पास जाना।।
13.मुक्तिबोध की कविताओं पर पुनर्विचार की आवश्यकता क्यों है? आलोचक के इस विषय में क्या निष्कर्ष है?
उत्तर- मुक्तिबोध की कविताओं पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता इसलिए है कि उनकी कविताओं में निहित सामाजिक सार्थकता की संभावनाओं का पूरा-पूरा एहसास किसी को न था। नई कविता के अन्दर आत्मपरक कविताओं की एक ऐसी प्रबल प्रवृत्ति थी जो या तो समाज निरपेक्ष थी या फिर जिनकी सामाजिक अर्थवत्ता सीमित थी। इसलिए इन सीमित अर्थभूमिवाली कविताओं के आधार पर निर्मित एकांगी एवं अपर्याप्त काव्य सिद्धान्त के दायरे को तोड़कर एक व्यापक काव्य-सिद्धान्त की स्थापना के लिए मुक्तिबोध की कविताओं का समावेश ऐतिहासिक आवश्यकता थी। किन्तु इनके बाद भी ऐसी अनेक आत्मपरक प्रगीतधर्मी छोटी कविताएँ बची रहती हैं जो अपनी सामाजिक अर्थवत्ता के कारण उस काव्य सिद्धान्त को व्यापक बनाने में समर्थ हैं। मुक्तिबोध की कविता रचना विन्यास में प्रगीतधर्मी हैं। नाटकीय रूप के बावजूद काव्यभूमि मुख्यतः प्रगीतधर्मी है। इसमें कोई शक नहीं कि उनका समूचा काव्य मूलत: आत्मपरक है। रचना-विन्यास में कहीं पूर्णतः नाट्यधर्मिता है, कहीं नाटकीय एकालाप है, कहीं नाटकीय प्रगीत है और कहीं शुद्ध प्रगीत भी है। कवि स्वयं उसके बारे में लिखते हैं कि इसमें कथा केवल आभास है, नाटकीयता केवल मरीचिका है, वह विशुद्ध आत्मगत काव्य है। जहाँ नाटकीयता है वहाँ जीवन-यथार्थ भाव बनकर प्रस्तुत होता या बिंब या विचार बनकर। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये आत्मपरक प्रगीत भी नाट्यधर्मी लम्बी कविताओं के सदृश ही यथार्थ को प्रतिध्वनित करते हैं। इस प्रकार उनकी कविताओं में निहित सामाजिक सार्थकता का बोध स्वभावतः संभावनाओं की तलाश करता है जिसके लिए मुक्तिबोध की कविताओं पर पुनर्विचार आवश्यक है।
14.त्रिलोचन और नागार्जुन के प्रगीतों की विशेषताएँ क्या हैं? पाठ के आधार पर स्पष्ट करें। नामवर सिंह ने त्रिलोचन के सॉनेट, वही त्रिलोचन है वह और नागार्जुन की कविता ‘तन गई रीढ़’ का उल्लेख किया है। ये दोनों रचनाएँ पाठ के आस-पास खंड में दी गई हैं। उन्हें भी पढ़ते हुए अपने विचार दें।
उत्तर- त्रिलोचन की कविताएँ कहने के लिए प्रगीत हैं लेकिन जीव-जगत और प्रकृति के जितने रंग-बिरंगे चित्र त्रिलोचन के काव्य संसार में मिलते हैं वे अन्यत्र दुर्लभ है। किन्तु इन भास्वर चित्रों को अंततः जीवंत बनानेवाला प्रगीत नायक का एक अनूठा व्यक्तित्व है जिसका स्पष्ट चित्र ‘उस जनपद का कवि हूँ। संग्रह के उन आत्मपरक सॉनेटों में मिलता है। इनमें आत्मचित्र वस्तुतः एक प्रगीत-नायक की निर्वैयक्तिक कल्प-सृष्टि है जिनसे नितांत वैयक्तिकता के बीच भी एक प्रतिनिधि चरित्र से परिचय की अनुभूति होती है। वहीं नागार्जुन की बहिर्मुखी आक्रामक काव्य-प्रतिभा के बीच आत्मपरक प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति के क्षण भी आते हैं, लेकिन जब आते हैं तो उनकी विकट तीव्रता प्रगीतों के परिचित संसार का एक झटके से छिन्न-भिन्न कर देती है फिर चाहे ‘वह तन गई रीढ़’ जैसे प्रेम और ममता की नितांत निजी अनुभूति हो, चाहे जेल के सीखंचों से सिर टिकाए चलने वाला अनुचिंतन और अनुताप नागार्जुन के काव्य-संसार के प्रगीत-नायक का निष्कवच फक्कड़ व्यक्तित्व उनके प्रगीतों को विशिष्ट रंग तो देता ही है, सामाजिक अर्थ भी ध्वनित करता है। कवि त्रिलोचन ‘वही त्रिलोचन है वह’ और नागार्जुन की ‘तन गई रीढ़’ कविता में अपनी वैयक्तिकता में विशिष्ट और सामाजिकता में सामान्य है। यहाँ कवि व्यक्तिवादी न होते हुए भी व्यक्ति-विशिष्ट के प्रति झुका हुआ है। अपने समाज से लड़ते हुए सामाजिक है। दुनियादारी न होते हुए भी इसी दुनिया का है। यह नया प्रगीत उनके नये व्यक्तित्व से ही संभव हो सका है। उनके व्यक्तित्व के साथ निश्चित सामाजिक अर्थ भी ध्वनित करता है। इन कविताओं में कवि समाज के बहिष्कार के द्वारा ही व्यक्ति अपनी सामाजिकता प्रमाणित करता है और व्यक्तिवाद को जन्म देनेवाली औद्योगिक पूँजीवादी समाजव्यवस्था का पुरजोर विरोध करते हैं। कवि की मानसिक स्थिति बदल जाती है। व्यक्ति बनाम समाज जैसे सरल द्वन्द्व का स्थान समाज के अपने अंतर्विरोधों ने ले लिया है। स्वयं व्यक्ति के अंदर के अंत:संघर्ष को दिखलाते हैं।
15.मितकथन में अतिकथन से अधिक शक्ति होती है। केदारनाथ सिंह की उद्धृत कविता से इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर- हिन्दी के साहित्य के दौर में कविता में एक नया उभार पैदा होता है जिसमें कवि का अपना आत्मसंघर्ष तो है ही वह सामाजिक संभावनाओं की तलाश भी उसमें करता है। आज का कवि न तो अपने अंदर झाँककर देखने में संकोच करता है न बाहर के यथार्थ का सामना करने में हिचक। अन्दर न तो किसी असंदिग्ध विश्वदृष्टि का मजबूत खूटा गाड़ने की जिद है और न बाहर व्यवस्था को एक विराट पहाड़ बनाकर आँकने की हवस। वह बाहर से छोटी-से-छोटी, वस्तु घटना आदि पर नजर रखता है और कोशिश करता है कि उसे मुकम्मल अर्थ दिया जाए, छोटी-सी बात को बात में ही बहुत कुछ कह दिया जाय। वह अपने आत्मसंघर्ष की सामाजिक संघर्ष बनाने की चाहत है। इसका उदाहरण मुक्तिबोध की कविताएँ हैं। नई कविता का आत्मसंघर्ष उनके कवियों का आत्मसंघर्ष है जो बहिसंघर्ष का रूप ले लेता है। एक में प्रगीतात्मकता सीमित हुई नजर आती है तो दूसरे में प्रगीतात्मकता के कुछ नए आयाम उद्घाटित होते हैं। कवि कम ही शब्दों में बहुत कुछ कहता है, जो बात कम शब्द में कही जाती है वह गहरे अर्थ रखती है। कविता का अर्थ करने पर उसके कई स्तर धीरे-धीरे खुलते जाते हैं। केदारनाथ सिंह यहाँ कहना चाहते हैं कि सम्बन्धों में कभी खटास नहीं आनी चाहिए। उसमें हमेशा गर्माहट और उसकी सुन्दरता बनी रहनी चाहिए। ‘हाथ की तरह गर्म और सुन्दर में’ कवि बहुत सारे सपने संजोये हुए हैं और भविष्य की आकांक्षा को मजबूती बनाये रखना चाहता है।।